सबके जाने के बाद पता नहीं संयोगिता को क्या हुआ, ऐसे ही खड़े खड़े गिरकर बेहोश हो गई__
रधिया भागकर आई, संयोगिता को उठाने के लिए शिवनन्दन सिंह भागकर अंदर से ठंडा पानी लेकर आए।।
रधिया ने पानी संयोगिता के चेहरे पर छिड़का, पानी पड़ते ही संयोगिता को होश आ गया।।
होश आते ही संयोगिता , रधिया से लिपटकर फूट-फूटकर रोने लगी और बोली।।
ये सब क्या हो गया? इसकी आशा नहीं थी मुझे, मैं तो बस बच्चे के साथ रहना चाहती थीं, उसके साथ रहकर मैं अपने सारे दुःख भूल गई थी लेकिन ये सब जो हुआ..... पता नहीं क्या लिखा है? मेरी किस्मत में!!
रधिया बोली, चुप हो जाओ बिटिया!! अब रोने से कुछ होने वाला ना हैं, ये समाज है बिटिया, यहां लोग चैन से जीने नहीं देते, अगर ठाकुर साहब तुम्हारी मांग नहीं भरते तो ये लोग और ना जाने कौन-कौन से लांक्षन लगाते तुम पर, शायद यही नियति थी और यही उस ऊपर वाले की मर्जी थी।।
लेकिन इन सब में मेरा क्या दोष, मैं तो सिर्फ मुन्ना की मां बनना चाहती थी लेकिन मुझे तो जबरदस्ती किसी की पत्नी बना दिया गया, ये कैसी नियति?ये नियति है या मेरा फूटा भाग्य, संयोगिता गुस्से से चीख पड़ी।।
संयोगिता गुस्से से उठी और कुएं से एक बाल्टी निकालकर अपने ऊपर उड़ेलकर बोली__
काकी!! नहीं बनना मुझे किसी की पत्नी, लो धुल गया सिंदूर, मैं किसी की ब्याहता नहीं हूं और अब मैं इस घर में भी नहीं रहूंगी, कल ही अपने घर लौट जाऊंगी, क्या हुआ जो कोई सदस्य नहीं है मेरे घर में, कम से कम घर तो है, वहां कम से कम कोई मुझ पर लांक्षन नहीं लगाएगा।।
काकी बोली__
चलो बिटिया पहले तुम अंदर चलकर अपने कपड़े बदल लो, अभी तुम्हारा मन अच्छा नहीं है, अभी तुम गुस्से में हो इसलिए ऐसा कह रही हो, बाद में ठंडे दिमाग से सोचना।।
शाम का समय है, धीरे धीरे अंधेरा भी गहरा रहा है लेकिन शिवनन्दन सिंह के घर में रोज की तरह चहल-पहल नहीं है, आज तो ना अभी तक घर में रोशनी हुई है और ना रसोई में चूल्हा बाला गया है।।
दीनू काका भी अपना काम कर रहे हैं, उधर मुन्ना बार बार संयोगिता से कह रहा है__
क्या हुआ मां? आज तुम बोल क्यों नहीं रही हो और इस तरह से अंधेरे में क्यों बैठी हो? चलो ना ।। मुझे भूख लगी है, खाना बना दो ना।।
मुन्ने की बात सुनकर शिवनन्दन जी बोले__
बेटा!! मुन्ना इधर तो आना..
क्या हुआ ? बाबा! आपने मुझे क्यों बुलाया? मुन्ने ने पूछा।।
कुछ नहीं बेटा!!आज तुम मेरे पास रहो, आज तुम्हारी मां की तबीयत ठीक नहीं है ना तो उसे आराम करने दो खाना मैं बनाएं देता हूं, शिवनन्दन सिंह बोले।।
ठीक है बाबा!! मुझे पता नहीं था कि आज मां की तबीयत ठीक नहीं है, अब मैं उसे परेशान नहीं करूंगा।। मुन्ना बोला।।
ठीक है, मेरा प्यारा मुन्ना, अच्छा बोल तो क्या खाना बनाऊँ तेरे लिए, शिवनन्दन सिंह ने मुन्ना से पूछा।
कुछ भी बना लो बाबा! मैं सब खा लूंगा, मुन्ना बोला।।
ठीक है, तू अब यही बैठ या बाहर दीनू काका के पास खेल लेकिन मां के पास मत जाना, शिवनन्दन बोले।।
ठीक है बाबा, मैं बाहर शेरू के साथ हूं और मुन्ना बाहर जाकर बाड़े में खेलने लगा।।
शिवनन्दन जी ने खाना बनाकर दीनू काका को परोस दिया और मुन्ना को भी दे दिया।।
मुन्ना के खाना खा लेने के बाद बोले लो मुन्ना अपनी मां को भी खाना खिला आ।।
ठीक है बाबा और इतना कहकर मुन्ना थाली लेकर संयोगिता के पास पहुंचा।।
लो मां खाना खा लो, मुन्ना बोला।।
