गिरिजा नंद झा
योग एक सामान्य शारीरिक यौगिक क्रिया है और इसे करने से हमारे शरीर की शिथिलता दूर होती है। शरीर चुस्त दुरुस्त और तंदुरूस्त रहता है। इस बात को वे लोग भी स्वीकार करते हैं जिन्हें इसके किए जाने पर ऐतराज है। मगर, योग उनके लिए जरूरी है जो सांसरिक सुखों का ‘भोग’ करते हैं। भोग का संबंध हमारे खान-पान और रहन-सहन से है। विलासिता पूर्ण जीवन से है। जिनका नाश्ता हजारों का होता है और लंच पर खर्च की कोई सीमा नहीं होती। जो रात का खाना इसलिए नहीं खा पाते कि दिन-भर के खाए भोज्य पदार्थ को उनकी पाचन ग्रंथिया पचाते पचाते थक चुकी होती है।
शरीर को स्वस्थ रखने के लिए 2400 कैलोरी की ऊर्जा की जरूरत होती है। 2400 कैलोरी शरीर को मिले, इसके लिए कम से कम चार से पांच मोटी चपाती होने चाहिए। ढ़ाई सौ ग्राम के करीब तैयार हरी सब्जियां और 100 ग्राम के करीब उबली हुई दाल तो होनी ही चाहिए। अगर, भोजन में इतनी सारी चीजें आप दैनिक आधार पर दिनभर में भी ले लेते हैं तो आपका बेड़ा पार लग जाता है। मगर, भारत एक ऐसा देश है जहां पर करोड़ों लोगों के पास दिनभर तो क्या, हफ्ते भर में इतना भोजन नसीब नहीं होता। हालांकि, ऐसे लोगों के लिए सरकार ने लंगर की शैली में भोजन का इंतज़ाम भी कर रखा है। सरकार की ओर से खैरात में जो अनाज लोगों को ‘मामूली’ सी कीमत पर उपलब्ध कराने का दावा किया जाता है, वह खा कर इंसान जिंदा भले ही रह जाए मगर, स्वस्थ कतई नहीं रह सकता। उन अनाजों को खाते-खाते उनका ‘लीवर’ इतना कमजोर हो चुका होता है कि अनाज तो पचा नहीं पाते, उलटे अपच का शिकार बनते चले जाते हंै।
आधे अधूरे खान-पान के बीच शरीर का कौन सा हिस्सा कब काम करना बंद कर देता है, इसका पता तो तब भी नहीं चल पाता, जब ‘बेवज़ह’ उनकी मौत की खबर अपनों को मिलती है। गरीबी अपने आप मंे बीमारी है और यह कुल मिला कर लाइलाज है। मौत सनातन सत्य है और इस सत्य को हम उसी रूप में स्वीकार करते हैं। जो भोजन के इंतज़ाम में पतले हुए जा रहे हैं, उनके लिए शारीरिक क्रियाएं व्यर्थ हैं। जो अभावों में जीते हैं उनके लिए भोजन का इंतज़ाम उनकी प्राथमिकता है। योग के लिए तन और मन दोनों शांत होने चाहिए। लेकिन यहां पर तो देश की एक बड़ी आबादी की तो चित ही शांत नहीं है।