गिरिजा नंद झा
रामविलास पासवान गद्गदाए हुए हैं। गद्गद होने की उनके पास वज़हें भी हैं। भाजपा नेतृत्व वाली एनडीए घटक को अगर बिहार में जीत हासिल होती है तो कोई दलित ही वहां का मुख्यमंत्री होगा। ऐसा भाजपा वालों ने ही कह रखा है। रामविलास पासवान बिहार में दलितों के ‘स्वयंभू’ नेता हैं और दलितों के बीच वह अपना कद उतना ही ऊंचा मानते हैं जितनी मायावती उत्तर प्रदेश में खुद को मानती रही हैं। वैसे दोनों दलित नेताओं के बीच छत्तीस का आंकड़ा है। मगर, रामविलास पासवान शायद उस गलती को भूल गए होंगे, जब उन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी की भाजपा सरकार को अपना एक वोट देने से मना कर दिया था। उनकी हठधर्मिता की वज़ह से वाजपेयी की सरकार गिर गई थी। हालांकि, बाद में वही पासवान भाजपा की सरकार में लंबे समय तक मंत्री रहे और अबकी बार भी हैं। लेकिन, उस कहानी और आगे की जो पटकथा लिखी जानी है, उसमें बड़ा फ़र्क है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, एक तो अटल बिहारी वाजपेयी नहीं हैं। दूसरी यह कि भाजपा अब इतनी कमजोर पार्टी नहीं है कि पासवान जैसे निपट चुके नेताओं वाली पार्टी के बोझ को झेलने के लिए बाध्य हो। बिहार में पासवान को साथ ले कर चलने की रणनीति भले ही जातीय आधार पर बंटे बिहार के मतदाताओं को उनके जरिए भाजपा से जोड़ने की हो, मगर प्रधानमंत्री मोदी उन्हें बिहार की राजगद्दी दे कर कौन से ‘उपकार’ का बदला चुकाना चाहेंगे? हरियाणा और महाराष्ट्र में मुख्यमंत्री के चयन में जिस तरह की चयन प्रक्रिया को अपनाया गया, उसे जानते हुए इतना तो तय है कि मुख्यमंत्री के दौर में ना तो पासवान शामिल हैं और ना ही उनका चिराग।
पासवान अपने हिसाब से सारा हिसाब किताब लगा कर बैठे हुए हैं। अपने बेटे चिराग को बिहार का आखिरी चिराग बता रहे हैं। उनके हिसाब से गद्दी पर वह खुद बैठेंगे और कामकाज उनका बेटा संभालेगा। चिराग की सोच उन्हें दिव्य दृष्टि का अहसास कराता है। ख़ास कर पिछले लोकसभा चुनाव में लालू प्रसाद यादव के हाथ को झटक कर भाजपा के साथ चलने की सलाह पासवान को अपने बेटे चिराग से मिली थी। बेटे के इस लायक सोच ने पासवान को उनका कायल बना दिया। स्वाभाविक तौर पर वे बिहार में चिराग के लिए बड़ी संभावनाओं की आस लगाए बैठे हैं। इसका यह मतलब कतई नहीं कि वे चिराग को राजगद्दी पर बिठवाना चाहते हैं।
रामविलास पासवान राजनीति में विश्व रिकाॅर्ड बनाने वालांे में शामिल हैं। समाजवाद का मुखौटा थामे सबसे ज़्यादा वोटों से चुनाव जीतने का उनका रिकाॅर्ड आज भी कायम है। हालांकि, इस रिकाॅर्ड जीत को तो कभी दोहरा नहीं ही पाए, साथ ही, 2009 में बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री रामसुंदर दास ने उनको पटखनी दे कर उनके राजनैतिक गरूर को चकनाचूर कर दिया। धुर विरोधी लालू प्रसाद यादव के चरणों में लोट कर जैसे-तैसे राज्यसभा पहुंचे। कुछ भी कहिए, पासवान किस्मत के धनी हैं मगर, इतने भी नहीं कि बिहार की राजगद्दी उन्हें सौंप दी जाएगी।
रामविलास अपने नाम के ही अनुरूप विलासितापूर्ण जीवन जीने मंे यकीन करते हैं। पासवान जातिवादी विशेषण का इस्तेमाल तो वह मात्र दलितों को अपने साथ जोड़े रखने के लिए करते हैं। वरना, ऐसे विशेषणों से उन्हें सख़्त परहेज़ है। 2005 के बिहार विधानसभा चुनाव में 29 विधायक उनके क्या जीत गए, उसके बाद से जो उनका माथा गर्माया सो, सारे विधायकों के निपट जाने के बाद भी नहीं ठंडाया है। इस बार काफी हील हुज्जत के बाद तो मात्र 40 सीटें मिली हंै। भाजपा के साथ चुनाव लड़ने का यह मतलब कतई नहीं कि इस बार 10-15 सीटें जीत जाएंगे, 5-7 सीट मिल जाए, यही गनीमत होगी। बावजूद इसके, दलितों के नाम पर इतने उछल रहे हैं, जैसे भाजपा को कोई दलित नेता मिलेगा ही नहीं मिलेगा। अब, पासवान को कौन समझाए कि हर बार सपने सच नहीं हुआ करते। बिहार के मुख्यमंत्री बनने का उनका सपना मुंगरीलाल के हसीने सपने जैसा ही साबित होगा।