नहीं कोई “Open Letter”, है तो बस एक “बंद चिट्ठी”
अरे पगली!
जब बाप बेटे से, प्यार प्यार से,
कुछ लोग और कुछ लोगों से
आपस में कम और ‘सोसाइटी’ से ज्यादा जता रहे हैं,
की वो कितना प्यार करते हैं,
‘ईमेल’ से हो रहे इस मेल के बीच,
मोबाइल में रखे हजारों ऑफर,
और ‘शेयर’ हो रहे ‘सोशल पोस्ट’ के साथ,
जज़्बात और उससे भरे सबूत,
आसानी से ‘कैरी’ हो जाते हैं.
याद करता हूँ वो चिट्ठी जो तुम्हारे लिए लिखी थी,
कौन सी स्याही कौन सा पेन सोचने को भी-
कितनी रातें एक की थी.
जो सिर्फ मेरी बात नहीं,
खुशबू भी भिजवाती तुम तक;
चाहे – अनचाहे, पसंद-नापसंद में भी,
दिल से लगकर या गुस्से से फटकर भी,
मेरा ‘टच’ वो पंहुचा आती तुम तक.
बात फैले न, तुझे आंच भी न आये,
इसलिए अच्छे से चिपकाकर रक्खी कुछ चिट्ठियां,
आज भी अलमारी की सबसे नीची शेल्फ में बसी है.
जब तब खोल के देख लेता हूँ,
और आँख मूँद कर बस उन्हें साझा कर लेता हूँ.
आज भी वो अभी खिले फूल की तरह ताज़ा हैं,
आसुओं से कुछ अक्षर मिट गए हैं ये बतला देता हूँ.
इस ‘ओपन लैटर’ के दौर में भी,
बंद चिट्ठी पढने का मन हो तो बता देना,
ये आसानी से ‘कैरी’ न होंगी,
इन्हें अपने सिरहाने रख कर,
मेरी आवाज़ सुननी हो तो बता देना!
--by Abhaya Mishra
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