🌷🌹"लेखनी की गरिमा"🌹🌷
कोई भी कवि या लेखक कभी, बस यूंही तो नहीं बन जाता।
झेल सामाजिक दुश्वारियां महसूस कर आत्मसात करता जाता।
जब पीड़ा हद से बेहद हो जाती, सहनशीलता का घड़ा फूट जाता।
न किसी की हमदर्दी सहानुभूति मिलती, खुद टूटके बिखर जाता।
न कोई आसरा आधार हिमायती, जो गर्त में डूबने से बचा पाता।
तब..इक क़लम बनती है सहारा, जैसे डूबता हुआ तिनका पाता।
बस.. शुरू हो जाती है उदगारों से उफनती शैलाब रूपी सरिता।
और.. बहते चले जाते हैं भाव, लिखते जाते हैं लेख व कविता।
उकरता है जीवन समाज का हर पहलू, सियासी उठापटक को।
सृष्टि चित्रण विषय उन्माद को, करुण चीत्कारों की झलक को।
या इन सभी उदगारों से अलग, ले जाता है शुद्ध आध्यात्म की ओर।
जिसे पढ़कर पाता है रूहानियत परमशांति, होता है आत्मविभोर।
तो... फिर क्यों भला कोई पाठक, उन वेदना भरे गहरे भावों में बहे।
क्यों अपनी मस्त लीक को विराम दे, क्यों बेतुकी सी संवेदनाएं सहे।
यही कारण है जो कोई भी शख्स, नहीं बन पाता है उनका ग्राहक।
आपकी पीड़ा की बहती सरिता को, समझता है फ़ालतू व नाहक।
गर कोई इन्हें पढ़ने की ज़हमत, भूल या उत्सुकता से उठाता है।
या तो वो इनकी खिल्ली उड़ाता है, या फिर गहराई में डूब जाता है।
दिल की गहराई से उकेरे उदगार, कभी भी जाया नहीं जाते हैं।
कोई पढ़े-सुने या न पढ़े-सुने, पर ये निरंतर लिखते ही जाते हैं।
कभी भी कोई प्रयास ज़ाया नहीं जाता, अतएव रखना है सदा इसे जारी।
तुरंत नहीं देरी से ही सही, कोई न कोई पढ़के इन्हें होगा अवश्य आभारी।
🌺सार्थक प्रयास ही साहित्यिक श्रृंगार🌺
🙏पढ़ने के लिए हार्दिक आभार🙏