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राब्ता-ए-फ़क़्र: सज़दा

14 अक्टूबर 2021

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🌷🌹"राब्ता-ए-फ़क़्र: सज़दा"🌹🌷

अक्सर ही इस संसार में हम तरह-तरह के रिश्तों को बखूबी निभाते रहते हैं। यूँ तो सारे ही रिश्ते अनुपम है और सबकी अपनी अहमियत है। माता-पिता रिश्ते की सबसे पहली कड़ी है जो न करें श्वासन्त तक बल्कि देहावसान के बाद भी यह रिश्ता हमेशा ही कायम रहता है। इस महत्वपूर्ण रिश्ते के अलावा और भी कई रिश्ते हैं जो इस जीवन में अहम भूमिका निभाते हैं और जीवन में सुगमता भर देते हैं लेकिन इन सभी रिश्तों में पूर्ण सत्गुरू का रिश्ता सर्वोपरि है जो न केवल इस जीवन की रूपरेखा ही बदल देता है अपितु ब्रह्मज्ञान प्रदान करके रमे हुए राम इस निरंकार को अंगसंग दर्शन तत्व रूप में करवा देता है, अतः यह कहना अतिश्योक्ति न होगी कि गुरू ही माता, पिता, बंधु, सखा आदि केवल सत्गुरू ही होता है और सत्गुरू ही निरंकार का साकार रूप होता है:
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुः साक्षात्‌ परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः॥
गुरु है सब कुछ जगत में, गुरु से सब कुछ होय।
गुरुबिन और जो जानहीं, भक्ति न पावै सोय॥
सत्गुरू दिव्यगुणों एवं शक्ति या ऊर्जा का अकूत भंडार है और इसके साथ हम किसी रिश्ते में महसूसियत कर सकते हैं:
ममतामयी माँ का दिव्य-स्नेह, शीतलता आँचल की छांव में।
जन्नत से भी बेहतरीन लुत्फ है, केवल माँ के पावन पांव में।
माँ के तुल्य इलाहियत रिश्ता, और कोई भी नहीं है 'मोहन'।
माँ तो बस माँ ही होती है, चाहें शहर में हो या गांव में।
प्राय: देखा गया है कि सांसारिक रिश्तों के अलावा इंसान ईश्वरीय कृपा पाने एवं सम्बंध स्थापित करना चाहते हैं और इसके लिए कठिन साधना करते देखे-सुने जा सकते हैं।  अन्न त्याग यानी व्रत करते हैं, रोज़ा रमज़ान रखते हैं, गुफाओं में जप-तप करते हैं, निमानेपन से सज़दे में रहते हैं तो कई लाखों-लाख मंत्र जाप करते रहे हैं। "पर संत-महात्मा, ऋषि-मुनि एवं आध्यात्मिक शास्त्र बतलाते हैं कि सारी ही इबादतों से बढ़कर सबसे श्रेष्ठ अध्यात्म है दूसरों के मन को कभी भी ठेस न पहुंचाना, दूसरों का विश्वास न तोड़ना।ऐसे ही पूर्ण विश्वास के साथ सत्गुरू एवं निरंकार से स्थापित ऐसा ही सम्बंध सज़दा-ए-फ़क़र होता है।"
सच्चा सम्बंध तो तभी स्थापित हो सकता है जबकि पूर्ण सत्गुरू से नाम पदार्थ प्राप्त किया जा सके:
अमृत नाम महा रस मीठा। मधुर हुआ कड़ुवा सा रीठा।
रंग दुनिया के फीके 'मोहन'। नाम है सांचा रंग मजीठा।
गुरमत में तो कभी भी पद, कद एवं प्रतिष्ठा जैसी खामियां आड़े नहीं आती हैं। जबकि समाज में तो आपसी सम्बंध में पद और कद का बड़ा महत्व है, बल्कि हासिल करने की होड़ सी मची हुई है। किसी को कोई बड़ा पद मिलते ही लोग-बाग उस व्यक्ति की ऐसे महिमामंडित करने लगते हैं कि जैसे वे कोई साधारण मानव नहीं, बल्कि अवतारी शक्ति हों। चारों तरफ जय-जयकार होने पर व्यक्ति का पद उसके कद पर हावी हो जाता है जिसके कारण उसका कद बिल्कुल ही संकुचित सा हो जाता है, यही सबसे बड़ा अहम है जो सारे ही सम्बंधों को तिलांजलि देने के लिए पर्याप्त है। तो इस प्रकार कहां का कद, पद या प्रतिष्ठा और कहाँ की सज़दा-ए-हलीमी।
अनंत दोष मुझमें भरे, हूँ विकारों का मैं भंडार।
