मिट्टी का छोटा सा कण हूँ, छोटा सा है जीवन मेरा ।
अंधकार से जूझ रहा हूँ, आशा है कि होगा सवेरा ।।
शिशुकाल में सोचता था, ये दुनिया कितनी सुंदर है ।
हर एक प्राणी प्रेम मग्न है, हर इंसान अति सुंदर है ।।
देव तुल्य समझा था मैंने, पढ़े लिखे इन इंसानों को ।
माना था आदर्श अपना, शिक्षा के इन विद्वानों को ।।
सोचा था मैं भी पढ़-लिखकर, इन जैसा इंसान बनूंगा ।
चलकर इनके आदर्शों पर, मानवता का मान बनूंगा ।।
लेकिन ये क्या पाया मैने, पढ़-लिखकर जब बड़ा हुआ तो ।
ये कोरे भ्रम निकले सारे, इन लोगों में खड़ा हुआ तो ।।
मेरे मन के सन्देहों ने, मुझको बीच राह में घेरा ।
मिट्टी का छोटा सा कण हूँ, छोटा सा है जीवन मेरा ।
अंधकार से जूझ रहा हूँ, आशा है कि होगा सवेरा ।।
पढ़े-लिखे इन्ही लोगों में, न्यायनिष्ठा सोते देखी ।
सत्य का अभाव पाया, मानवता भी रोते देखी ।।
छल की पराकाष्ठा देखी, धर्मनिष्ठा खोते देखी ।
अपना स्वार्थ साधने हेतु, घोर हिंसा होते देखी ।।
शिक्षित होकर ये पाना था, चैन मन का खो जाना था ।
पता यदि ये मुझको होता, यहाँ कदापि नहीं आना था ।।
भोलापन मेरी दुनिया का, कहाँ गया मैं सोचता हूँ ।
निश्छल मन की वो सच्चाई, कहाँ गयी मैं खोजता हूँ ।।
यहाँ-वहाँ पर घूम-घूम कर, करता हूँ दुनिया का फेरा ।
मिट्टी का छोटा सा कण हूँ, छोटा सा है जीवन मेरा ।
अंधकार से जूझ रहा हूँ, आशा है कि होगा सवेरा ।।