नहीं बेटा, मुझे भूख नहीं है तू थाली ले जा, संयोगिता बोली।।
ठीक है और इतना कहकर मुन्ना थाली लेकर शिवनन्दन के पास चला आया।।
शिवनन्दन बोले, मुन्ना तू दीनू काका के पास जा, मैं तेरी मां को खाना खिलाकर आता हूं।।
और शिवनन्दन थाली लेकर संयोगिता के पास पहुंचे।।
माफ़ कीजिए, जो आज हुआ, वो होना नहीं चाहिए था, वो सब क्रोध वश हुआ, मुझे पता है कि आज आपको मेरी वजह से बहुत कष्ट हुआ लेकिन कृपा करके उसका गुस्सा आप खाने पर ना उतारे, शिवनन्दन बोले।।
क्रोधवश!! संयोगिता गुस्से में तमतमाते हुए बोली।।
ये आपने जानबूझकर किया है, आपके मन में बात आई भी कैसे कि मैं आपसे ब्याह कर सकती हूं, मैं किसी की विधवा हूं तो इसका मतलब ये नहीं कि कोई भी मुझ पर हक़ जताकर अपनी ब्याहता बना लेगा, मैं अपने पति से अब भी बहुत प्यार करती हूं और हमेशा उन्हीं से करती रहूंगी और मैं कल ही आपका घर छोड़ कर चली जाऊंगी, नहीं चाहिए आपकी खैरात, आपके घर में सर छुपाने की इतनी बड़ी क़ीमत मांग ली आपने।।
लज्जा नहीं आपको किसी विधवा की मजबूरी का फ़ायदा उठाते हुए, कुछ तो रहम किया होता यूं ही सबके सामने मेरी मांग में सिंदूर भर दिया, क्या जवाब दूंगी मैं अपनी अंतरात्मा को, मुझे खुद से घृणा हो रही है और ये खाना लेकर आप कौन सी सांत्वना देने आए हैं मुझे, जो आपको करना था वो तो आपने कर ही लिया, अभी इसी वक़्त मेरे सामने से चले जाइए, मैं अभी अपने आपे में नहीं हूं।।
और शिवनन्दन सिंह थाली लेकर वापस आ गए, उनकी आंखें भी भर आईं थीं शायद दो बूंद आंसू भी टपक गए जो उन्होंने फौरन पोंछ लिए ताकि कोई देख ना ले।।
उस रात शिवनन्दन सिंह भी बिना खाना खाए ही सो गए।।
दूसरे दिन सुबह का माहौल भी एकदम सुस्त सा था।।
रधिया ने अपना काम कर दिया और बोली बिटिया हम जा रहे हैं।।
संयोगिता बोली_काकी मैं भी आज यहां से चली जाऊंगी।।
रधिया बोली__ बिटिया! एक बात कहें, अब तुम्हारा इस बच्चे के सिवा कोई नहीं है, वहां जाकर भी तुम का करोगी, पता है अकेली औरत को ये समाज जीने नहीं देता, पता है बिटिया, हमने अपनी जिंदगी अकेले कैसे गुजारी है, ये हम ही जानते हैं, एक विधवा का कोई नहीं होता और फिर तुम दिल से चाहे ना मानो लेकिन समाज के सामने तो तुम ठाकुर साहब की ब्याहता हो।।
चांद सा बेटा मिल गया है तुम्हें और ठाकुर साहब भी दिल के बहुत अच्छे हैं, पूरा गांव उनकी इज्जत करता है, बस हमारे मन में जो बात थी वो हमने कह दी, आगे तुम्हारी मर्ज़ी, अब तुम्हें का करना है, ये तुम जानो, चली जाओगी तो ठीक और अगर नहीं जाओगी तो किसी अनाथ बच्चे की जिंदगी संवर जाएगी।।
अच्छा अब हम जाते हैं और इतना कहकर रधिया चली गई।।
रधिया की बातें सुनकर संयोगिता सोच में पड़ गई कि क्या फैसला ले ।।
संयोगिता सोच विचार मे थी कि वो यहां से जाए या नहीं तभी मुन्ना भागते हुए आया और बोला__
मां!!क्या तुम मुझे छोड़कर जा रही हो।।
नहीं!! मेरे मुन्ने, मैं तुम्हें छोड़कर भला कैसे जा सकती हूं और तुमसे ऐसा किसने कहा, संयोगिता ने मुन्ने से पूछा।।
वो ना रधिया काकी कह रही थी, मुन्ना बोला।।
रधिया काकी तो कुछ भी कहती हैं चल मैं स्नान करके आती हूं फिर नाश्ता भी तो बनाना है और ऐसा कहकर संयोगिता चली गई।।
स्नान करके उसने सूर्य भगवान को जल चढ़ाया और तुलसी चौरे की पूजा की तभी उसे रसोई से कुछ आवाज आती सुनाई दी उसने जाकर देखा तो शिवनन्दन सिंह नाश्ते की तैयारी कर रहे थे।।
