गिरिजा नंद झा
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारी भीड़ से कहा था कि मैं बिहार आऊंगा। जबर्दस्ती आऊंगा। अगर हवा से नहीं आने देंगे तो पैदल चल कर आऊंगा। मगर, आऊंगा जरूर। दिल्ली से बिहार की दूरी ही कितनी है। दूर भी हो तो नरंेद्र मोदी के लिए कोई चिंता की बात नहीं है। बिहार के लोगों के साथ किसी तरह का ‘अन्याय’ नहीं होने दूंगा। बिहार को ‘जंगल-राज’ से मुक्ति अगर कोई दिला सकता है तो वह नरेंद्र मोदी ही हैं। मगर, यह क्या? पहले तो उन्होंने अपना चेहरा पोस्टर से गायब करवा दिया और अब संदेशा भिजवा रहे हैं कि बिहार सुधरने वाला नहीं है। जब बिहार के लोग ही जंगल-राज से मुक्ति पाने के लिए आतुर नहीं हैं तो मैं अकेले ही, इसके लिए व्याकुल क्यों रहूं। बिहार को बिहार वाले ही जानें। कुल मिला कर, जंगल-राज के साथ बने रहने की बिहार के लोगों की ‘प्रतिबद्धता’ ने प्रधानमंत्री मोदी को बुरी तरह से आहत कर दिया है।
भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए के घटक दलों को तो कुछ सूझ ही नहीं रहा है। रामविलास पासवान तो उस दिन को याद कर आंसू बहा रहे हैं कि बिहार में मुख्यमंत्री बनने का उनका सपना अब सपना ही रह जाएगा। अब तो उनका भरोसा बेटे चिराग की राजनीतिक समझ से भी उठता जा रहा है। बेटे चिराग के कहने पर ही तो वे बिहार विधानसभा का चुनाव भाजपा के साथ लड़ने को तैयार हुए थे। 243 सीटों पर चुनाव लड़ने और जीतने की ख़्वाहिश रखने वाले पासवान आखि़र में मात्र 40 सीटों पर संतुष्ट हो गए। तब भी, उन्होंने भरोसे का दामन थामे रखा और यह सोच-सोच कर गद्गदा रहे थे कि बिहार में भाजपा को, आखिर में चाहिए तो दलित मुख्यमंत्री ही और इस मामले में उनका दावा कहीं से कमजोर नहीं है। मगर, जो स्थितियां बन-बिगड़ रही है, उसके मुताबिक बिहार में भाजपा को पासवान और जीतन राम मांझी की वज़ह से दलितों और महादलितों का जो समर्थन वोट के रूप में उसे मिलना चाहिए था, मिलता नहीं दिख रहा। पासवान तो मोदी के भरोसे नैया पार लगने की आस लगाए बैठे थे, उन्हें क्या पता कि भाजपा की आस उन पर टिकी है। भाजपा तो बिहार में पासवान के प्रति उनके मतदाताओं के रवैये से ही क्षुब्ध है। उनका तो हिसाब किताब बिहार विधानसभा चुनाव का परिणाम आने के बाद किया जाएगा। पासवान तो बस अब इतनी ही दुआ कर रहे हैं कि जैसे भी हो, शून्य का ठप्पा लगने से बच जाएं-यही इस बार के लिए काफी है। अगर, इस बार ठीक-ठाक से परिणाम आ जाते हैं तो कसम से, आगे से अच्छी तरह से सोच विचार कर ही वे किसी गठबंधन के साथ जाएंगे।
जीतन राम मांझी का क्या? उनके लिए जीत-हार का कोई मतलब ही नहीं है। जीत गए तो भाजपा की ऐसी तैसी करते रहेंगे, हार गए तो पुराने काम में जुट जाएंगे। उनका राजनैतिक करियर इतना चमकदार तो रहा नहीं है कि दामन पर दाग लगने का कोई खतरा है। कुल मिला कर मांझी खतरे से बाहर हैं। बिहार के मुख्यमंत्री बनने का सपना नीतिश कुमार ने उनका पूरा करवा दिया है। अब उनके राजनैतिक जीवन की बहुत बड़ी महत्वाकांक्षा बची नहीं है। हां, कुछ सीटें मिल जाती है तो अपने विधायक के साथ मिल बैठ कर गप्पें कर लेंगे। जितने दिनों से वे राजनीति में हैं, उतने में इतनी उम्मीद तो वे कर ही सकते हैं। जीतन राम मांझी ऐसे ही जीतन राम मांझी थोड़े ही हैं। नीतिश कुमार की राजनैतिक नैया को बीच मंझधार में ले जा कर डुबोने में उन्होंने कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रखी थी। जो मांझी अपनी ही नाव डुबोने की क्षमता रखता है उसे भी कोई डरा सकता है क्या?
भाजपा की हिम्मत जवाब दे गई है। प्रधानमंत्री मोदी बिहार के मतदाताओं के हत्सोत्साह करने वाले रवैये से आहत हैं। मगर, दो चरणों के चुनाव के बाद भाजपा कौन-सा केंद्रीय चेहरा सामने लाए, अब इस पर माथापच्ची नहीं की जा रही है। भाजपा की स्थिति बिहार विधानसभा चुनाव के मामले में थोड़ी-बहुत कांग्रेस की तरह हो गई है। पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के अधिकांश सीनियर नेताओं ने चुनाव लड़ने से मना कर दिया और जब परिणाम सामने आया तो चुनाव नहीं लड़ने वाले नेताओं ने गहरी सांस ली थी कि चलो इज्ज़्ात बच गई। अब जबकि प्रधानमंत्री मोदी के नाम पर भाजपा को बिहार में जीत की आस नहीं बची है तो राजनाथ सिंह, अरूण जेटली और सुषमा स्वराज कहां से भाजपा को बचा पाएंगी! सुषमा स्वराज से याद आया कि उन्होंने अपनी एक रैली ठीक-ठाक भीड़ जमा नहीं होने की वज़ह से रद्द कर दी थी। रही बात अरूण जेटली की तो उन्होंने जिस तरह से भाजपा के घोषणापत्र का कबाड़ा किया, उसके बाद उनसे किसी तरह की उम्मीद बेमानी ही है। राजनाथ सिंह तो अपना चुनाव ही बड़ी मुश्किल से जीत पाते हैं। अब जबकि आखिरी वक़्त में लाल कृष्ण आडवाणी कुछ कर सकते थे तो उन्हें कुछ करने के लायक भाजपा छोड़ी ही कहां है?