जैसा हूँ सत्गुरू तेरा हूँ, रहे तुझपे सदा ऐतवार।
याद मुझे औकात 'मोहन', और तेरी सौगात भी।
हर श्वास में तेरा वास रहे, सदा रहूँ शुकरगुज़ार।
सम्बंध भी स्थापित तभी हो पाते हैं जबकि पूरी पाकीज़गी एवं जिम्मेदारी पूर्वक निर्वहन हों।  दरअसल, हम ग्रंथों में पढ़ते भी आए हैं कि सत्गुरू या निरंकार को माता-पिता कहा गया है, वाक़ई यही एक सच्चा-सुच्चा रिश्ता है सम्बंध है जहाँ बिल्कुल ही निर्द्वन्द, निर्विकार एवं निश्चिंत रह सकते हैं:
त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बन्धुस्य सखा त्वमेव।
त्वमेक विद्या द्रविद्म त्वमेव, त्वमेव सर्वम मम देवौ देव।।
पदवी के अहंकार की उपज से छोटा हुआ कद ही उसकी मानवीय संवेदनाएं को नष्ट करने के लिए काफी है। ऐसा व्यक्ति धीरे-धीरे लोकप्रियता में इतना आत्ममुग्ध हो जाता है कि वह चाहने लगता है कि उसके माता-पिता, गुरु एवं सगे-सम्बंधी सब उसे देखकर सम्मान स्वरूप उठ खड़े हों, बस यही सबसे खतरनाक मानवीय ह्रास है सारभौमिक रूप से पतन एवं विनाश सुनिश्चित है।
आईना बनूं मैं खुद ही अपना, सदा खुद को ही निहारा करूँ।
जो खामियां नज़र आएं कोई, मैं उन्हें फ़ौरन ही संवारा करूँ।
आईना औरों को दिखाना, 'मोहन' ये अक्लमंदी कतई नहीं।
मेरी खामियां संवरें खूबियों में, ऐसे आईने पे नित बारा करूँ।
इसी दुर्गुण के चलते द्वापर युग के महाभारत काल में बलशाली कंस एवं दुर्योधन सहित सभी कौरव तथा त्रेतायुग के श्रीरामजी के समय पंडित एवं शास्त्रों का विद्वान रावण का सर्वविनाश गया था, उनका संपूर्ण पतन हुआ और साम्राज्य बिखर गया जिसके कारण सम्बंध स्थापित होने की बज़ाय विस्थापित होते चले गए।
मन रावण का कपटी था, और ऊपर चोला साधु का...
यह राम उसी पे रीझेंगे जो, तन मन से इकसार बने...
मान बढ़ाई ओहदे पाके, दुर्योधन को क्या है मिला...
सीधा-सादा भक्त हमेशा, रहमत का हक़दार बने...
ज्ञान कर्म में ढल जाए तो, जीवन का श्रृंगार बने...
हे सत्गुरू आदेश तुम्हारा, अब  मेरा किरदार बने...
बड़ा पद एवं कद मिलने पर अगर व्यक्ति में विनम्रता, सहनशीलता, विशालता एवं सज्जनता नहीं आई तो एक न एक दिन उच्च से उच्च पदस्थ व्यक्ति भी बुरी हालत में पहुंच जाता है। अतः पद, कद या भौतिक पदार्थों की प्रचुरता से कोई भी शान-ओ-शौकत और प्रभुत्व दिखाता है तो वह महामूर्ख है। "कद और पद में व्याप्त अहंकार एक ऐसा प्रलयंकारी मीठा ज़हर है जिसका अहसास भी नहीं होता है और निश्चित ही महाविनाश की ओर ढकेल देता है।" हर ऐसे व्यक्ति को चाहिए कि वह बड़प्पन प्राप्त करने के उपरांत विनम्र बने। यही हमारे लिए, समाज के लिए, विश्व के लिए और संस्था  के लिए हितकारी रहेगा। लेकिन ऐसा स्वतः ही हो पाना बिल्कुल ही असंभव है, जब तक पूर्ण सत्गुरू द्वारा प्रदत्त ब्रह्मज्ञान रूपी कृपा का पात्र नहीं बनते हैं तब तक पद एवं कद की उपज द्वारा अनेकों विकार के उदय का अहसास नहीं हो पाता है और न ही समर्पण वाली भावना विकसित हो पाती है। जब तक बंदे में विकार ही विकार भरे हों तब तक मानवीय विकास ही असंभव है। अतः आपसी सामंजस्य बिठाने की श्रेष्ठ कड़ी है कि आपस में निःस्वार्थ प्रेम, सम्मान और मिलवर्तन अवश्य ही हो:
खूब लुटाइए खूब लूटिए, प्रेम की धारा बहाइए।
ये वक़्त है मुस्कराने का, जी भर के मुस्कराइए।
महकिए महकाईए, ये पल ठहर जाएं 'मोहन'।
खुशियां दो जहां की मिलें, प्रेम में लुट जाइए।