संयोगिता ने कहा, चलिए आप सब छोड़िए, नाश्ता मैं बनाती हूं।।
आज बनाकर खिला देंगी आप लेकिन कल से तो मुझे ही बनाना है इसलिए आदत डाल रहा हूं क्योंकि आज तो आप चलीं जाएंगी, शिवनन्दन सिंह बोले।।
मैं कहीं नहीं जा रही अपने मुन्ना को छोड़कर, चलिए आप छोड़िए, संयोगिता बोली।।
और शिवनन्दन सिंह सब कुछ छोड़कर चेहरे पर हल्की सी मुस्कान लेकर बाहर चले गए।।
आज घर में थोड़ी रौनक थी क्योंकि सबके चेहरों पर मुस्कान थी।।
दोपहर होने को थी, तभी सुमित्रा कुछ सामान लेकर संयोगिता के पास आई।।
संयोगिता बहन!! मैं तुमसे कुछ कहने आई थी और कुछ देने।।
हां बहन!! बोलो, क्या बात है? संयोगिता ने सुमित्रा से पूछा।।
सुबह माता के मंदिर गई थी, वहां से ये लाल चूड़ियां, सिंदूर लाई हूं, लाओ तुम्हारी मांग में डाल दूं और ये लाल चूड़ियां तुम्हारी कलाइयों में पहना देती हूं, ताकि अब से कोई तुम पर उंगली ना उठा पाए, सुमित्रा ने संयोगिता से कहा।।
लेकिन बहन ये सब, मेरे लिए क्यों? अभी कल के सदमे से मैं उबर नहीं पाई हूं और आज तुम ये सब लेकर आ गई, संयोगिता दुःखी होकर सुमित्रा से बोली।
लेकिन बहन ये सब करने से अगर तुम पर लोग उंगली उठाना बंद कर देते हैं तो क्या बुराई है, ये सब करने से समाज का मुंह बंद होता है तो क्या बुरा है, सुमित्रा बोली।।
और सुमित्रा , संयोगिता की मांग में सिंदूर भरकर, कलाइयों में लाल चूड़ियां पहनाकर चली गई।।
संयोगिता फ़ौरन भागकर अंदर गई और आइने में खुद को देखने लगी, उसे आज फिर से अपनी मांग में सिन्दूर भरा देखकर, कलाइयों में चूड़ियां देखकर अच्छा लगा।।
तभी दोपहर का खाना खाने दीनू काका आ पहुंचे उन्होंने संयोगिता को इस रूप में देखकर कहा___
अच्छी लग रही हो बिटिया, भगवान!! तुम्हें हमेशा खुश रखे।।
और संयोगिता अपनी पलकें नीचे करके लजाते हुए बोली__
काका अभी खाना लेकर आती हूं।।
दीनू काका भी मन ही मन मुस्कुराते हुए बोले, बिटिया तुम्हारे लिए यही सही है, यहां तुम हमेशा खुश रहोगी, काश! तुम्हारे मन में मालिक के लिए भी प्रेम पनप जाए।।
संयोगिता ने सबके लिए खाना परोसकर, सबको बुलाया।।
शिवनन्दन सिंह खाना खाने रसोई में पहुंचे और संयोगिता का ऐसा रूप देखकर अंदर ही अंदर प्रसन्न हो गए।।
शाम को रधिया, बर्तन मांजने आई और संयोगिता से पूछ बैठी__
बिटिया!तुम गई नहीं।।
ना जा पाई, काकी!! मुन्ने का मुंह देखकर रह गई, संयोगिता ने जवाब दिया।
हम तो कहेंगे कि बिटिया तुम्हारे लिए यहीं सही है और आज मांग में सिंदूर भर अच्छी लग रही हो, हमेशा इसी तरह श्रृंगार में दिखो, हमारा आशीर्वाद है, रधिया काकी बोली।।
संयोगिता ने सुहागन की तरह रहना तो शुरू कर दिया था लेकिन शिवनन्दन सिंह को वो अभी भी माफ़ नहीं कर पाई थी अब संयोगिता को शिवनन्दन के घर में रहते दो महीने बीत गए थे, उसने बाड़े को हरा भरा बना दिया था, कई जगह फूलों के पौधे लगा दिए थे, कहीं पर गुलाब और गुड़हल के पौधे , कुछ मिर्च, बैंगन और धनिया भी लगा रखा था जो भी आता घर की शोभा देखकर मंत्रमुग्ध हो जाता और कहता, ठाकुर साहब सही कहा गया घर में बिना औरत के शोभा नहीं रहती।।
शिवनन्दन इतना सुनते और खुश हो जाते लेकिन अपने लिए अब भी संयोगिता की नाराज़गी देखकर उनका मन खिन्न हो जाता।।
