भोगने की प्रक्रिया जितनी जटिल है, भोग आत्मसात करके एक दृष्टि के रूप में विकसित कर पाना उससे भी दुरूह। वर्णसंकरता और सहकारिता के विराट दर्शन में अकूत विश्वास के बावजूद कविता है तो शर्मीली-सी, कमसुखन विधा। ऊपर से आदमी भी एक क्लिष्ट जीव है-भोगे और कहे हुए, कहे और समझे हुए के बीच कई विचलनें घटित होती हैं। कविता की सतह पर तैरता, खेलता, नृत्य करता अर्थ उसका आभासी अर्थ हो सकता है, उसका प्रतीयमान अर्थ, पर असल अर्थ छुपा होता है शब्दों की फाँक में फैले दहराकाश में, जहाँ अन्तर्ध्वनियाँ सोयी होती हैं-ठीक वैसे ही जैसे सातों सुरों के बीच के अन्तराल में सोयी हज़ारों श्रुतियाँ! शुरुआत प्रकृति, भाषा और सम्बन्धों का अवचेतन टटोलती रचनाओं से की थी, फिर स्त्री जीवन की विडम्बनाएँ टटोलती हुई महाभारत की स्त्रियों और थेरीगाथा की थेरियों तक पहुँची, इसी उम्मीद में कि एक अलाव-सा सुलग जाये आगत और विगत के बीच! इतिहास अपनी लालटेन ऊँची करे तो आगे का कछ रास्ता सूझे।
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