ब्रह्मज्ञान को आत्मसात करने के बाद आत्मबोध हो जाता है। आत्मबोध विकसित होने के बाद ही विकारों का क्षरण प्रारंभ होता है और मानवीय सद्गुणों का इज़ाफ़ा भी आपसी तालमेल को बुलंदी प्रदान करता है।
मन के भावों से ही समझते हैं कि, फलां इंसान कैसा है?
भाव जिसके भी होते सच्चे-सुच्चे, वो ही देवता जैसा है।
नकारात्मक भावों वाले 'मोहन', कभी ना अच्छे होते हैं।
नित बहें सच्चे भावों में हम, निर्मल मन ही होता ऐसा है।
हर एक इंसान की पहचान उसके व्यवहार, संस्कार, आचरण एवं किरदार से ही होती है और इंसानियत वाले रिश्तों की क़दर भी होने की शिक्षा प्राप्त होने लगती है:
सर्व तीर्थमयी माता, सर्वदेवमय पिता...!
मातरम-पितरम तस्मात, सर्वयत्नेन पूज्येत..!!
सबसे संतोषजनक रिश्ता उन लोगों के बीच का रिश्ता है, जिन्होंने अपनी एकजुटता में जगह आवंटित की है। अलगाव की भिन्नता एक अनिवार्य प्रक्रिया है जो लोगों को एक-दूसरे द्वारा उपभोग किए बिना जुड़े रहने में मदद करती है।
ऐ मेरे मौला! तू सबको ऐसी अपनी प्रीत देना।
जीवन में कोई कमी न हो वो ऐसी रीत देना।
न गम हो सभी भरपूर हों 'मोहन' ऐसे मीत देना।
होती रहे तेरी महिमा लवों पे ऐसे गीत देना।
प्यार सिर्फ लोगों को बांधना नहीं होता है;  इसमें व्यक्तियों का सम्मान करना और उनकी सबसे बड़ी इच्छा को व्यक्तियों के रूप में प्राप्त करने के लिए दूसरों की सहायता करना शामिल है।
तू लाजवाब है तो सब कुछ ही लाजवाब है।
सभी को मेहर अपनी तू देता बेहिसाब है।
मांगने में खुद ही तो चूक होती है 'मोहन'।
सबकी पत रखने वाला तू गरीबनवाज़ है।
यहां तक ​​कि एक बहुत करीबी रिश्ते में, पारस्परिकता और व्यक्तिगत विकास के लिए दिल में समुचित स्थान होना चाहिए।  रिश्ते को जीवित रखने के लिए काफी क़ुर्बानियों की आवश्यकता होती है, जिसके लिए खुद के दिल में पर्याप्त स्थान के साथ नम्रता, सहनशीलता, प्रेम एवं विशालता की जरूरत होती है।
खुद को यहां समझता हूँ मैं, बेहद ही खुशनसीब।
गर तू न मिलता तो मुझे, चढ़ा दिया होता सलीब।
मेहरबां इक तू है 'मोहन', वरना क्या औकात मेरी थी।
तेरी सौगात है सब कुछ ही, तुझसे ही है मेरा नसीब।
हर एक रिश्ते में एक ऐसा स्थान अवश्य ही होना चाहिए जहां लोग दूसरों की मदद करने के अनुभव को साझा करते हैं। ज़ज़्बा ऐसा हो कि हरएक बशर ही अपने परिवार का अंग महसूस हो।  कोशिश रहे कि किसी रिश्ते को कभी भी जेल या जाल नहीं बनाना चाहिए। आपस में ऐसा करने से सदैव ही परहेज़ करें।
तेरी सादगी में हमें सदा रब नज़र आता है।
मासूम इलाही भाव तेरा खूबसूरत भाता है।
सत्गुरू के बेहद प्यार गुरसिख तुम 'मोहन'।
बिलकुल वैसी हो जैसा सत्गुरू चाहता है।
अक्सर ही देखा गया है कि मां-बाप या दादी-दादाजी, जोकि बढ़ापे की दहलीज़ पर खड़े हैं उनके साथ ज़्यादती एवं अमानवीय कृत्य होते हैं। यह बेहद दुखदाई लगता है। व्यक्तित्व पर अच्छाई एवं मृदुलता का मुखौटा लगाए घूमते हैं और फिर भी सामने वाले से यही उम्मीद रखते हैं कि उनको ही यथोचित स्थान मिले:
लफ़्ज़ों में ही पिरो लेते हैं, 'मोहन' एहसास के मोती...
हमें इजहार-ए-तमन्ना का, कभी सलीका नहीं आता...
कोई भी व्यक्ति, चाहे कितना ही प्यारा क्यों न हो, अगर कोई व्यक्तिगत स्थाई स्थान नहीं है और जब कोई अंतरिक्ष पाने की इच्छा रखता है, तो वह संघर्ष का एक चिड़चिड़ा स्रोत बन सकता है।  कोई भी रिश्ता पराकाष्ठा के अतिरेक से नहीं बच सकता।