वो जब कभी संयोगिता को दूर से निहारते रहते लेकिन जैसे ही संयोगिता उनकी तरफ देखती तो नज़रें दूसरी ओर फेर लेते, दीनू काका और रधिया की पारखी नजरों से ये सब छुपा नहीं था और दोनों ही चाहते थे कि संयोगिता और शिवनन्दन एक हो जाएं, उनके बीच की दूरियां मिट जाएं, अगर भगवान ने दोनों को जोड़ा हैं तो बीच में गांठ क्यो रह जाएं।।
ऐसे ही दिन बीतते जा रहे थे__
शिवनन्दन, संयोगिता को पसंद करने लगे थे और करें भी क्यो ना पसंद, संयोगिता जैसी सुघड़ गृहिणी ने उनके बच्चे और बिखरे हुए घर को जो संवार दिया था, संयोगिता के आने से अब उनका घर, घर जैसा लगने लगा था, उनके घर में संयोगिता का आना कुछ इस तरह से था जैसे कि मृत शरीर में प्राण आ गये हो।।
लेकिन संयोगिता शिवनन्दन सिंह के मन के भावों को समझकर भी अनदेखा कर रही थी, वो शिवनन्दन सिंह को मन से क्षमा नहीं कर पा रही थी, लेकिन कभी कभी सोचती भी थी कि प्रधान साहब ने इतना बड़ा भी अपराध नहीं किया है जो क्षमा ना किया जा सके, उस समय उनके पास भी तो इसके सिवा और कोई चारा नहीं था, ऐसा तो नहीं कि मैं उनसे बेवजह नाराज हूं।।
बस ऐसे दोनों के मन में उलझनों भरे भाव थे लेकिन एक-दूसरे से दोनों व्यक्त करने में असमर्थ थे।।
तभी एक रोज शिवनन्दन सिंह के एक दोस्त के घर से शादी का न्यौता आया, शिवनन्दन सिंह के दोस्त की भतीजी की शादी थी, दोनों दोस्त बचपन से दोस्त थे और साथ में पढ़ें भी थे।।
न्यौता मिलते ही शिवनन्दन सिंह ने संयोगिता से कहा कि__
सुनिए___
संयोगिता थोड़ा ऐंठ कर बोली__
जी कहिए, मेरे पास ज्यादा समय नहीं है__
वो मैं ये कह रहा था कि मेरे दोस्त की भतीजी की शादी है और हमें उसे अवश्य ही आशीर्वाद देने जाना पड़ेगा तो आप जरा तैयारी कर लेती और जो भी आपको खरीदना है तो सुमित्रा भाभी के साथ बाजार जाकर ले आइए।।
ये रहें रूपए और बिटिया के लिए ब्याह में देने के लिए कोई तोहफा भी खरीद लिजिएगा और हो सके तो आज और कल मे सारी तैयारी हो जाए क्योंकि परसों हमें निकलना होगा, शिवनन्दन ने संयोगिता से कहा।।
संयोगिता फिर तुनक कर बोली__
ठीक है.. ठीक है.. मैं सब कर लूंगी लेकिन दीनू काका का क्या होगा, उनके लिए खाना कौन बनाएगा।।
आप चिंता ना करो करें, मैं उनका कुछ ना कुछ इंतजाम कर दूंगा , शिवनन्दन सिंह बोले।।
और संयोगिता ने सुमित्रा को बुलवा लिया__
सुमित्रा बहन, हमलोगों को एक शादी में जाना है तो क्या आप मेरे साथ खरीदारी के लिए चल सकती है, संयोगिता बोली।।
हां.. हां..क्यो नही, ये भी कोई पूछने वाली बात है, सुमित्रा बोली।
लेकिन बहन एक समस्या है, अगर मैं शादी में चली गई तो दीनू काका के खाने क्या होगा, संयोगिता बोली।।
बस इतनी सी बात, वो मैं सब देख लूंगी, तुम चिंता मत करो, जाने की तैयारी करो, सुमित्रा बोली।।
सुमित्रा और संयोगिता ने साथ मिलकर खरीदारी पूरी कर ली।।
जिस रोज संयोगिता को जाना था तो रधिया बोली__
ठहरो!! बिटिया, हम सुमित्रा बिटिया को बुला कर लाते हैं, वो ही तुम्हें ठीक से तैयार करेंगी।।
और सुमित्रा आ पहुंची संयोगिता को तैयार करने___
सुमित्रा को आते हुए देखकर शिवनन्दन सिंह बोले__
सुमित्रा भाभी!! उनसे कहिए कि जो संदूक में गहने रखें हैं, वो भी पहन लें, मैं कहूंगा तो नहीं पहनेंगी लेकिन आप कहेंगी तो आप की बात मान लेंगी।।
ठीक है भाईसाहब!! आप चिंता ना करें, मैं मना लूंगी और कुछ भी कहना है तो कह दूं उनसे कि आपने कहा है।।
सुमित्रा ने शिवनन्दन से ठिठोली करते हुए मुस्कुरा कर कहा।।
शिवनन्दन सिंह अपने सर पर हाथ फेरते हुए शरमाते हुए बोले__
कैसी बातें कर रही है? भाभी!!
