गिरिजा नंद झा
दिल्ली विधानसभा चुनाव में भाजपा को जो शिकस्त मिली, उसके बाद से उसका खुद पर से जो भरोसा उठा, वह अब तक बहाल नहीं हो पाया है। दिल्ली में अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने भाजपा की गिनती को इतना कम कर दिया कि गिनती शुरू होने के साथ ही ख़त्म हो जाती है। अरविंद केजरीवाल के सामने ना तो नरेंद्र मोदी अपनी जानदार और शानदार छवि पर पार्टी के लिए वोट वटोर पाए और ना ही विकास पुरुष की जो छवि उन्होंने गढ़ी थी, वह भरोसे पर खरा उतर पाया। मतदाताओं के मूड को देखते हुए किरण बेदी को साथ ले कर ‘साफ-सुथरी’ राजनीति करने का जो प्रयोग भाजपा ने की, वह भी धूल धूसरित हो गई। किरण बेदी तो हार के बाद राजनीति से ही सन्यास ले ली।
बिहार विधानसभा चुनाव में जीत और हार से भाजपा की अंदरूनी राजनीति पर भी अच्छा खासा असर पड़ेगा। अगर जीत मिलती है तो प्रधानमंत्री मोदी की पार्टी पर पकड़ पहले से ज़्यादा मजबूत हो जाएगी। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह को सबसे बड़े चुनावी रणनीतिकार का दजऱ्ा मिल जाएगा। मोदी और शाह की जोड़ी सुपरहिट हो जाएगी। और अगर, नतीजा उम्मीद से उलट आया तो प्रधानमंत्री मोदी पर मर्जी चलाने के मामले में संघ परिवार का शिकंजा कस जाएगा। अमित शाह के बढ़े कद को छोटा कर दिया जाएगा। सबसे बड़े समझदार होने का तमगा उनसे छीन जाएगा और अध्यक्ष की कुर्सी भी खतरे में पड़ जाएगी। तभी तो अमित शाह बिहार की राजनीतिक माहौल पर ठोस रणनीति बनाने के बजाय उसी तरह का ढोल पीट रहे हैं जैसा नीतिश कुमार और लालू प्रसाद यादव पीट रहे हैं।
बिहार में नीतिश कुमार की स्थिति तब से कमजोर हुई पड़ती चली गई जब उन्होंने नवसुखिए राजनेता की तरह बिहार को जीतन राम मांझी के हवाले कर दिया। लालू प्रसाद यादव का लंबा साथ भी उन्हें राजनीति तौर पर परिपक्व नहीं बना सका। लालू यादव जब चारा घोटाले में जेल गए तो अपने सहयोगियों पर भरोसा करने के बजाय पत्नी को राजगद्दी पर बिठा दिया। उनकी पत्नी राबड़ी देवी पहली बार घर से जब बाहर निकली तो मुख्यमंत्री कार्यालय में पैर रखी। इसे कहते हैं राजनीतिक सूझबूझ और होशियारी। नीतिश कुमार लंबे समय तक लालू प्रसाद यादव के साथ तो रहे लेकिन उन जैसा होशियार नहीं बन पाए।
नीतिश कुमार को जब गलती का अंदाजा हुआ तब तक देर हो चुकी थी। मांझी उनके नाव में छेद कर चुके थे और लालू प्रसाद यादव जो अपनी करतूतों की वज़ह से राजनैतिक हाशिए पर पहुंच गए थे, नीतिश के डूबने वाले नाव में सवारी करने का भरोसा दिया। नीतिश कुमार अब भी लालू प्रसाद यादव को समझ नहीं पाए और चुनाव भी साथ लड़ने का ऐलान कर दिया। मतलब साफ है कि नीतिश कुमार को अपने काम का भरोसा नहीं रहा और जाति के आधार पर वोट हासिल करने के लिए लालू यादव को साथ ले लिया। ऐसे में भाजपा को जीत का भरोसा स्वाभाविक तौर पर होना चाहिए था मगर, जिस तरह से विकास के बजाय मतदाताओं को लाॅलीपाॅप दिखा कर रिझाने का प्रयास भाजपा कर रही है, उससे इतना तो साफ हो गया है कि जो गति नीतिश कुमार है, उससे अलग हट कर भाजपा की कतई नहीं है।
भाजपा जिस तरह से अपने कथित विकास के एजेंडे के साथ खिलवाड़ कर रही है, उससे इतना तो तय हो गया है कि पार्टी प्रधानमंत्री मोदी के नाम पर उसे भरोसा नहीं है। मुख्यमंत्री का नाम तक लेने में भाजपा के पसीने छूट रहे हैं और सबसे ख़ास बात यह भी कि वह पहली बार चुनाव इस आधार पर लड़ रही है कि अगर पार्टी को जीत मिलती है तो कोई दलित ही बिहार का मुख्यमंत्री बनेगा। जाति और धर्म के नाम पर मतदाताओं को बांटने का यह तरीका वैसे बिहार में कारगर जरूर माना जाता रहा है मगर, एक ही फार्मूले से हर बार जीत पक्की भी तो नहीं की जा सकती। अमित शाह जी-जान लगाए हुए हैं। वार रूम से काम कर रहे हैं। वार रूम सीधे उनके नियंत्रण में है। मगर, बिहार, दिल्ली या मुंबई नहीं है। वहां पर अंधेरा दूर करने के लिए लोगों को बिजली नहीं मिलती, कंप्यूटर, लैपटाॅप या फिर मोबाइल चाॅर्ज लोग कहां से कर पाएंगे? और जब सूचना तकनीक के सारे साधन बेकार पड़े हुए हैं तो वार रूम कितना असर डाल पाएगा यही तो देखने वाली बात होगी।