गिरिजा नंद झा
बिहार के मतदाताओं के साथ एक और बड़ा मज़ाक। भारतीय जनता पार्टी अगर सत्ता में आएगी तो गरीबों, यहां पर गरीबों से मतलब दलितों से है, को टीवी और स्कूली बच्चों को लैपटाॅप देगी। नीतिश कुमार नारों से आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं। मगर, लालू प्रसाद यादव आरक्षण पर आक्रामक मुद्रा अपना कर फिलहाल अपनी पीठ थपथपाने में लगे हैं। जीतन राम मांझी, रामविलास पासवान, मुलायम सिंह यादव, पप्पू यादव सरीखे कई नेता हैं जिनकी पार्टियां अपनी उपस्थिति दर्ज़ करा ले, वही बड़ी बात होगी। इनके जितने विधायक जीत जाएं, वही इन सभी के लिए गर्व से सीना तान कर खड़े होने की वजहें होंगी। जिस तरह की गड़बड़ स्थितियां पैदा कर राजनैतिक पार्टियां जीत की आस लगाए बैठी है, उससे इतना तो तय है कि सभी राजनैतिक पार्टियां अब भी ‘प्रागैतिहासिक काल’ के राजनीतिक ढर्रे से आगे बढ़ने के लिए तैयार नहीं है। वह भी तब, जब बिहार में भी नारों, जुमलों और वायदों से चुनाव जीतने का दौर तो कब का खत्म हो चुका है।
दिल्ली की तरह ही बिहार में भी भाजपा अपनी गलती को दोहरा रही है। भाजपा जरूरतों की बातें करने के बजाय सुविधाओं की बात कर रही है। बिहार में लोगों को सड़क चाहिए। बिजली चाहिए। शिक्षा चाहिए। रोजगार चाहिए और सबसे बढ़ कर एक ऐसा माहौल चाहिए, जो जीने के लायक हो। बिहार के मतदाताओं के लिए इस मामले में नीतिश कुमार दूसरी पार्टियों से थोड़े आगे हैं। मगर, नीतिश कुमार ने जो गलतियां की हैं उसका खामियाजा तो उन्हें भुगतना ही पड़ेगा। जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री बना कर उन्होंने अपने पैर पर कुल्हाड़ी मार कर पहली गलती की। लालू प्रसाद यादव के साथ गठबंधन कर उन्होंने अपनी राजनैतिक कब्र खोद ली। उनसे किसी समझदारी वाली कदम उठाने की उम्मीद तो नहीं की जा सकती मगर, जिस तरह से भाजपा में अफरातफरी मची है, उससे बाजी पलट जाए, इसकी संभावना जरूर बन रही है।
बिहार पिछड़ा है। बिहार के लोगों में गंवईपन है मगर, उतने मूरख नहीं कि चुनावी नारों से उन्हें बेवकूफ बनाया जा सके। पार्टियां अभी भी बिहार के मतदाताओं को समझने की भूल कर रही है, इसलिए नतीजे उन्हें चैंकाएगी। दरअसल, 2005 और फिर 2010 के चुनाव में जिस तरह के परिणाम सामने आए, उसे देखते हुए इतना तो दावे के साथ कहा ही जा सकता है। जिस तरह के रूझान फिलहाल आ रहे हैं, उसके मुताबिक नीतिश कुमार को जो झटका लगने वाला है, वह लालू प्रसाद यादव की वज़ह से लगने वाला है। इसका मतलब यह कतई नहीं है कि नीतिश कुमार की राजनैतिक जमीन दलदली हो गई है और भाजपा सूखी और मोटी जमीन पर खड़ी है। 2005 में नीतिश कुमार ने भाजपा के साथ मिल कर जिस तरह से राजपाट चलाया, लोगों को पसंद आया और 2010 में इस गठबंधन को फिर से राजपाट चलाने की जिम्मेदारी सौंप दी गई। मतलब यह कि बिहार के मतदाताओं ने साफ कर दिया कि पिछड़ेपन का मतलब गंवारापन नहीं होता। यह भी कि बिहार 16वीं सदी से बाहर निकल चुका है। विकास पार्टियों का एजेंडा हो या ना हो, मतदाताओं के एजेंडे में यह जरूर शामिल है।
जाति और धर्म के नाम पर राजनीति करने वाले लालू प्रसाद यादव का क्या हश्र हुआ? रामविलास पासवान दलितों के नाम पर कितनी बड़ी सामथ्र्य को हासिल कर सके? जीतन राम मांझी का तो लोग नाम ही अब जानने लगे हैं। पप्पू यादव अपने दम पर, बाहुबल के आधार एक आध सीट जीत लें, यही बड़ी बात होगी। उनकी पार्टी का नाम लेने वाला भी कोई नहीं रह जाएगा। कांग्रेस के पतन को ले कर शब्दों को खर्च करने की जरूरत अब शायद रह नहीं गई है। 2005 में भी बिहार में एमवाई का समीकरण था और 2010 में भी। 15 सालों तक लालू प्रसाद एंड फैमिली को लोगों ने मौका दिया। लालू यादव के ‘जंगल राज’ ने लोगों के नाक में दम कर दिया और उनके पतन की पटकथा लिख दी गई। लालू प्रसाद यादव अपने परिवार को भी राजनैतिक स्तर पर जोड़ कर नहीं रख पाए तो बिहार के यादव और मुसलमान उनके साथ अब भी जुड़े रहेंगे, इस बात का भरोसा तो वे खुद भी नहीं कर पा रहे।
रही बात आरक्षण पर आक्रामक रूख अख्तियार कर सीटें बढ़ाने की तो अब शायद उनके लिए बहुत देर हो चुकी है। बावजूद इसके, भाजपा को उनकी आक्रामता ने डरा जरूर दिया है। टिकट बंटवारे के बाद से भाजपा में जो कलह है, वह ठीक वैसी ही है जैसी कि दिल्ली विधानसभा चुनाव के समय थी। कुल मिला कर भाजपा की जमीन को गीली भाजपा वाले करेंगे और भाजपा की कमजोरी का फायदा नीतिश कुमार को मिल जाएगा। यकीन करना थोड़ा मुश्किल जरूर है मगर, परिणाम भाजपा के लिए संतोषजनक नहीं आने वाला है। विकल्पहीनता के स्थिति में नीतिश कुमार बाजी मार लेंगे। देखिएगा। परिणाम चाहे जो भी मगर हर हाल में हारना बिहार के मतदाता को है।