गिरिजा नंद झा
22 मई 1987 की बात है। उस दिन शायद हाशिमपुरा में इतनी उदासी नहीं थी, इतनी खामोशी भी नहीं और इतना गम भी नहीं था। मगर, 27 साल बाद जब अदालत का फैसला आया, तो 42 लोगों की मौत पर लोग चीत्कार उठे। बरसों से खामोश लोगों की जिंदगी में भूचाल आ गया। जिंदगी ठहर सी गई लगने लगी लोगों को। बेबसी और लाचारी पर बरसों बाद आंखों से खून के आंसू टपक पड़े। खामोश जुवान से जो सिसकियां निकली उसकी आवाज़ दूर तलक सुनाई देने लगी। लेकिन, किसे परवाह है उन सिसकती आवाजों की, कौन सुनेगा और क्या करेगा सुन कर।
27 साल लग गए। एक सच को सामने लाने में। सच भी कैसा कि जिन लोगों को पीएसी के जवानों ने मौत के घाट उतार दिया, उसका अपराध कुछ है ही नहीं। क्यों? क्योंकि गवाह कोई बचा नहीं। जिसने गवाही दी उसके कोई अर्थ नहीं। 42 लोगों को मौत के घाट उतार कर नहर में बहा दिया गया। यह ख़बर झूठी थी। या वे लोग झूठ बोल रहे हैं जो गोलियां खा कर भी जिंदा बच गए। किसी को नहीं दिखाई उन लोगों के शरीर का जख़्म। किसी को नहीं दिखाई दी, उनसे जुड़े लोगों के दर्द। जबकि दुःख और दुर्भाग्य की इससे बड़ी बिडंवना और क्या हो सकती है कि जिन्हें लोगों को शांत करने के लिए भेजा गया वही काल बन कर उन पर टूट पड़े। कहां मिला न्याय? किसको मिला न्याय? उन्हें जिन पर आरोप साबित नहीं हो पाए। या फिर उन्हें जिन्होंने सब कुछ खो दिया। लोगों को मौत के घाट उतारा गया-क्या यह भी गलत जानकारी है। या फिर यह भी कि किसी ने किसी को नहीं मारा। किसी ने तो मारा-कौन, इसका पता क्यों नहीं लगाया गया?
बेबस और लाचार वे लोग नहीं हैं जिन्होंने खून के आंसू रोये हैं। दरअसल, ये बेबसी और लाचारी हमारे कानून और व्यवस्था की है। कानून के हाथ लंबे होते हैं। न्याय हर किसी को मिलता है। कानून की नज़र में कोई भेदभाव नहीं है। कोई छोटा या बड़ा नहीं है। कानून सबसे ऊपर है। यही आस तो हाशिमपुरा के लोगों को थी। मगर, नतीजा निकला क्या? शून्य। कैसे लोग यकीन करेंगे कि कानून किसी भी निरपराध को सजा नहीं देता। मगर, हाशिमपुरा के लोगों को सजा मिली है। इस बात की कि उन्होंने 27 साल तक न्याय की आस लगा कर बैठे रहे। उनके जख्मों को फिर से हरा कर दिया गया। जो लोग इस नरसंहार में बच गए, वे शायद बचे ही थे इसलिए कि वे लोगों को इसका सच बता सकें। लेकिन, किसी ने भी तो उन पर यकीन नहीं किया। अदालत ने भी नहीं। अब वे कहां जाएंगे न्याय की गुहार लगाने के लिए। शायद इतनी तकलीफ लोगों को उस दिन भी नहीं पहुंची होगी जब एक साथ दर्जनों लोगों की लाश को लोगों ने नहर में तैरते देखा होगा? क्योंकि उस दिन उन्हें इस बात का यकीन रहा होगा कि इस हत्या के जिम्मेदार लोगों को तो सजा मिलेगी ही मिलेगी। हर हाल में, हर कीमत पर। मगर, अफसोस अदालत का दायरा तमाम गवाहों और सबूतों पर निर्भर करता है और कोई भी गवाह और सबूत इस तथ्य को साबित नहीं कर सका कि जिस बंदूक से गोली निकली थी, वह बंदूक आखिर थी तो किसकी थी। किसी न किसी के बंदूक से निकली गोली तो थी ही।