watsapp और FB के बीच,
कोई दोस्त छत पे चिल्लाके
बुलाता है,
तो लगता है इंसान हूँ मैं.
“ऑनलाइन फ़ूड” से अलग जब,
खाऊ गली से गुज़रते ज़लेबी हलवाई
महकाता है,
तो लगता है इंसान हूँ मैं.
डिस्काउंट कूपन और कार्ड
की उहापोह में,
जब मां को मारवाड़ी से २
रुपये बचाता देखता हूँ,
तो लगता है इंसान हूँ मैं.
अगल बगल रह के भी फोन कर
निपटा देता हूँ, से
जब केक काटने दोस्त घर
आता,
तो लगता है कि इंसान हैं “हम”.
क्यूंकि,
ऑनलाइन केक नहीं लगा करता,
कन्धा नहीं मिला करता,
रिश्ता नहीं बना करता,
सिर्फ “कम्युनिकेशन” होता है,
और याद “यादें” रहती हैं,
“मेसेज” तो डिलीट हो जाते हैं.
आ जाओ बारिश में चाय
बनाने कि होड़ में,
और कुछ आलस में,
ये याद करा दो कि,
अभी भी इंसान हूँ मैं.