गिरिजा नंद झा
भारतीय जनता पार्टी का आखिरी वार भी निरर्थक साबित होता जा रहा है। भाजपा ने दो चरणों के मतदान के बाद बिहार को बिहार के नेताओं के हवाले तो कर दिया मगर, महंगाई मार गई। पहले संघ परिवार के आरक्षण ने और अब भोजन भात से ‘गायब’ हो रही दाल ने भाजपा गठबंधन की गांठ को ढ़ीली कर दी है। चीज़ों की आसमान छूती कीमत, पूरे हो चुके दो चरणों के मतदान तक, चुनावी मुद्दा नहीं था मगर, पार्टी में ‘गंभीर उपेक्षा’ के शिकार शत्रुघ्न सिन्हा ने नीतिश कुमार के महागठबंधन को यह मुद्दा दे कर पार्टी के ताबूत में आखि़री कील ठोक दी।
पार्टी को सही मायने में असली नुकसान, अध्यक्ष अमित शाह के हद से शुरू हुई। बिहार के मतदाताओं की मिज़ाज को जाने समझे बगैर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जरूरत से ज़्यादा रैलियों के आयोजन की घोषणा कर दी गई। स्थानीय नेताओं से विचार विमर्श की जरूरत को महसूस करने से मना कर दिया गया। प्रधानमंत्री मोदी की चुनावी मंचों पर बिहार के नेताओं को फटकने की छूट ही नहीं दी गई। स्वाभाविक तौर पर, कार्यकर्ताओं को अपने नेताओं की ‘उपेक्षा’ हज़म नहीं हुई। ठीक वैसे ही, जैसे दिल्ली विधानसभा चुनाव में प्रदेश अध्यक्ष सतीश उपाध्याय को पार्टी ने टिकट देने से एक तो मना कर दिया, दूसरे जब उनके समर्थक इसकी वज़ह जानने के लिए पार्टी दफ्तर पहुंचे तो उन्हें निकाल बाहर कर दिया गया। समर्थकों को अपनी ‘बेइज़्जती’ बर्दाश्त नहीं हुई और भाजपा चुनाव हार गई। दिल्ली में जिस तरह से समर्थकों को खदेड़ दिया गया, उससे सबक लेते हुए बिहार के भाजपा समर्थकों ने खामोशी तो जरूर साध ली, मगर, देखते ही देखते पार्टी की रैलियों में भीड़ कम होने लगी। प्रधानमंत्री मोदी ने स्थितियों को भांप लिया और उन्होंने अपनी रैलियां स्थगित कराने के निर्देश जारी कर दिए गए।
बिहार राजनैतिक तौर पर थोड़ा ज़्यादा जटिल राज्यों में से एक है। यहां पर राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों का असर देर से होता है। स्थानीय मुद्दे प्रभावी होते हैं। जाति का प्रभाव अलग से है। यहां के लोगों को चमक-दमक रास तो आता है लेकिन, उसमें उनकी आंखें चैंधिया जाए, ऐसा भी नहीं है। उन्हें गाली-गलौज की भाषा भी रास आती है मगर, उसके इस्तेमाल का लालू यादव का तरीका ही पसंद है। देहात के लोगों को देहाती तौर तरीका ही तो अच्छा लगेगा न, ख़ास कर जो अपना सा लगे। स्थानीय नेता ही स्थानीय तौर तरीके से वाकि़फ होते हैं और इस बात को समझने में पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने बड़ी देर कर दी। भाजपा के घटते प्रभाव ने गठबंधन के नेताओं की उम्मीदों को भी तार-तार कर दिया है। अब जा कर अमित शाह खुद दादरी कांड से ले कर आरक्षण और दाल की कीमतों से ले कर आलू प्याज पर थोक मंडी से ले कर खुदरा बाजार की स्थितियों से लोगों को अवगत कराने की कोशिश कर रहे हैं। बावजूद इसके, मतदाताओं का मूड बदलता नहीं दिख रहा।
बिहार में लालू प्रसाद यादव और नीतिश कुमार का मुकाबला रामविलास पासवान कर सकते हैं, जीतन राम मांझी कर सकते हैं। सभी की भाषा शैली एक जैसी है। सभी एक दूसरे की राजनैतिक मंचों से ऐसी की तैसी कर सकते हैं। मगर, एक तो इस तथ्य को स्वीकार करने में दो चरण के मतदान पूरे हो गए है। बाकी के तीन चरणों में मतदाताओं को अब लगता है कि जब भाजपा ने खुद चुनावी हार को स्वीकार ही कर ली है, तो वोट बर्बाद करने का फायदा क्या? इस बीच, भाजपा की साख पर बट्टा लगाने में भाजपा के नेता भी पीछे नहीं हैं। साक्षी महाराज ने तो जिस तरह से बिहार को कैंसर पीडि़त बताया है, उसका जवाब तो बिहार के मतदाताओं को देना ही होगा। कोई उपाय ही नहीं है। आखि़र बिहार के मतदाताओं को अपने होने का प्रमाण तो देना ही पड़ेगा। वरना, बिहार और उत्तर प्रदेश को ले कर जो लोगों का नज़रिया है, उस पर दाग नहीं लग जाएगा। आखि़र में, जो तस्वीर सामने आ रही है, उसके मुताबिक भाजपा को कहीं यह ना कहना पड़े-‘‘सर्फ एक्सेल है तो दाग अच्छे हैं।’’