यह हुनर-ओ-इल्म भी, खुद पे मैं आजमाऊँ।
जंग गर अपनों से है तो, मैं खुद ही हार जाऊँ।


किसी रिश्ते में प्यार का इजहार करने का इससे बड़ा तरीका और कोई नहीं हो सकता है कि वह हर व्यक्ति को खुद ही खुले दिल से अपनत्व रखे और अपनाए। जब रिश्ता स्वतंत्र और स्वीकार करने वाला हो, तो दोनों पक्षों को थोड़ा डर होता है। सबसे बड़ी विडंबना तो यह है कि गर्भावस्था के दौरान गर्भ लिंग परीक्षण कराकर, गर्भ में भ्रूण कन्या होने पर, गर्भपात कराकर मौत के घाट उतार दिया जाता है। इस कारण रिश्तों की समरसता विलीन होती जा रही है। अक्सर ही बेटी के जन्मने पर सभी परिजन बहुत ही नाखुश होते हैं। बेटा एवं बेटी में अंतर रखना व्यक्तिगत सोंच का दिवालियापन है:
बेटी के जन्म लेने पर जो बन्दे नाखुश होते हैं।
अपने हाथों ही अपनी किस्मत को वे खोते हैं।
बेटी जननीरूप है 'मोहन' जिससे जन्म लिया।
बेटी दिव्य स्वरूपा है जिनसे मकां घर होते हैं।
यही कारण है कि बेटा और बेटी में व्यक्तिगत तौर पर प्यार में समानता देखने को नहीं मिलती है। बेटी को स्वाभिमान समझा जाता है जबकि बेटी को सभी सदैव ही हेय दृष्टि से देखते हैं। व्यक्ति की निर्भरता प्यार की तरह दिखाई दे सकती है, लेकिन ऐसा नहीं है। यह रिश्ते में व्यक्ति के विकास को विफल करता है। यह देने के बजाय प्राप्त करना चाहता है। यह रिश्ते में दूसरे को आजाद करने के बजाय फंसाने का काम करता है। अतः सभी मे ईश्वरत्व महसूस करना ही श्रेयस्कर है:

