गिरिजा नंद झा
हम नाहक ही इस बात को ले कर हकलान होते रहे हैं कि यह देश निरक्षरों का देश है। अनपढ़ और गंवारों का देश है। देश को इस बात पर गर्व होना चाहिए कि यहां के ‘उच्चतम’ शिक्षा प्राप्त नौजवानों में किसी काम के छोटे या बड़े होने में भेद नहीं करते। शिक्षा अपनी जगह और काम अपनी जगह। शिक्षा इंसान को समझदार तो बनाता है मगर, यह दो जून की रोटी का इंतज़ाम नहीं कर पाता और इसीलिए यह हमारी समझदारी है कि हम भेदभाव के बिना वह काम करें, जिससे भोजन-भात का इंतज़ाम हो जाए। जिस देश में चपरासी की नौकरी पाने की कतार में पीएचडी और बीटेक के छात्र कतार में खड़े हैं, वह देश निरक्षरों और गंवारों का कैसे हो सकता है?
इस पर विचार की जरूरत नहीं पड़ती अगर, उत्तर प्रदेश का हालिया मामला सामने नहीं आता। इस राज्य में एक ‘विचित्र’ संकट की स्थिति पैदा हो गई है। राज्य सरकार को अपने सचिवालय के लिए 368 चपरासी की जरूरत है। चपरासी का काम पढ़ाई-लिखाई से जुड़ा तो होता नहीं है सो, इसके लिए योग्यता मात्र पांचवीं पास ही रखी गई। इधर-उधर का काम निपटाने के लिए साइकिल चलाने की योग्यता को भी इसमें शामिल किया गया है। मापदंड को पूरा करने वाले प्रत्याशियों की संख्या 53 हजार है जो मांग के हिसाब से बहुत ज्यादा है, संकट इसमें नहीं है। असल संकट इस तथ्य में निहित है कि 20 लाख के करीब प्रत्याशी 6वीं से ले कर 12वीं तक पास है। मामला इतना आसान होता तो रफादफा हो जाता। पूरा मामला विचित्र इस लिहाज़ से हो चुका है कि इस पद के लिए 255 प्रत्याशी पीएचडी की डिग्री हासिल कर चुके हैं और 2 लाख 22 हजार बीटेक किए हुए हैं।
यहीं से शुरू होती है दिक्कत। कायदे से सभी सीटों पर पीएचडी होल्डर और बीटेक डिग्रीधारियों की दावेदारी बनती है। योग्यता क्रम में यह श्रेष्ठ हैं। श्रेष्ठता को ‘सम्मानित’ किया जाना चाहिए। मगर, इसमें सबसे बड़ा लोचा यह है कि अगर श्रेष्ठता को सम्मानित किया जाए तो 53 हजार उन प्रत्याशियों के साथ इसे ‘न्याय’ माना जाएगा, जो सीधे तौर पर इसके दावेदार हैं। अब मुश्किल यह है कि चयन का आधार क्या बनाया जाए? योग्यता या फिर मानवीयता या फिर व्यवहारिकता या फिर कुछ ऐसी व्यवस्था बनाई जाए कि जिस पद के लिए जो मानक तय किए जाएं, उससे अधिक की योग्यता रखने वालों को उससे दूर रखा जाए। कुछ ना कुछ तो उपाय करना ही होगा। एक तो हम लोगों को शिक्षित नहीं कर पा रहे हैं और दूसरे जो शिक्षित हैं, उन्हें चपरासी तक की नौकरी उपलब्ध नहीं कर पा रहे हैं-ऐसी शिक्षा का कोई मतलब भी है क्या?
जो स्थितियां हैं, उसमें अच्छा क्या है? यही कि लोग पढ़ाई-लिखाई करें ही नहीं। नौकरी की समस्या विकट है और इतनी विकट कि तीन सौ के करीब लोगों के लिए जो पांडुलिपियां अलग-अलग लोगों से प्राप्त हुई है, उनका अगर दैनिक आधार पर साक्षात्कार लिया जाए तब भी चयन की प्रक्रिया को पूरा करने में चार साल के करीब लग जाएंगे। और तब तक बहुत सारे उम्मीदवार इस आस में बेरोजगार बैठे रहंेगे कि पता नहीं, किस दिन साक्षात्कार के लिए बुलावा आ जाए। इस देश के नौजवानों में धैर्य की कोई कमी नहीं है। धैर्य हो तो कोई भी इंतज़ार इतना लंबा होता कहां है? वैसे भी धैर्य खो देंगे तो कौन सी दूसरी नौकरी उनका इंतज़ार कर रही है। करोड़ों की आबादी में महज़ कुछेक हजारों के पास ही तो नौकरी है। अब तो सोचना उन लोगों को है जो बचपन में यह सोच कर पढ़ाई नहीं करते कि उनके काम में उतनी प्रतिस्पर्धा नहीं है। जिस तरह की प्रतिस्पर्धा हर स्तर के कामों में बढ़ रही है, उसका इतना तो फायदा होगा ही होगा कि छोटी-मोटी नौकरी के लिए भी लोग बड़ी-बड़ी और मोटी किताबों में अपना माथा फोड़ते नज़र आएंगे। ऐसे नहीं पढ़ने के लिए तैयार हैं तो इस डर से तो किताबों से नाता जोड़ना ही पड़ेगा। आखिर सच ही कहा गया है न कि पढ़ेगा इंडिया, तभी बढ़ेगा इंडिया।