और इतना कहकर बाहर चले गए।।
सुमित्रा ने संयोगिता को तैयार किया और खुद ही देखकर बोली__
लाओ तो जरा काजल का टीका लगा दूं, कहीं नजर ना लगे जाए।।
तभी मुन्ना और मीठी भी आ पहुंचे__
मां!!आज तुम कितनी सुंदर लग रही हो, मुन्ना बोला।।
रधिया बोली__
कसम से बिटिया बहुतई ज्यादा खूबसूरत लग रही हो, भगवान करें तुम्हारा श्रृंगार ऐसे ही बना रहे।।
वाकई में संयोगिता का रूप-लावण्य आज देखने लायक था, बीच से मांग निकालकर बड़ा सा जूड़ा, माथे पर मांग टीका, कानों में झुमके, गले में पांच लड़ियों का सीतारामी हार, गहरे बैंगनी रंग की बनारसी भारी सी साड़ी, हाथों में चूड़ियां के साथ सोने के कंगन, कमर में कमरबंद और पैरों में पायल, आज संयोगिता किसी महारानी से कम नहीं लग रही थी।
तभी मुन्ना बाहर से शिवनन्दन सिंह का हाथ पकड़कर अंदर लाकर बोला__
देखो ना बाबा!!आज मां कितनी सुंदर लग रही है।।
शिवनन्दन सिंह ने जैसे ही संयोगिता को देखा तो कुछ बोल ही नहीं पाए और बस एकटक संयोगिता को निहारते रह गए।।
मुन्ना फिर बोला__
बोलो ना बाबा मां सुंदर लग रही है ना!!
शिवनन्दन ने सर हिला कर हां मे जवाब दिया।।
मुन्ना बोला__
ऐसे नहीं बाबा!! मुंह से बोलो कि सुंदर लग रही है।।
अरे हां, आज तेरी मां बहुत सुंदर लग रही है और इतना कहकर शिवनन्दन सिंह बाहर चले गए।।
रधिया और सुमित्रा ने शिवनन्दन के भावों को बहुत अच्छे से पढ़ लिया था।।
तांगे पर सामान चढ़ाया जा चुका था, बस सब निकलने ही वाले थे।।
बाहर आकर संयोगिता ने सुमित्रा से कहा__
अच्छा बहन चलती हूं, दीनू काका का ख्याल रखना और इतना कहकर संयोगिता तांगे पर बैठ गई।।
तांगा चल पड़ा अपनी मंजिल की ओर, तीस-चालीस किलोमीटर का सफर था, रास्ता भी बहुत सुहावना था, कहीं तो पानी से भरे हुए पोखर मिलते और उन पर गहरे गुलाबी बेसरम के फूल तैरते हुए नजर आ जाते , तो कहीं खेतों में काम करते हुए लोग नजर आ जाते, कहीं पेड़ों की घनी छाया मिलती थी तो कहीं झाड़ियों का बिर्रापन, रास्ता भी इतना अच्छा नहीं था कहीं कहीं तो बहुत ही ऊबड़-खाबड़ था, तांगा भी अपना संतुलन खो बैठता था तो तब शिवनन्दन सिंह तांगे से उतर जाते, इसी के चलते संयोगिता का पल्लू भी बार बार गिर रहा था, ऊपर से उसे इतनी भारी साड़ी पहनने की आदत नहीं थी और जब भी संयोगिता का पल्लू गिरता शिवनन्दन सिंह कनखियों से संयोगिता को निहार लेते ।।
ये सब संयोगिता भी महसूस कर रही थी लेकिन साथ में नजरंदाज भी कर देती।।
तभी तांगेवाला बोला___
ठाकुर साहब अब थोड़ी देर सुस्ता लेते हैं, देखते हैं अगर कोई कुंआ दिखता है तो किसी पेड़ के नीचे तांगा खड़ा कर देते हैं।।
शिवनन्दन सिंह बोले__
जी बिल्कुल और कुछ जलपान भी गृहण कर लेंगे, सबको भूख भी लग आई होंगी और अभी वहां पहुंचने में ना जाने कितना समय लगे।।
तभी एक जगह एक कुआं दिखा और वहां पेड़ों की घनी छाया भी दिखाई दी, तांगे वाला बोला, ये जगह ठीक दिख रही यहां तांगा रोक दे और शायद वहां पहले से ही एक तांगा और भी खड़ा है।।