कोई रूह का तलबगार हो 'मोहन', तो उलफ़त तो हो ही जाती है।
दिल तो मिलते हैं बहुतेरे ही, पर दिल से कोई बिरला ही मिलता है।


किसी दार्शनिक ने बहुत ही सुंदर फ़रमाया है- "यह जानने के लिए कि कब दूर जाना है और कब करीब आना है, ऐसी सोंच ही तो स्थायी संबंधों की कुंजी हुआ करती है।" अतः सभी के साथ अगर प्रेम से रहेंगे तो निरंकार सदैव ही खुश रहेगा और भक्त के प्रेम में बंधा ईश्वर भी वही करने पर मजबूर हो जाता है जैसा कि भक्त चाहता है, अपने बनाए उसूलों को निरंकार भी तोड़ देता है, ताकि भक्त एवं भगवान के बीच अलौकिक रिश्ता सदैव ही क़ायम-दायम रह सके:
प्रबल प्रेम के पाले पड़के, प्रभु को नियम बदलते देखा...
अपना मान भले टल जाए, भक्त का मान न टलते देखा...
रिश्ते की एकजुटता, सम्बंध एवं प्यार चराचर जगत भी स्वीकार कर रहा है। सम्बंधों को निभाना एक खूबी है जबकि खामियों की वजह से ख़ामियाज़ा भी भुगतना पड़ता है:
खूबियां भी खामियां भी यूं तो हैं हर शख्स में।
लोग इस मज़मून में कुछ फेल हैं कुछ पास हैं।
'शौक' से उंस इंसान के आगे झुकाता हूं मैं सिर्फ।

