गिरिजा नंद झा
क्या बिहार भाजपा के हाथ से खिसकती जा रही है? क्या नीतिश कुमार के विकास पुरूष की छवि पर पलीता लगाने की भाजपा की रणनीति फ्लाॅप हो गई? क्या बिहार में ‘जंगल राज’ एक बार फिर से कायम हो जाएगा? क्या नीतिश कुमार बिहार में विकास की बयार नहीं बहा पाएंगे? क्या केंद्र और राज्य के बीच का संबंध चरमरा जाने वाला है? क्या भाजपा बिहार में संभावित शिकस्त को नहीं पचा पाएगी? क्या भाजपा बिहार के लोगों के फैसले का वैसे ही कद्र करेगी, जैसा वह दिल्ली के लोगों के साथ कर रही है? क्या अब बिहार के लोगों को ठहर कर भाजपा के मौजूदा इतिहास को पढ़ना जरूरी हो गया है? क्या भाजपा का यह कहना कि केंद्र और राज्यों के बीच का संबंध मजबूत बना रहे, इसके लिए दोनों ही जगहों पर भाजपा की सरकार होनी चाहिए-कुछ इसी तरह का इशारा नहीं है? सवाल कई हैं और इसका जवाब जल्दी ही पार्टियों को मिल जाएगा। 8 नवंबर में अब दिन ही कितने बचे हैं!
पहले चरण के मतदान हो चुके हैं। परिणामों को ले कर भाजपा में बेचैनी बढ़ गई है। अपने ही गढ़े पुराने नारों पर मिट्टी डाला जा रहा है। नए नारे गढ़े जा रहे हैं और बात बिगड़ती देख, मतदाताओं को धमकी भरे लहजे़ में जानकारी दी जा रही है कि बिहार को विकास के पथ पर आगे ले जाने के लिए उसे भाजपा को ही चुनना पड़ेगा? मगर, क्यों? मत मेरा, मतदान का अधिकार मेरा-फिर फैसला किसी के पार्टी के कहने पर कोई क्यों ले? देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था में चाहे जितना बदलाव आया हो, मगर बिहार के लोग-जब एक बार फैसला कर लेते हैं तो फिर अपनी भी नहीं सुनते।
जब से नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री बने हैं, भाजपा हवा-हवाई हो गई है। प्रधानमंत्री मोदी चुनाव के समय ही देश मंे मौजूद होते हैं, वरना विदेश में होते हैं। विदेशी हवा-पानी के बीच प्रधानमंत्री मोदी जितनी जमीनी हकीकत से दूर होते चले गए हैं, उतने ही दूर पार्टी अध्यक्ष अमित शाह हो गए हैं। जेड-प्लस सुरक्षा के बीच वे पार्टी नेताओं से मिलते हैं। चुनिंदा लोगों पर यकीन करते हैं और जो एक नज़र में नहीं जमता, उसे दूर भगा देते हैं। विरोधी स्वर उन्हें स्वीकार नहीं। खुद को इस तरह से पेश करते हैं जैसे कार्यकर्ताओं और उनमें वैसा ही संबंध है जैसे रजवाड़ों में होता है। अमित शाह पार्टी कार्यकर्ताओं से कटे हुए हैं और प्रधानमंत्री मोदी को तो उनके मंत्री तक टीवी पर ही उनका दर्शन कर पाते हैं।
पार्टी का आधार कार्यकर्ता होते हैं, जो जनाधार तैयार करते हैं। पार्टी और उसके नेताओं की छवि को बेहतर बनाते हैं। जब कार्यकर्ता सारी व्यवस्थाओं को दुरुस्त कर देते हैं, तब जा कर नेता भारी भीड़ को देख कर कहते हैं कि मुझे तो आज ही चुनाव का परिणाम मिल गया। भीड़ से मोदी-मोदी की आवाज पर पार्टी के नेता गद्गद होते हैं। मगर, जिस पार्टी में कार्यकर्ताओं की उपेक्षा होती है, उस पार्टी की रैली में भी भीड़ होती है। जिंदाबाद के नारे उसमें भी लगते हैं लेकिन, वोट डालते वक़्त गिनती गड़बड़ा जाती है। यही भाजपा के साथ हो रहा है। अब चुनाव महज़ नारों पर नहीं जीते जा सकते। ठोस परिणाम चाहिए लोगों को-वह चाहे बिहार हो, पश्चिम बंगाल, राजस्थान या फिर गुजरात।
बिहार में जिस तरह से महिलाएं सरकार बनाने में निर्णायक भूमिका में नज़र आ रही हैं, उससे भाजपा नेताओं के होश फाख़्ता हैं। वह इसलिए भी क्योंकि महिलाओं के बीच नीतिश कुमार की लोकप्रियता अच्छी खासी है। माना जा रहा है कि महिलाओं का एक भी वोट इधर से उधर नहीं होने जा रहा है। वोट प्रतिशत में इज़ाफे को ले कर जो उम्मीद थी, उस पर भी पानी फिर गया है। यही स्थिति रही तो चुनाव जीतना भाजपा के लिए टेढ़ी खीर साबित हो जाएगा। पार्टी नेताओं को भी इस बात का अंदाजा हो गया है। जिस तरह से आनन-फानन में अपने चुनावी नारों को वह बदल रही है, उससे उसकी हड़बड़ी का अंदाजा लगाया जा सकता है। कुछ इसी तरह की स्थितियां दिल्ली विधानसभा चुनाव में भी पैदा हो गई थी और आम आदमी पार्टी की सरकार बन गई। सीटें तो अभी बहुत बची है जिस पर मतदान होने हैं। मगर, क्या है न कि एक बार गिनती गड़बड़ा जाए तो हड़बड़ी इतनी हो जाती है कि गड़बड़ी बढ़ती चली जाती है।