गिरिजा नंद झा
दो बातें साफ हो गई है। एक तो यह कि भाजपा को दिल्ली में जगह नहीं मिली और आम आदमी पार्टी को जरूरत से ज़्यादा मिल गई। मगर, इस नतीज़े को इस नजरिए से देखा जाना गलत होगा कि इसका असर दूर तलक पड़ेगा। दरअसल, मतदाताओं का मिज़ाज तेज़ी से बदल रहा है। यह बदलाव नयेपन का है। जो पुराने से कुछ बेहतर नज़र आए। ऐसी सोच वाली बदलाव चाहिए लोगों को।
बहुत बड़ी उम्मीदों को छोड़ दीजिए। बहुत सारी बातें हवा में होती है। लोग भी जानते हैं। लेकिन, कुछ बातें बहुत ही सामान्य किस्म की होती है। कुछ जरूरतें मौलिक होती हैं। थोड़ी बहुत सुविधाएं हर किसी को चाहिए। झुग्गी बंगलों में तब्दील ना हो चलेगा, मगर, बिजली और पानी तो होने ही चाहिए। फल ना हों तो कोई बात नहीं, मगर, घरों में चूल्हा जलाने लायक व्यवस्था तो होनी ही चाहिए। निजी स्कूल नहीं तो सरकारी ही चलेगा, मगर, वहां पर पढ़ाई लिखाई का इंतज़ाम होना चाहिए। निजी स्कूलों को भी फीस इतनी ही लेनी चाहिए कि वह व्यवसायिक संस्था बन कर ना रह जाए। डाॅक्टरों को प्राइवेट क्लिनिक चलाने की छूट तो सही है मगर, अस्पतालों में इतनी सुविधाएं तो होनी ही चाहिए कि लोग रोटी का पैसा इलाज़ में खर्च करने से बच जाए। सुनने और समझने में यह सारी बातें कोरी कल्पना जैसे ही लगती है। मगर, अगर इरादों के साथ इन व्यवस्थाओं को लागू किया जाए तो क्या यह सब वाकई इतना भारी काम है कि 64 साल के बाद भी स्थितियां जस की तस बनी हुई है।
मैं इस बात से कतई सहमत नहीं हूं कि अरविंद केजरीवाल को लोगों ने वाई-फाई जैसी सुविधाएं देने के नाम पर वोट दिया है। ऐसा भी नहीं है कि जो वायदे उन्होंने किए हैं, वह सोचे समझे बगैर किए हैं। दिल्ली के हर घर में पानी को क्यों नहीं पहुंचाया जा सकता। बिजली कंपनियां मनमानी कीमत वसूल रही है तो उसे कम क्यों नहीं करवाया जा सकता। चैबीसों घंटे बिजली क्यों नहीं उपलब्ध कराई जा सकती है। एक तरफ, हम बुलेट ट्रेन और स्मार्ट शहर का सपना देख रहे हैं, दिखा रहे हैं और दूसरी तरफ लालटेन युग में लौट आने की मजबूरी बता रहे हैं। दो बातें एक साथ कैसे की जा सकती है? दिल्ली देश की राजधानी है। दिल्ली को वल्र्ड क्लास सिटी बनाने के बारे में सोचा जा रहा है और बड़ी आबादी बिजली, पानी, सड़क, परिवहन और टाॅयलेट जैसी सुविधाओं के लिए तरस रही है। मतलब यह कि वल्र्ड क्लास सिटी बनाने से पहले दिल्ली को सही मायने में भारत की राजधानी बनाना होगा। हर घर तक पानी पहुंचाना, बिजली देना, सड़क और परिवहन व्यवस्था को दुरुस्त करना होगा। यही बात तो अरविंद केजरीवाल ने की। उसका परिणाम चुनावी नतीजे के तौर पर सामने है।
भाजपा को जो नुकसान हुआ है, उसे इस तरह से समझा जा सकता है। दरअसल, भाजपा लोगों को यह समझा रही है कि केंद्र और राज्यों में उसकी सरकार होगी, तभी सही मायने में विकास होगा। हर काम में नाम मोदी का होना चाहिए। ठीक वैसे ही जैसे एक जमाने में कांग्रेस हर काम नेहरू और इंदिरा गांधी और बाद में राजीव गांधी के नाम पर करती थी। हर-हर मोदी, घर-घर मोदी के नारों की तरह। नारों से चुनाव जीतने तक तो ठीक है मगर, उसका माला जपते रहने से विकास तो नहीं होगा। यहां पर तो विकास की बात भी नहीं हो रही है। लोग तो बुनियादी जरूरतों के लिए ही तरस रहे हैं। क्या फर्क़ पड़ता है कि देश का विकास मोदी नाम का व्यक्ति करे, या फिर किरन बेदी नाम का या फिर अजय माकन नाम का या फिर आखिर में अरविंद केजरीवाल नाम का। विकास हमारी जरूरत है। विकास हमारे लिए जरूरी है। और हम हैं कि बुनियादी जरूरतों को सुविधाओं का नाम दे कर उसे हर तरह से टालने के प्रयास किए जा रहे हैं। सरकार बनने के बाद पार्टी रह कहां जाती है? फिर तो वह करोड़ों की आबादी का प्रतिनिधि बन जाता है। फिर भी ऐसी बातें? बिल्कुल सही नहीं है। लोग अब नतीजे़ देने लगे हैं और यही वक़्त है कि अब पार्टियों को पार्टी के दायरे से हट कर और लोकहित में फैसले लेने का। वरना, नतीजे़ इतने चैंकाने वाले आएंगे, कि स्थिर होने का मौका ही नहीं मिल पाएगा। मज़ाक नहीं है यह, नतीजा है।