हां.. हां क्यो नही, मुझसे पूछने की क्या जरूरत है, आप को अगर जगह ठीक लग रही है तो तांगा रोक दीजिए, शिवनन्दन सिंह बोले।।
तभी तांगेवाले ने तांगा रोक दिया लेकिन परिचय हुआ तो वो दूसरे तांगे वाले तो गांव के ही निकले और वो परिवार भी उसी शादी में जा रहा था लेकिन उनको यहां रूके हुए बहुत देर हो गई थी तो उन्होंने शिवनन्दन सिंह कहा कि हम अब चलेंगे, आप लोग विश्राम कीजिए।।
और इतना कहकर वो लोग चले गए।।
तांगेवाले ने अपने तांगे में रखी बाल्टी उठाकर पानी निकाला, सबने हाथ पैर धुले।
फिर संयोगिता ने आलू की सब्जी और पूडियां निकाली साथ में आम का आचार भी जो वो घर से बना कर लाई थी, सबने साथ में भोजन किया और थोड़ी देर विश्राम करने के बाद तांगा फिर अपने गंतव्य की ओर चल पड़ा।।
गहरी दोपहरी चढ़ आई थी, सूरज भी गर्मी फेंक रहा था।।
अब मुन्ना, संयोगिता की गोदी पर सर रखकर सो गया था और अब संयोगिता की भी बार बार आंख झपक रही थीं और सब शिवनन्दन सिंह देख रहे थे।।
फिर से एक बार संयोगिता की आंख झपकी लेकिन इस बार शिवनन्दन सिंह ने अपने कंधे का सहारा देकर संयोगिता के सर को टिका लिया कि संयोगिता ठीक से सो पाए।।
और ऐसे ही सफ़र जारी रहा।।
थोड़ी देर बाद संयोगिता की आंख खुली, उसने देखा कि वो शिवनन्दन सिंह के कांधे से टिकी हैं तो झटपट अपना सर उनके कांधे से हटाकर शिवनन्दन को घूर कर देखा।।
शिवनन्दन सिंह भी मुस्करा कर दूसरी ओर देखने लगे।।
अब शाम भी होने वाली थी और रास्ता भी पार हो चुका था, मुश्किल से दो तीन कोस बचा होगा।।
तभी संयोगिता ने कहा___
रोको.. रोको तांगा रोको।।
शिवनन्दन सिंह ने पूछा__
क्या हुआ?
संयोगिता बोली__
मैंने मोर देखा अभी , मुझे उसे करीब से देखना है।।
शिवनन्दन सिंह, संयोगिता की इस तरह की बचकानी हरकत देखकर हंस पड़े।।
शिवनन्दन सिंह का अपने ऊपर ऐसा हंसना देखकर संयोगिता चिढ़कर बोली__
बढ़ाइए तांगा, अब मुझे कुछ नहीं देखना।।
शिवनन्दन बोले, नहीं.. नहीं..अब हम मोर देखकर ही जाएंगे।।
अरे, चलिए उतरिए तांगे से।।
और सब उतर कर मोरो के झुंड को देखने लगे।।
अंधेरा गहराने तक तांगा शादी वाले घर मेहमानों को लेकर जा पहुंचा, दरवाजे पर पहुंचते ही संयोगिता ने अपना घूंघट थोड़ा लम्बा कर लिया।।
शिवनन्दन सिंह अपने दोस्त धरमवीर से गले मिले और बड़े बुजुर्गो के चरणस्पर्श किए और संयोगिता ने भी बड़ों के चरणस्पर्श किए।।
अरे मित्र!!ये सब कब हुआ और हमें बताया भी नहीं, धरमवीर सिंह बोले।।
बहुत लम्बी कहानी है मित्र, आराम से बैठकर सुनाता हूं, शिवनन्दन सिंह बोले।।
और कुछ महिलाएं संयोगिता को अपने साथ अंदर लेकर चली गई और शिवनन्दन अपने मित्र धरम के साथ जा बैठे।।
शिवनन्दन सिंह ने जलपान गृहण करते करते सारी कहानी कह डाली,
धरम सिंह बोले, अच्छा तो ये सब अचानक ही हो गया, लेकिन ये बताओ अब तो सब ठीक है ना!!भाभी ने तुम्हें स्वीकार कर लिया या नहीं, तुझसे प्रेम करने लगी है या नहीं!!
