गिरिजा नंद झा
आपकी कमीज़ मैली है। नहीं, आपकी मुझसे ज़्यादा मैली है। जमीन अधिग्रहण अध्यादेश पर विपक्ष के आरोप से निपटने में केंद्र की भाजपा सरकार कुछ ऐसे ही जुमलों का इस्तेमाल कर रही है। अध्यादेश पर विपक्ष के आरोप का जवाब भाजपा इस तरह से दे रही है कि देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के शासनकाल में 70 से ज़्यादा अध्यादेश लाए गए। संयुक्त मोर्चा के सरकार के 18 महीने के शासनकाल में भी इतने के करीब अध्यादेश लाए गए थे। बाद के कांग्रेसी सरकार भी इससे अछूती रही हो, ऐसा नहीं है।
कुतर्कों के भी अपने तर्क होते हैं। बस, उसकी गंभीरता की समझ होनी चाहिए। जमीन अधिग्रहण मामले में वित्त मंत्री अरूण जेटली का तर्क कमाल का है। कहा यह गया है कि पिछली सरकार ने इस मामले में जो तथ्यात्मक ‘गलती’ की थी, उसे भाजपा की सरकार ने दुरुस्त कर दिया है। ‘हंगामा’ करने से पहले विपक्ष को इसका बारीकी अध्ययन करना चाहिए। मतलब यह कि भाजपा सरकार ने जो फैसला किया है, उसमें कहीं कोई त्रुटि नहीं है और विपक्ष नाहक ही हंगामा मचा रखा है।
एक दिन पहले ही केंद्रीय मंत्री वैंकेया नायडू बता रहे थे कि सब कुछ ‘ठीक’ कर दिया गया है। अध्यादेश को कानून बनने देते हैं और बाद में अगर किसी तरह की जरूरत पड़ती है तो संशोधन की गुंजाइश खत्म कहां हो गई है? क्या जरूरत थी, जमीन अधिग्रहण के मामले में इतनी तत्परता दिखाने की। देश में औद्योगिक विकास हो, विकास में हर किसी की भागीदारी हो-इससे किसी को क्यों इंकार हो सकता है। मगर, विकास किस कीमत पर हो, इसके बारे में विचार करना तो बनता ही है। जमीन सरकार की है तो किसानों के पास क्या रह जाएगा। कीमत सुविधा के अनुसार तय कर दिए जाएं तो फिर मालिकाना हक़ होने का क्या मतलब रह जाता है। किस जमीन का इस्तेमाल किस तरह से होने चाहिए, इसके लिए सामूहिक फैसले का अधिकार अगर छीन लिया जाए तो फिर सामूहिक हित कहां से सध पाता है। कुछ तो गड़बड़ है जिसकी वज़ह तो है जो सरकार की हालत को भी पतली किए हुए है।
अरूण जेटली यह क्यों नहीं बता पा रहे हैं कि किसानों की जमीन को ‘छिनने’ के बाद उसे कैसे लाभ पहुंचाया जा सकेगा? वह यह भी नहीं बता पा रहे कि कृषि प्रधान देश में अगर किसानों का जमीन पर मालिकाना हक़ नहीं रह पाएगा तो वह खेती कहां करेगा और उसका गुजारा कैसे चल पाएगा? अपने हक़ की लड़ाई के लिए अदालत तक के रास्ते को बंद कर देने से लोग कहां पर अपना हक़ मांगने जाएंगे? अगर, किसी का किसी जमीन पर मालिकाना हक़ है तो उसे सरकार अपनी मर्जी से खरीदकर कैसे इस्तेमाल कर सकती है? सरकार लोगों के हितों पर कुठाराघात कर रही है और बता रही है कि इसी में सबका भला है? कमाल है? सरकार, लोगों के भले के लिए यह अध्यादेश लाई है और वह लोगों को यह समझाने में नाकाम साबित हो रही है? लोगों को अपनी भलाई का आभास तक नहीं है?, वे तो लुटा हुआ महसूस कर रहे हैं।
जब इसी तरह से सरकार चलना था तो कांग्रेस की सरकार में क्या बुराई थी। अंतर्राष्ट्रीय बाजार में जब पेट्रोलियम पदार्थों की कीमत प्रति बैरल डेढ़ सौ डाॅलर के करीब थी तो लोगों को 60 रुपये प्रति लीटर के हिसाब से उपलब्ध थी। अब, यह पचास डाॅलर से नीचे है तब भी लोगों को 60 रुपये से ज़्यादा चुकाने पड़ते हैं। कुछ नहीं, बहुत ज़्यादा गड़बड़ है। इसका यह मतलब कतई नहीं है कि पिछली सरकार अच्छी थी या फिर यह भी कि देश को चलाने के लिए वह अपनी जिम्मेदारी का बढि़या से निर्वाह कर रही थी। बल्कि इसका सीधा सा मलतब यह है कि पिछली और पिछली की सरकार तो छोड़ दीजिए, मौजूदा सरकार भी लोगों के हितों का खयाल रखने के मूड में नहीं है। जिस विषय पर गंभीरता से चर्चा करके कानून बनाने की प्रक्रिया को पूरा किया जाना चाहिए था, उस पर अध्यादेश ला कर तर्क यह दिया जा रहा है कि यह परंपरा पुरानी है और पुरानी परंपराओं पर कायम रहने में कोई दोष थोड़े ही है।