।। माता हि जगतां सर्वासु स्त्रीष्वधिष्ठिता ।।
स्त्रियों का जीवन कितना त्याग और तपमय है इसे तो कोई भी वर्णित नहीं कर सकता। इसीलिए धर्मशास्त्रों ने भी स्त्री को एक उच्च स्तर पर स्थापित किया है। महिलाओं की महत्ता बताते हुए प्रथम धर्मशास्त्र मनुस्मृति में भगवान मनु कहते हैं कि, 'जहां नारी का सम्मान किया जाता है वहां देवता विचरण करते हैं। इसके विपरीत नारी का अवमान किया जाना सभी सुफलों को नष्ट करने वाला है।'
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:।
यत्रैस्तास्तु न पूज्यान्ते सर्वास्त्राफला: क्रिया:।।
नारी सदैव और सर्वथा वंदनीय है। अभिनंदनीय है। उसे किसी भी स्थिति में पीड़ित नहीं किया जा सकता है। रामायण में प्रसंग मिलता है कि राम के वनवास के बाद जब ननिहाल से वापस आकर भरत और शत्रुघ्न को मंथरा की कुटिलता पता चलती है तो शत्रुघ्नजी सबसे पहले मंथरा को ढूंढ़कर उसे पीटने लगते हैं। तब वह भागती हुई भरतजी के समीप जाती है। तब भरत शत्रुघ्न को रोकते हुए कहते हैं जो हुआ सो हुआ। इसे मत मारो। क्षमा कर दो। सभी प्राणियों में स्त्री सदा अवध्या है।
अवध्या: सर्वभूतानां प्रमदा: क्षम्यतामिति।।
वायुमहापुराण में भी है कि जब भगवान विष्णु देवी ख्याति का मस्तक काट देते हैं तब महर्षि भृगु कुपित होकर शाप देते हैं कि नारायण! आपने स्त्री के महत्व को जानते हुए भी यह अपकर्म किया। अतः आप पृथ्वी पर बार-बार गर्भवास पाएंगे।
यस्मात्ते जानता धर्मानवध्या स्त्री निषूदिता।।
भृगु मुनि ने कहा कि आप जानते हैं धर्मत: स्त्री अवध्या है। उसका वध नहीं किया जा सकता।
ब्रह्मांडपुराण में कथा आती है कि राजा पृथु के धरती को उलट-पुलट करने को उद्यत होने पर धरती देवी कहती हैं कि मुझे क्षमा करिए। पशु-पक्षियों में भी स्त्री जाति सदा अवध्या हैं। ऐसा विद्वानों का मत है। अतएव मुझे स्त्री समझकर अवध्या जानकर क्षमा करिए।
अवध्याश्च स्त्रिय: प्राहुस्तिर्यग्योनिगतेष्वपि।।
देवी की उपासना में तो स्त्री को और भी सम्मान दिया गया है। ब्रह्मवैवर्तपुराण में कहा गया कि, 'जो स्त्री के सम्मान की रक्षा करता है उसका सदैव शुभ ही शुभ होता है। परंतु जो अधम व्यक्ति महिला की अवमानना करते रहता है उसका भगवती पार्वती सदैव अमंगल ही अमंगल करती हैं।'
पदे पदे शुभं तस्य य: स्त्रीमानं च रक्षति।।
अवमन्य स्त्रियं मूढो यो याति पुरुषाधम:।
पदे पदे तदशुभं करोति पार्वती सती।।
नारदपुराण कहता है कि स्त्री को मारना, उसकी निंदा, उसके साथ छल अथवा उसे गाली आदि देना- ये कर्म भगवती काली के भक्तों को अपने कल्याण हेतु कभी नहीं करना चाहिए।
स्त्रीणां प्रहारं निन्दां च कौटिल्यं वाप्रियं वच:।
आत्मनो हितमन्विच्छन् कालीभक्तो विवर्जयेत्।।
देवीभागवत भी कहता है कि स्त्रियों के अपमान से प्रकृति देवी का ही अपमान समझना चाहिए। उत्तम, मध्यम और अधम सभी स्त्रियां प्रकृति का ही अंश हैं।
योषितामवमानेन प्रकृतेश्च पराभव:।।
सर्वा: प्रकृतिसम्भूता उत्तमाधममध्यमा:।।
जो दुराचारिणी स्त्रियां हैं वे भी प्रकृति का ही अंश हैं। अतः उनसे भी दुर्व्यवहार न करें। उनका जीवन है वे जानें। कर्मविपाक सारा निर्णय करेगा ही। परंतु अपने चरित्र के रक्षक आप हैं।
पृथिव्यां कुलटा याश्च स्वर्गे चाप्सरसां गणा:।
प्रकृतेस्तमसश्चांशा: पुंश्चल्य: परिकीर्तिता:।।
बृहद्धर्मपुराण में देवी कहती हैं कि सभी स्त्रियों में मेरा निवास है। उनमें भी कुमारी और युवती में विशेषकर।
सर्वासु खलु नारीषु ममाधिष्ठानमुत्तमम्।
कुमारीषु च सर्वासु युवतीषु विशेषतः।।