पता नहीं, शिवनन्दन सिंह ने उत्तर दिया।।
पता नहीं!!इसका क्या मतलब, हां या ना, धरम सिंह ने पूछा।।
हां, मित्र!! कुछ पता नहीं, शिवनन्दन सिंह ने उत्तर दिया।।
और तुम्हारी तरफ से, धरम ने फिर पूछा।।
वो भी पता नहीं अभी पूरी तरह से, उन पर निर्भर है सबकुछ, बस जिस दिन उन्होंने मुझे स्वीकार कर लिया तो मैं भी ना नहीं करूंगा, शिवनन्दन सिंह बोले।।
मतलब आपको कोई एतराज़ नहीं, आप शायद भाभी को पसंद करने लगे, धरम सिंह बोले।।
और इसी दोनों का वार्तालाप जारी रहा।।
संयोगिता को महिलाएं भीतर ले गई__
धरम सिंह जी की पत्नी बोली___,
आओ बहन !!संकोच मत करो, भाईसाहब ने दूसरा ब्याह भी कर लिया और हमें बुलाया भी नहीं, धरम सिंह की पत्नी रूक्मणी ने संयोगिता को उलाहना दिया।।
वो क्या है जीजी, सब इतनी जल्दबाजी में हुआ कि किसी को बुलाने का मौका नहीं मिला, संयोगिता अपनी सफाई में बोली।।
तभी शिवनन्दन सिंह जी के गांव से आने वाले मेहमान जिनका तांगा रास्ते में मिला था उनकी पत्नी जानकी बोली____
क्यो झूठ बोलती हो बहन!! अचानक से सब कैसे हो गया, मैं आप सब को सच्चाई बताती हूं।।
हुआ यूं कि ये नदी किनारे बेहोशी में मुन्ना को मिली थी और मुन्ना इन्हें अपनी मां समझकर घर ले आया, जब गांव के बड़े बुजुर्गो ने प्रधान जी पर उंगली उठाना शुरु कर दिया तो एक दिन प्रधान जी ने गुस्से में आकर इनकी मांग भर दी।।
मर्दो का क्या है और फिर अपने से आठ दस साल छोटी पत्नी मिले तो कोई भी मर्द शादी करने को राजी हो जाएगा।।
तभी रूक्मणी बोली__
कैसी बातें कर रही हो बहन!! बिना बात के किसी के बारे में ऐसे नहीं बोलते, जो भी हो अब तो ये भाईसाहब की ब्याहता हैं।।
जानकी बोली___
कोई किसी को मजबूरी में ब्याहता बनाता है और कोई मजबूरी में ब्याहता बनता है अब ये तो वो ही जाने भला मैं कैसे किसी के मन की जान सकती हूं।।
रहने दीजिए!!जानकी बहन, यहां सब बिटिया को आशीर्वाद देने आए हैं, शादी अच्छे से निपट जाएं बस, रूक्मणी बोली।।
अरे, भाई!! मुझे क्या लेना-देना दुनिया दारी से, वो तो मैं ग़लत को ग़लत और सही को सही कह रही थी और इतना कहकर जानकी वहां से चली गई।
खड़े खड़े संयोगिता की बड़ी बड़ी आंखों से टप टप आंसू गिरने लगे।।
रूक्मणी बोली, चलो हटाओ बहन!! तुम भी क्या? अपना मन खराब कर रही हो, लोग तो कुछ भी कहते रहते हैं, चलो हाथ मुंह धोकर कपड़े बदल लो, बहुत भारी साड़ी पहन रखी है, इसमें काम भी नहीं करते बनेगा, जब कल बारात का समय हो तब फिर से पहनकर अच्छे से तैयार हो जाना और इतना सुन्दर चेहरा उदास अच्छा नहीं लगता जरा मुस्कुराओ तो...
और रूक्मणी की बात सुनकर संयोगिता मुस्करा दी, कपड़े बदल कर काम काज में लग गई।।
उस दिन सारे नेगचार निपटने के बाद रात्रि का भोजन शुरू हुआ, खाने में चने की दाल, कढ़ी पकौड़ी, चने का साग, कद्दू की सब्जी, भरी हुई मिर्च का आचार, बूंदी का लड्डू, चावल और रोटी थी, पहले पुरुष और फिर महिलाएं की पंगत लगी।।
खाने के बाद सब फुर्सत थे तभी रूक्मणी, संयोगिता से बोली__
चलो बहन, बन्नी के मेंहदी तो लगा दो।।
संयोगिता खुश होकर बोलीं__
हां.. हां..क्यो नही!!
तभी रूक्मणी की जेठानी वहां आकर बोली__
कैसी बातें कर रही हो?रूक्मणी!!, पता है ये पहले विधवा थी और दूसरी शादी में ना पंडित था और ना फेरे हुए तो कैसी शादी और कैसी ब्याहता, इसके हाथों से मेरे बेटी को मेंहदी लगवाओगी, मुझे इनके गांव की जानकी ने सब बता दिया है।।
रूक्मणी बोली, ये सब बीती बातें हैं, जीजी!!