खूबियां जिसमें इक्यावन खामियां उनञ्चास हैं।


अच्छे सम्बन्धों के लिए यह परमावश्यक है कि भूल-चूक होने पर माफ़ी अवश्य ही मांग लेना चाहिये, माफ़ी मांगने वाला व्यक्ति कभी छोटा या नहीं हो जाता है:
If you forgive other people when they sin against you, your heavenly Father will also forgive you. But...If you do not forgive others their sins, your heavenly Father will not forgive your sins.
क्षमा बढ़न को चाहिए, छोटन को उत्पात।
कहा रहीम हरि को घट्यो, जो भृगु मारि लात।
वैसे भी यदि सम्बंध मृदुल, सार्थक और सकारात्मक रखना है तो तो दिव्यगुण बहुत ही जरूरी भूमिका निभाते हैं और इन दिव्य गुणों में क्षमादान सर्वश्रेष्ठ होता है:
क्षमाशील और सहनशील तो, इक गुरसिख ही बन पाता है।
प्रेम का सिंधु हिलोरें लेता, वो सुख ही सुख बरसाता है।
है दिव्य गुणों की बात निराली, अमल में जो ये लाता 'मोहन'।
वो रब में रब उसमें हरपल ही, इकरस इकमिक हो जाता है।
रिश्तों में एकरूपता केवल तभी आ सकती है जब ह्रदय में यह बात बैठ जाए कि निरंकार सभी सांझा पिता है, इस कारण हम सारे ही आपस में भाई बहिन हैं फिर तक़रार या कटुता के लिए ज़गह ही कहाँ शेष बचती है:
सहनशील बन गया जो बन्दा, दुःख न उसके पास रहे।
कहे 'हरदेव' ये बात है पक्की, सुख में उसका वास रहे।
सत्गुरू दातार मुझे ऐसी सुमति प्रदान करे कि मैं इन दिव्य गुणों का सदा ही ग्राहक बनकर अमल में लाता रहूं और गुरमत की महक चहुं ओर फैलती चली जाए। मुझमें हजार कमियां हैं खामियां हैं, हे निरंकार प्रभु! हे त्रिकालदर्शी पूर्ण सत्गुरू! तुम समरथ हो, तुम जैसा चाहों कर सकते हो, तुम्हारे सहारे हूँ, निर्बल हूँ, दिव्यता भरकर सबलता एवं सहजता प्रदान करो ताकि सहनशील एवं क्षमाशील धारकर सज़दा-ए-फ़ख्र कर सकूं और हरपल ही हर श्वास ही तेरे शुकराने में गुजरे एवं तेरी नूरानी अलौकिकता सदैव ही महसूस करुं। अतः इस जीवन की सुंदरता और मिठास तो राब्ता-ए-फ़क़्र में सज़दा करने की है:
फ़क़्र करूँ अपने माता-पिता पर, जिन्होंने मुझको दाया है।
फ़क़्र है मित्रों व अपनों पर, जो जीवन सुलभ बनाया है।
फ़क़्र है सत्गुरू साईं पे 'मोहन', जो अंगसंग रब दिखाया है।
सत्गुरू-शिष्य का सज़दा असल में, राब्ता-ए-फ़क़्र कहाया है।

🌺शुकर दातयां..... तेरा🌺
🙏धन निरंकार जी🙏

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रचनाएँ
गरिमा लेखनी की
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इस पुस्तक में आध्यात्म या समाज का चित्रण प्रस्तुत किया गया है।
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लेखनी की गरिमा

11 अक्टूबर 2021
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<p dir="ltr">🌷🌹<u><b>"लेखनी की गरिमा"</b></u>🌹🌷</p> <p dir="ltr"><i><b>कोई भी कवि या लेखक कभी, ब

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राब्ता-ए-फ़क़्र: सज़दा

14 अक्टूबर 2021
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<p dir="ltr">🌷🌹<b><u><i>"राब्ता-ए-फ़क़्र: सज़दा"</i></u></b>🌹🌷</p> <p dir="ltr">अक्सर ही इस संसार म

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परछाईं न साथ देती है...

15 अक्टूबर 2021
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<div align="left"><p dir="ltr">🌷🌹<b><u>"परछाईं न साथ है देती"</u></b>🌹🌷</p> <p dir="ltr"><b><i>क

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महत्ता बिंदी की

20 अक्टूबर 2021
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<p dir="ltr">🌷🌹<u><b>"महत्ता बिंदी की"</b></u>🌹🌷</p> <p dir="ltr"><i><b>बिंदी न केवल इक श्रंगार

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चिराग-ए-उजास

31 अक्टूबर 2021
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<p dir="ltr">🌷🌹<u><b>"चिराग-ए-उजास"</b></u>🌹🌷</p> <p dir="ltr"><i><b>चिराग-ए-रोशन जहाँ भी हो, चह

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🌷🌹"विकार, दिव्यता और भक्ति"🌹🌷

6 नवम्बर 2021
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<p dir="ltr">🌷🌹<u><b>"विकार, दिव्यता एवं भक्ति"</b></u>🌹🌷</p> <p dir="ltr"><i><b>अमृत नाम महा रस

