🔥 स्रुवा धारण व प्रकार 🔥
" मूले हानिकरं प्रोक्तं मध्ये शोककरं तथा ।
अग्रे व्याधिकरं प्रोक्तं स्रुवं धारयते कथम् ।।
कनिष्ठाङ्गुलिमाने चतुर्विशतिकाङ्गुलम् ।
चतुरङ्गुलं परित्यज्य अग्रे चैव द्विरष्टकम् ।। "
( मत्स्यपुराण )
स्रुवा यदि मूल में पकडा जाय तो हानिकारक होता है - मध्य में पकडा जाय तो शोककारक होता है और यदि अग्रभाग में पकडा जाय तो व्याधिकारक होता है ऐसी अवस्था में स्रुवा को कैसे पकडना चाहिए ?
कनिष्ठाका ऊंगली के मान से ( नाप से ) चौबीस अंगुल का स्रुवा होता है -- उसके आगे के चार अंगुल और पीछे मूल की ओर सोलह अंगुल छोड़कर चार अंगुल का जो उसका मध्य भाग शेष रहता है उसे ' शंखमुद्रा ' में पकडें--
स्रुवा के मूल के दर्शन से यजमान की हानि होती है - इस लिए होम काल में स्रुव के मूल को भलीभाँति छिपाये रखे ---
" अग्रे धृतोऽर्थोनाशः स्यान्मध्ये चैव मृतप्रजा ।
मूले च म्रियते होता स्रुवस्तु कुत्र धार्यते ।।
अग्रमध्याच्च यन्मध्यं मूलमध्याच्च मध्यतः ।
स्रुवं धारयते विद्वान् ज्ञातव्यं च सदा बुधैः ।।
तर्जनीं च बहिः कृत्वा कनिष्ठां च बहिस्ततः ।
मध्यमाऽनामिकाऽङ्गुष्ठैः स्रुवं धारयते द्विजः।। "
( संस्कार भास्कर )
होमादि कर्म में यदि स्रुवा अगले भाग में पकडा जाय तो धन का नाश होता है - यदि बीच में पकडा जाय तो मृत संतान होती है और यदि पिछले भाग में पकडा जाय तो होता की मृत्यु होती है -- ऐसी अवस्था में स्रुवा का धारण कहाँ पर किया जाय ?
अगले भाग का जो मध्य तथा मूल ( पिछले ) भाग का जो मध्य है उससे स्रुवा को विद्वान पुरूष धारण करते हैं --
तर्जनी ऊंगली को तथा कनिष्ठिका ऊंगली को बाहर कर मध्यमा - अनामिका और अंगुष्ठ से ब्राह्मण स्रुवा को धारण करते हैं ।
🚩 स्रुव में रहने वाले देवता 🚩
" स्रुवोऽन्तश्चतुर्विंशः स्यात् षड्देवास्तत्र संस्थिताः ।
अग्निरूद्रौ यमश्चैव विष्णुः शक्रः प्रजापति ।।
मूले चतुरङ्गुलेऽग्निर्द्वितीये रूद्वदैवतम् ।
तृतीये यमनो देवश्चतुर्थे विष्णुदेवता ।।
पञ्चमे शक्रदेवः स्यात्षष्ठे चैव प्रजापतिः ।
यममग्निं परित्यज्य शक्रं रूद्रं प्रजापतिम् ।।
विष्णुस्थेन च हूयते एवं कर्म शुभप्रदम् ।। "
स्रुव के भीतर चौबीस अंगुल में अग्नि - रूद्र - यम - विष्णु - इन्द्र - ब्रह्मा - ये छः देवता निवास करते हैं -- स्रुव के मूल में चार अंगुल पर अग्नि - द्वितीय भाग के चार अंगुल पर रूद्र - तृतीय भाग के चार अंगुल पर यम - चतुर्थ भाग के चार अंगुल पर विष्णु - पञ्चम भाग के चार अंगुल पर इन्द्र और षष्ठ भाग के चार अंगुल पर प्रजापति रहते हैं -- यम - अग्नि - इन्द्र - रूद्र और प्रजापति के स्थान को छोड़कर विष्णु के स्थान को पकड़कर हवन करने से कर्म शुभप्रद होता है ।
" अग्निस्थाने न्यसेत्तापं चन्द्रेण क्लेशमेव च ।
सूर्येण पशुनाशस्तु रूद्रं रौद्रं भयं भवेत् ।।
प्रजास्थाने प्रजावृद्धिर्यमे मृत्युः प्रकीर्तितः।। "
स्रुवा के अग्नि स्थान को पकडने से ताप - चन्द्र के स्थान को पकडने से क्लेश - सूर्य के स्थान को पकडने से पशुओं का नाश - शिव के स्थान को पकडने से भयंकर भय - ब्रह्मा के स्थान को पकडने से संतति की वृद्धि और यम के स्थान से पकडने से मृत्यु होती है ---
( प्रकार भेद से अग्नि - चन्द्रमा - सूर्य - रूद्र - ब्रह्मा - और यम - ये छः देवता स्रुव में चार - चार अंगुल की दूरी में सर्वदा निवास करते हैं ।
स्रुव सोने - चांदी - तांबे अथवा खैर का होता है -- सोने का स्रुव ऐश्वर्यसिद्धि के लिए -- चांदी का कीर्ति बढाने के लिए - तांबे का स्रुव शांतिकारी और खैर का धनवर्धक कहा गया है।
यदि हवनीय द्रव्य तरल पदार्थ न हो तो हाथ से ही हवन होता है -- ऐसी जगह स्रुवा से हवन नहीं होता ।
🚩 हर हर महादेव 🚩