गिरिजा नंद झा
आसान नहीं है मौत। आसान होती तो लोग मर खप गए रहते। कहंा मर रहे हैं? इंतज़ाम तो पुख़्ता है मगर जिंदगी ही इतनी अक्खड़ है कि मौत आती ही नहीं। पानी तो लोहे को भी सड़ा गला देता है। मगर, हाड़ मांस का यह शरीर गलने में इतना समय क्यों ले रहा? एक हफ्ता गुजर चुका है। पानी का असर तो अब तक नहीं दिखा है। मगर, पानी में रहने वाले जोंक आदि जीव जंतुओं ने सत्याग्रहियों को आहार बनाना शुरू कर दिया है। पानी का असर थोड़ा बहुत ही पड़ रहा है।
मध्यप्रदेश के खांडवा जिले में लोग नर्मदा नदी के बांधों का जलस्तर बढ़ाए जाने के खिलाफ हैं। आंेकारेश्वर बांध का जलस्तर दो मीटर बढ़ाए जाने के फैसले के खिलाफ दर्जनों लोग सात दिनों से पानी में डेरा जमाए हुए हैं। सत्याग्रही पुनर्वास की मांग कर रहे हैं। मामला अदालत में अटका पड़ा है। तीन जजों को इस मामले में अपना ी राय देनी थी। मगर, एक जज जरूरी काम में फंस गए? अदालत का मामला है, जजों को अपनी प्राथमिकताएं तय करने का पूरा अधिकार है। लोग पानी में डेरा जमाए हुए हैं। उनकी हालत बिगड़ रही है। शरीर का जितना हिस्सा पानी में डूबा है, वह तो क्षत विक्षत होने ही लगा है। साथ ही, सिरदर्द से ले कर सर्दी बुखार तो ऐसा है कि इससे कोई भी बचा हुआ नहीं है। भैय्या जब मामला अदालत में है तो लोगों को चाहिए कि जब तक घर बचा है, उसमें रहे। बात ही नहीं समझते। बस, जि़द पर अड़े हुए हैं। रहिए अड़े। जज साहब को जब फुर्सत मिलेगी, तभी तो आपकी समस्या पर ग़ौर कर पाएंगे।
मौत सबसे बड़ा सच है। मौत सबको आती है। किसी को पहले किसी को बाद में। इस चिरातन सत्य को चूंकि, हम जानते हैं इसीलिए इस बात की परवाह नहीं करते कि कौन, किस तरह की मौत मर रहा है, क्यों मर रहा है? उसके आगे-पीछे का सच जानने की भी भला कोई जरूरत है क्या? बिलकुल नहीं। जो सच है, वह सच है। हर मरने वालों की मौत पर अफसोस करते रहें तो फिर हो गया बाकी का कामकाज। लोग बेघर हो जाएंगे, तो घर से बाहर पानी में डेरा जमा लिया। खेत छिन जाएगा, इस डर से फांसी लगा लिया। कहते हैं कि हम सत्याग्रह कर रहे हैं। क्यों कर रहे हैं। जब पानी में रह कर अपना निवाला जीव जंतुओं को बनने में कोई ऐतराज नहीं है तो फिर इस सत्याग्रह का मतलब क्या है? सत्याग्रह पर सत्याग्रह किए जा रहे हैं।
अब, अगर भूखे नंगे लोग यह कहें कि हम तब तक अन्न-जल ग्रहण नहीं करेंगे जब तक हमारे लिए खाने का इंतज़ाम ना हो जाएं, तो इस मज़ाक को गंभीरता से लेने की जरूरत है क्या? करोड़ों लोगों के पास घर नहीं है। वे जिंदा हैं कि नहीं? करोड़ों लोगों को दो वक़्त की रोटी नसीब नहीं होती है। उन्होंने कभी कोई शिकायत की है क्या? हमारा देश भूखे और नंगों का देश है। किस किस का ख़याल रखा जाए और किस तरह से। अगर, हर किसी की मजबूरियों पर ग़ौर किया जाने लगे तो ग़ौर करने वाले का माथा फट जाएगा। इसीलिए, सारे दुःख और संतापों का अंत करने के लिए अलग-अलग तरह की व्यवस्था की गई है। आपको अगर, किसी फैसले से दिक्कत है, अदालत का दरवाजा खटखटाइए। वहां सबको न्याय मिलता है। अब ये मत कहिए कि परिणाम आपके खिलाफ है तो यह अन्याय है। जब भी कोई विवाद होता है तो उस पर फैसला किसी ना किसी के खिलाफ तो जाएगा ही जाएगा। न्यायिक प्रक्रिया को जटिल बनाया ही इसीलिए गया है कि देर चाहे जितनी भी हो जाए, किसी के भी साथ अन्याय नहीं होना चाहिए।
सारी बातें लोग जानते हैं। अदालत की सीमाएं भी। जलस्तर बढ़ाए जाने की मजबूरियांे को भी। सरकार की विवशताओं के बारे में भी। फिर भी सत्याग्रह? क्यों? चलिए अच्छा है। जो काम सारी स्थितियां या फिर व्यवस्थाएं मिल कर नहीं कर पा रही हैं, उस काम को आप खुद ही आसान बना रहे हैं। सत्याग्रहियों को लगता है कि उनकी तकलीफों से भी किसी को फर्क पड़ सकता है। अगर, वे ऐसा सोचते हैं तो गलती किसकी है? सरकार की, अदालत की, हमारी संवदेन शून्य होने की या फिर उस व्यवस्था की जिसके लिए वे जिम्मेदार तो कतई नहीं है। सवालों का जवाब ढ़ूंढना व्यर्थ है। समाधान नहीं निकलने वाला। अब या तो सत्याग्रही अपनी मौत खुद मर जाएंगे और अगर बच गए तो दर-दर की ठोकरें खाएंगे। यही नियति है उनकी। बहुत बड़े अभिशाप हैं हम इस दुनिया के लिए। कोई हक़ नहीं है हमें जीने का। मगर, क्या करें, मौत भी आसानी से आती कहां है?