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🌷🌹"मनमौज़ी"🌹🌷

10 नवम्बर 2021
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<div align="left"><p dir="ltr">🌷🌹<b><u>"मनमौज़ी"</u></b>🌹🌷</p><p dir="ltr"><b><i>रूप मनमौज़ी ध्यान

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🌷🌹"निल बटे सन्नाटा/सिफ़र"🌹🌷

11 नवम्बर 2021
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<p dir="ltr">🌷🌹<i><b>"निल बटे सिफ़र/सन्नाटा"</b></i>🌹🌷</p> <p dir="ltr"><i><b>निल बटे सन्नाटा कह

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🌷🌹"आक्रोश करें या न करें"🌹🌷

13 नवम्बर 2021
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<p dir="ltr">🌷🌹<u><b>"आक्रोश करें या न करें"</b></u>🌹🌷</p> <p dir="ltr"><i><b>आक्रोश गैरों पे क्

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🌷🌹"आक्रोश कब, कैसे और समाधान"🌹🌷

13 नवम्बर 2021
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<p dir="ltr">🌷🌹<u><b>"आक्रोश कब, कैसे और समाधान"</b></u>🌹🌷</p> <p dir="ltr"><i><b>औरों के दुष्कर

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🌷🌹"क़माल की जादुई झप्पी"🌹🌷

15 नवम्बर 2021
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<p dir="ltr">🌷🌹<u><b>"क़माल की जादुई झप्पी"</b></u>🌹🌷</p> <p dir="ltr"><i><b>यूं ही हर किसी को तो

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🌷🌹"तन्हा कभी नहीं"🌹🌷

16 नवम्बर 2021
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<p dir="ltr">🌷🌹<u><b>"तन्हा कभी नहीं"</b></u>🌹🌷</p> <p dir="ltr"><i><b>तुम बिन कहाँ तन्हा थी शबर

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🌷🌹"राज़-ए-मुहूर्त"🌹🌷

16 नवम्बर 2021
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<p dir="ltr">*🌷🌹<u><b>"राज़-ए-मुहूर्त"</b></u>🌹🌷*</p> <p dir="ltr"><i><b>राज़-ए-मुहूर्त जो कोई भी

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🌷🌹"अंधेरा फ़क्त उजास की क्षीणता"🌹🌷

17 नवम्बर 2021
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<p dir="ltr">🌷🌹<u><b>"अंधेरा फ़क्त उजास की क्षीणता"</b></u>🌹🌷</p> <p dir="ltr"><b>अंधेरे का तो अप

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🌷🌹"पिएं.. रामरस"🌹🌷

18 नवम्बर 2021
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<p dir="ltr">🌷🌹<u><b>"पिएं.. रामरस"</b></u>🌹🌷</p> <p dir="ltr"><i><b>शराब है फ़साद का पानी, पीकर

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🌷🌹"नारी जानो सोये.."🌹🌷

25 नवम्बर 2021
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<p dir="ltr">🌷🌹<u><b>"नारी जानो सोये.."</b></u>🌹🌷</p> <p dir="ltr"><i><b>"यत्र नार्यस्तु पूज्यंत

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🌷🌹"मन बावरा दिव्यरूप तू..."🌹🌷

26 नवम्बर 2021
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<p dir="ltr">🌷🌹<u><b>"मन बावरा दिव्यरूप तू..."</b></u>🌹🌷</p> <p dir="ltr"><i><b>मन नटखट मन बावरा

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🌷🌹"झरोखा"🌹🌷

29 नवम्बर 2021
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<p dir="ltr">🌷🌹<u><b>"झरोखा"</b></u>🌹🌷</p> <p dir="ltr"><i><b>रसोई में झरोखे लगे होते हैं, इस ढं

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🌷🌹"ओस रब्बी वरदान है.."🌹🌷

1 दिसम्बर 2021
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<p dir="ltr">🌷🌹<u><b>"ओस रब्बी वरदान है.."</b></u>🌹🌷</p> <p dir="ltr"><i><b>ओस की बूंदें कहूँ इन

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🌷🌹"अपनी दिव्य पनाहों में.."🌹🌷