नहीं ये सब मैं मानती हूं, रूक्मणी की जेठानी बोली।।
ये सब सुनकर तब तक मुन्ना शिवनन्दन सिंह को अंदर लाकर बोला___
बाबा!! इन काकी ने मां के बारे में कुछ कहा और मां की आंखों से आंसू निकल पड़े ।।
तभी रूक्मणी की जेठानी बोली__
क्या ग़लत कहा मैंने, ना पंडित, ना फेरे और ना बाराती तो फिर कैसी शादी?
तब तक धरम सिंह भी वहां आ पहुंचे।।
क्षमा करना मित्र!! मैं यहां अब एक क्षण भी नहीं रुक सकता, शिवनन्दन सिंह बोले।
लेकिन क्यो मित्र? धरम सिंह ने शिवनन्दन से पूछा।।
जहां मेरी पत्नी का अपमान हो, वहां मैं कैसे रूक सकता हूं, मैं अभी इसी समय अपने परिवार सहित यहां से जा रहा हूं, क्षमा करना मित्र!!आप जब भी कहेंगे, मैं आपके हर कार्य के लिए हमेशा तत्पर रहूंगा लेकिन अभी आज्ञा दीजिए।।
उन्होंने संयोगिता से अंदर से सामान लाने को कहा और उसी समय धरम सिंह से हाथ जोड़ क्षमा मांगी और तांगे पर परिवार सहित जा बैठे।।
ये सब देखकर, संयोगिता के मन में शिवनन्दन के प्रति प्रेम के बीज ने अंकुर का रूप ले लिया था।।
धरम सिंह का घर गुस्से में छोड़ तो दिया लेकिन रात का समय और इतना लम्बा सफ़र, ज्यो ज्यो तांगा गांव छोड़ता था रहा था तो डर भी बढ़ता चला जा रहा था, डर सभी रहे थे लेकिन एक-दूसरे से व्यक्त नहीं कर रहे थे।।
भगवान का शुक्र था कि उस दिन उजियारी रात थी मतलब चांद की रोशनी पूर्णतः धरती पर पड़ रही थी लेकिन चाहे जो हो रात तो रात होती है, कहीं उल्लू की आवाज डरा जाती तो झाड़ियों में सांप-गोहेरो के सरसराने की आवाज सुनाई दे जाती फिर भी सफर जारी था क्योंकि रूकने का भी कोई फ़ायदा नहींछ था।।
तभी अचानक ना जाने कहां से दो तीन डाकू झाड़ियों से बड़ी बड़ी कटारों के साथ निकले और तांगा रूकवाकर तांगेवाले और शिवनन्दन को पकड़ लिया और बोले क्या क्या सामान है निकालो।।
शिवनन्दन सिंह ने अपनी घड़ी, अंगूठी, चेन और बटुआ निकाल कर दे दिया।।
उनमें से एक बोला, तांगे में जो भी महिला हो उससे कहो अपने सब गहने दे-दे नही तो अभी तुम्हारा गला रेंत दूंगा।।
ये सुनकर संयोगिता तांगे से उतरकर आई और बोली ऐसा ना कहें भाई जी, ये रहे मेरे सारे गहने और कृपा करके इन्हें छोड़ दीजिए।।
डाकू बोला तुमने हमें भाई कहा है बहन! बिना गाली के हमसे कोई बात नहीं करता, तुम चिंता मत करो, हमें तुम्हारा कुछ नहीं चाहिए, हम तुम्हें कोई भी नुकसान नहीं पहुंचाएंगे और हम में से कोई एक तुम लोगों को तुम्हारे गांव तक छोड़ कर आएगा क्योंकि आगे और भी डाकू मिल सकते हैं।।
और ऐसा ही हुआ, आधी रात तक सब घर पहुंच गए।।
संयोगिता ने शिवनन्दन सिंह से पूछा, ऐसा भी क्या गुस्सा कि आधी रात को शादी का घर छोड़ दिया।।
था कुछ कारण किसी का दिल जीतना था जो अभी तक नहीं जीत पाया, किसी को मुन्ने की मां कहने का हक़ पाना है, शिवनन्दन सिंह बोले।।
ये सुनकर संयोगिता शरमा गई।।
फिर शिवनन्दन सिंह ने पूछा, आप भी तो अपनी जान जोखिम में डालकर तांगे से उतर पड़ी।।
हां, मुझे भी तो किसी का दिल जीतना था ताकि मैं भी किसी को मुन्ने के बाबा कह सकूं, संयोगिता बोली।।
तो बनोगी मेरे मुन्ने की मां, करोगी एक बार सबके सामने मुझसे ब्याह..., शिवनन्दन सिंह ने संयोगिता से पूछा।।
और संयोगिता शरमाते हुए शिवनन्दन सिंह के गले लग गई, आज दोनों दिल से एक-दूसरे के हो गए थे।।
और मुन्ना को सदा के लिए मां का स्नेह मिल गया था।।
समाप्त....
सरोज वर्मा....