गिरिजा नंद झा
योगेंद्र यादव बाहर कर दिए गए। प्रशांत भूषण को भी ठिकाने लगा दिया गया। अब मयंक गांधी की बारी होगी। इसी तरह से एक के बाद एक विरोध के स्वर मुखर होंगे और बाद में बचेंगे अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया और संजय सिंह। एकाध और बच जाएं तो बच जाएं, बहुत ज्यादा नहीं बचेंगे, गिनती के लिहाज़ से। जिस तरह से विरोधियों की गिनती को कम किया जा रहा है उससे इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता।
जो लोग सिर्फ अरविंद केजरीवाल के समर्थक हैं, वह इससे राजी नहीं होंगे। लेकिन, जो लोग विचारधाराओं के समर्थक हैं, वे इससे कतई भी असहमत नहीं होंगे। केजरीवाल जो कहें, वही सही-इससे पार्टी तो बच जाएगी लेकिन विधायक नहीं रहेंगे। सरकार तो जैसे-तैसे बाद में भी बन सकती है मगर, जनसमर्थन हासिल नहीं होगा। केजरीवाल शायद इस गलतफहमी के शिकार हो गए हैं कि पार्टी को इतनी बड़ी जीत उनकी वज़ह से हासिल हुई है। नाम, उनका जरूर चला मगर, इस जीत को सुनिश्चित करने वाले वे अकेले नहीं है। पार्टी के नेताओं ने, कार्यकर्ताओं ने इसे सुनिश्चित करवाया है। जीत के लिए जितने विरोध हुए, उसे कार्यकर्ताओं ने झेला मगर, जिस तरह से केजरीवाल का रवैया सामने आ रहा है, वह आहत पहुंचाने वाला है।
मयंक गांधी झूठ नहीं बोल रहे हैं। केजरीवाल जिस तरह से अचानक ‘गंभीर’ रूप से बीमार पड़ गए, शंकाएं शेष नहीं रह गई। कमान मनीष सिसोदिया के हाथ में आ गया और परिणाम अप्रत्याशित किसी के लिए भी नहीं था। योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण की विदाई की पटकथा पहले ही लिखी जा चुकी थी। बस, उसे पढ़ कर सबको सुनाना भर था। 19 लोगों में से 11 लोगों ने कह दिया कि दोनों उन्हें मंजूर नहीं हैं और वह भी इसलिए क्योंकि केजरीवाल इनके साथ काम नहीं कर सकते। 8 लोगों के विरोध का कोई मतलब नहीं है। सारा मामला गिनती का है और लोकतांत्रिक व्यवस्था में अगर एक अंक की गिनती से भी पिछड़ जाते हैं तो बनी बनाई सरकार गिर जाती है और आम आदमी पार्टी एकमात्र पार्टी है जहां पर आंतरिक लोकपाल तक मौजूद है। उसी लोकपाल की जानकारी का हवाला दे कर प्रशांत भूषण फंस गए। और पार्टी की ऐसी दूसरी बिडंवनाओं पर अंगुली उठाने की वज़ह से योगेंद्र यादव की अंगुली को मरोड़ कर तोड़ दिया गया।
बड़ी बड़ी बातें करते थे। उसूलों की। ऐसी व्यवस्था कायम करेंगे कि पुरानी पार्टियां पुराने तरीके की राजनीति करना भूल जाएगी। मगर, जो तरीका और जिस व्यवस्था को कायम करने का प्रयास केजरीवाल कर रहे हैं यह व्यवस्था तो सदियों से प्रचलन में है। नया क्या है इसमें? कुछ भी तो नहीं। सिवाय इसके कि निर्णय लेते वक़्त उनके गले का पानी सूख जाता है। पहली बार जब सरकार बनाई तो कांग्रेस को चूना लगा गए। अब बहुमत की सरकार में हैं तो उन सभी लोगों को निपटाया जा रहा है जो खामियांें की ओर इशारा करने की जुर्रत कर रहे हैं। पार्टी की बातें बाहर नहीं जानी चाहिए। आपको जो कुछ कहना है, उसकी चर्चा के लिए पार्टी फोरम है। मगर, जब फोरम ने बहुमत से कोई निर्णय ले ही लिया है तो घंटों की मशक्कत के भी कोई मायने हैं क्या? केजरीवाल जो कर रहे हैं, वह ठीक नहीं कर रहे। ना तो यह चुनाव आखि़री था और ना ही यह परिणाम। चुनाव फिर होंगे और हर बार माफी मांग लेने से काम नहीं चलेगा।