12 दिसम्बर 2021
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<p dir="ltr">🌷🌹<u><b>"अपनी दिव्य पनाहों में.."</b></u>🌹🌷</p> <p dir="ltr"><i><b>कहो कौन है अज़नबी

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🌷🌹"इश्क़-हक़ीक़ी पूजा है..."🌹🌷

14 दिसम्बर 2021
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<p dir="ltr">🌷🌹<u><b>"इश्क़-हक़ीक़ी पूजा है..."</b></u>🌹🌷</p> <p dir="ltr"><i><b>पहला सबक है, क़िताब

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🌷🌹"श्रद्धा भक्ति विश्वास रहे, मन में आनंद का वास रहे"🌹🌷

16 दिसम्बर 2021
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<p dir="ltr">*🌷🌹<u><b>"श्रद्धा भक्ति विश्वास रहे, मन में आनंद का वास रहे"</b></u>🌹🌷*</p> <p dir=

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🌷🌹"सब कुछ बदल गया"🌹🌷

21 दिसम्बर 2021
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<p dir="ltr">🌷🌹<u><b>"सब कुछ बदल गया"</b></u>🌹🌷</p> <p dir="ltr">हर एक मनुष्य को <b>सर्वश्रेष्ठ

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🌷🌹"शरूर-ए-इश्क़ ख़ुमारी"🌹🌷

1 जनवरी 2022
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<p dir="ltr">🌷🌹<u><b>"शरूर-ए-इश्क़ ख़ुमारी"</b></u>🌹🌷</p> <p dir="ltr"><i><b>उल्फ़त-ए-यार कितना है, इसका पैमाना नहीं होता। </b></i><br> <i><b>आपसी जज़्बात बहते हैं, उनसा दीवाना नहीं होता।</b></i><br>

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🌷🌹"तुम... ज़िस्म हो या ज़िस्म में हो..."🌹🌷

13 जनवरी 2022
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🌷🌹"तुम... ज़िस्म हो या ज़िस्म में हो..."🌹🌷 तुम क्या महज़ ज़िस्म हो??? यदि ज़िस्म हो तो नामकरण के पहले एवं मरण के उपरांत... क्या अपनी पहचान बता सकोगे!! और यदि ज़िस्म नहीं हो तो फिर क्या हो और कौन हो!!! न

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🌷🌹"बस मोल है ख़्यालात का..."🌹🌷

21 जनवरी 2022
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🌷🌹"बस मोल है ख़्यालात का..."🌹🌷 भास खुदको तब हुआ,अपनी सही औक़ात का। जब सितारे ने था चीरा, दिल अंधियारी रात का। नश्तर चुभाके दिल में जो,बेदर्दी से ज़ख़्म दिए। दर्द को भी न दर्द हुआ, प्रेम भरे जज़्बात का।

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🌹"कहीं ऐसा इलाही घर न मिलेगा.."🌹🌷

23 जनवरी 2022
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🌷🌹"कहीं ऐसा इलाही घर न मिलेगा.."🌹🌷 इस लुभावने गुलशन के जैसा, कहीं और यह मंजर न मिलेगा। उल्फ़त से महके जहाँ हर ज़र्रा, वहां ख़ौफ़-ए-ख़ंजर न मिलेगा। महकता हुआ हो हरपल ही जहां, हर वक़्त सुबह और शाम। रूहानि

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🌷🌹"पूर्ण सत्गुरू ही सर्वकला संपन्न समरथ सत्ता है..."🌹🌷

27 जनवरी 2022
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🌷🌹"पूर्ण सत्गुरू ही सर्वकला संपन्न समरथ सत्ता है..."🌹🌷 पूर्ण सत्गुरू ही सर्वकला, संपन्न समरथ सत्ता है। बिन इसकी कृपा के तो, खिले न फूल-पत्ता है। सबकुछ लेवे देवे यही,'मोहन' अलौकिक दत्ता है। अज्ञा

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