स्त्रियों को कड़वे वचन अथवा पीड़ा शाक्त, वैष्णव और शैवों को (विशेषतः आस्तिकों को संबोधित किया गया है।) नहीं देना चाहिए। यहां तक कि स्त्री को फूल से भी न मारे।
कटुवाक्यं तथा पीडां पुष्पेणापि च योषिति।।
शाक्तो वा वैष्णव: शैवो न कदापि समाचरेत्।।
स्त्रियों को पीड़ा देना मतलब देवताओं को अपने विपरीत करना। जगजननी भवानी सभी स्त्रियों में अधिष्ठित हैं।
स्त्रीषु पीडादिकर्ता हि देवान् वैमुख्यमाचरेत्।
अहं माता हि जगतां सर्वासु स्त्रीष्वधिष्ठिता।।
ब्राह्मण, स्त्री और गाय सर्वथा अवध्य हैं और इनका ताड़न किसी भी स्थिति में नहीं किया जा सकता। इनको तो फूल से भी न मारे। यदि इनको मारा तो समझो अपने इष्ट देव को ही मारा। इन्हें कटु वचन भी न कहें। यदि ये दंड के योग्य भी हों तब भी इनको न दंड दे और न ही किसी को दंड के लिए प्रेरित ही करें। स्त्री, गाय और ब्राह्मण ये तीनों पृथ्वी के मंगल स्वरूप हैं।
ब्राह्मणांश्च स्त्रियो गाश्च पुष्पेणापि न ताडयेत्।
यदि चैतांस्ताडयेत तदिष्टदेवताडनम्।।
न प्रेषयेन्नातिचरेद्दण्ड्या अपि न दण्डयेत्।
स्त्रियो गावो ब्राह्मणाश्च पृथिव्यां मङ्गलत्रयम्।।
स्त्री के समस्त अंगों को तीर्थ रूप कहा गया है।
स्त्रीणां सर्वाणि चाङ्गानि तीर्थान्युक्तानि सूरिभि:।।
महर्षि याज्ञवल्क्य आज्ञा करते हैं कि पति, भाई, पिता, बांधव, सास, ससुर, देवर आदि सब के द्वारा स्त्री को सम्मान मिलना चाहिए।
भर्तृभ्रातृपितृज्ञातिश्वश्रुश्वशुरदेवरै:।
बन्धुभिश्च स्त्रिय: पूज्या:।।
हमारे जीवन में स्त्री के चार रूप घटित होते हैं। माता, बहिन, पत्नी और पुत्री। इसमें माता का तो अपरिमित वैभववाला कहा गया है। माता तो गुरुओं की भी गुरु है। बहिन के समान कोई सम्माननीय नहीं है। पत्नी के समान कोई मित्र नहीं है और घर की शोभा तो पुत्री से ही है।
वर्णेषु ब्राह्मण: श्रेष्ठो गुरुर्माता गुरुष्वपि।।
नास्ति भगिनीसमा मान्या नास्ति मातृसमो गुरु:।।
नास्ति भार्यासमं मित्रम्।।
गृहेषु तनया भूषा भूषा सम्पत्सु पण्डिता:।।
स्त्री की पवित्रता के संबंध में कहा गया है कि वह सदा पवित्र है। रजस्वला होने के बाद तो वह सर्वथा शुद्ध ही है। ऐसा अत्रि संहिता का वचन है।
ऋतुकाले उपासीत पुष्पकालेन शुध्यति।।
शिवपुराण में शिवाशिवविभूति- वर्णन में कहा गया है कि जितनी भी स्त्री जातियां हैं, उन सबको भगवती पार्वती ही धारण करती हैं।
स्त्रीलिङ्गं चाखिलं धत्ते देवी देवमनोरमा।।
इसीलिए सप्तशती में स्तुति भी आई कि माता! आप सभी विद्याओं का रूप-भेद हैं। सभी स्त्रियां भी आपका ही भेद-विस्तार हैं।
विद्या: समस्तास्तव देवि भेदा:
स्त्रिय: समस्ता: सकला जगत्सु।।
अतः स्त्री का अद्भुत माहात्म्य होने से वह सदा सम्मान योग्य है। वह किसी भी स्थिति में पीड़ित या वध योग्य नहीं है। तिर्यक योनि में भी स्त्री जाति के पशु-पक्षी अवध्य हैं। ये नियम बलिकर्म पर भी संचालित होता है। बात प्रायः ताटका आदि के वध की होती है तब रामायण में महर्षि विश्वामित्र कहते हैं कि, 'राम! राजा को चारों वर्णों की रक्षा के लिए दोषयुक्त कर्म भी करना पड़े तो करना चाहिए। इस दुष्टा ने बहुत से स्त्री, पुरुष आदि का वध किया है। अतः इसे मारो।
नृशंसमनृशंसं वा प्रजारक्षणकारणात्।
पातकं वा सदोषं वा कर्त्तव्यं रक्षता सदा।।
इसलिए भगवान राम ने दोष जानते हुए भी ताड़का को मारा। ऐसा ही पूतना के लिए भी समझना चाहिए। अन्यत्र स्त्री सदा अवध्या है। दोषरहिता है। शुद्ध है और सदा सम्माननीया है।
।। जगदम्बामयं पश्य स्त्रीमात्रमविशेषतः ।।
* श्री दुर्गायै नमः *