गिरिजा नंद झा
बिहार विधानसभा चुनाव में लालू प्रसाद यादव के दांव ने भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के चुनावी रणनीति पर कुठाराघात कर दिया है। आरक्षण के मुद्दे पर भाजपा अध्यक्ष जिस तरह से सफाई देने में जुटे हैं उससे सवर्णों के वोट बैंक में सेंघ लग चुका है। भाजपा पर सवर्णों की पार्टी होने का ठप्पा पहले से लगा है और आरक्षण के मुद्दे पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानी संघ परिवार ने चर्चा छेड़ कर जो उम्मीद की किरण जगाई थी, उसके बाद जिस तरह से भाजपा उस पर मिट्टी डालने की कोशिश कर रही है, उसका असर बिहार विधानसभा के चुनावी परिणाम में दिखना तय है।
आरक्षण मधुमक्खी के छत्ते की तरह है। इसके साथ छेड़छाड़ का मतलब खुद को जख़्मी करना है। आरक्षण के मुद्दे पर संघ परिवार की हड़बड़ी ने बिहार के चुनावी माहौल में गर्माहट ला दी है और लालू प्रसाद यादव को एक मकसद दे दिया है। राजनैतिक तौर पर आखिरी सांस गिन रहे लालू प्रसाद यादव इसे संजीवनी बूटी की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं और इसकी लपटें भाजपा के पसीने छुड़ा रही है। दरअसल, भाजपा सवर्णों के वोट की गिनती को वैसे ही स्थायी मानती रही है जैसे उत्तर प्रदेश में मायावती और बिहार में रामविलास पासवान दलितों की मानते रहे हैं। अल्पसंख्यकों के वोट बैंक पर भाजपा को छोड़ कर हर पार्टी अपना अधिकार दिखाती है और कमोबेश उसमें सभी पार्टियों को अपने अपने हिस्से के वोट मिल भी जाते हैं।
जीत की गारंटी इस बात से तय होगी कि लालू प्रसाद यादव के यादवों के वोट बैंक पर भाजपा किस हद तक डाका डालती है। या फिर यह कि नीतिश कुमार के महादलित, रामविलास पासवान के साथ जाने के लिए तैयार होते हैं या नहीं। जीतन राम मांझी भी इस बार मैदान में हैं और जातीय आधार पर बंटे समाज में एकरूपता की उम्मीद बेमानी है। अल्पसंख्यकों में संशय बरकरार है और वह इसलिए भी क्योंकि इस बार असासुद्दीन ओवैसी भी बिहार में मैदान मारने की फिराक में हैं। कांग्रेस की बेतरणी तो पार होती नज़र ही नहीं आ रही। अब बात सवर्णों की एकता और अखंडता पर टिकती है जो भाजपा की परंपरागत वोट बैंक मानी जाती रही है। मगर, आरक्षण के ताप में तपे तपाए सवर्णों को अगर भाजपा की नीयत समझ में आ जाती है तो बिहार भाजपा के हाथ से खिसक जाएगी। जिन्हंे बिहार की जातीय समीकरण की समझ है, वे इस बात पर आसानी से यकीन कर सकते हैं। भाजपा जिस तरह से घर-घर जा कर लोगों को यह समझाने कोशिश में जुटी है कि वह आरक्षण के खिलाफ नहीं है, इससे इस वोट बैंक के टुकड़ों में बंट जाने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता।
रही बात लाॅलीपाॅप से मतदाताआंे को रिझाने की, तो यह तरीका पुराना पड़ चुका है। टीवी, फ्रिज, स्कूटर, स्कूटी, लैपटाॅप और दूसरी सुविधाओं की बात कर भाजपा पता नहीं किस वर्ग के मतदाताओं को अपने पक्ष में करने के लिए कर रही है। बिहार हो या पंजाब, पश्चिम बंगाल हो या महाराष्ट्र, दिल्ली हो या गुजरात। चुनावी वायदों के कोई मायने नहीं होते और सभी बातें हवा-हवाई होती है, इस बात से किसी भी राज्य का मतदाता अंजान नहीं है। कुछ मुद्दे समसामयिक होते हैं और कुछ जरूरतें बुनियादी। बिहार के लोगों के लिए छोटी-छोटी बुनियादी जरूरतें बड़ी मुश्किलें पैदा कर रही हैं और बुनियादी जरूरतों में उलझे लोगों के लिए सुविधाओं की बात बेमानी साबित होती है। भाजपा को परंपरागत वोट बैंक में सेंघ लगने से बचाना होगा, वरना नतीजे नीतिश कुमार के पक्ष में चले जाएंगे।