ऐसे ही हफ्ते भर बीते थे कि राजदेव ने संयोगिता को फिर बाजार में देखा, संयोगिता बहुत ही जल्दबाजी में थीं, बहुत घबराई हुई थी, राजदेव को देखकर बोली चलिए मेरे साथ जल्दी घर चलिए अच्छा हुआ आप मिल गए, मैं तो डाक्टर साहब को बुलाने आई थी।।
राजदेव ने घबराकर पूछा _लेकिन किसलिए, क्या हुआ?
मामी छत से उतरते हुए सीढ़ियों से गिर पड़ी है, उन्हें अभी तक होश नहीं आया है इसलिए बस आप इसी वक्त घर चलिए।।
राजदेव और संयोगिता, डाक्टर के साथ घर की ओर चल पड़े, डाक्टर ने बसंती का मुआयना किया, बसंती को होश तो आ गया था लेकिन उसके सर में बहुत गहरी चोट लगी थी, उसे अब महसूस हो चुका था कि वो अब बचने वाली नहीं है, सारा मुहल्ला इकट्ठा हो चुका था, केशव लाल भी पहुंच चुके थे।।
उस समय बसंती की आंखों में पाश्चाताप के आंसू थे, उसने संयोगिता और राजदेव को इशारे से अपने पास बुलाकर, एक-दूसरे के हाथों को मिलाते हुए, आंखों के ही इशारों से माफ़ी मांगी और बिना कुछ बोले ही प्राण त्याग दिए।।
संयोगिता फूट फूट कर रो पड़ी___
केशव लाल जी बोले, चलो अपने अंतिम समय में ही एक भलाई का काम तो करके गई बसंती, शायद भगवान को यही मंजूर था, भगवान उसकी आत्मा को शांति दे और ऐसा कहते हुए, केशव लाल जी के आंखों से दो बूंद आंसू टपक पड़े।।
बसंती के अंतिम संस्कार के दिन सदाशिव लाल जी भी आए, उन्होंने संयोगिता और केशव लाल जी को ढांढस बंधाया कि भगवान के आगे किसकी चलती है शायद ऊपरवाले को यही मंजूर था।।
अब तक बसंती की तेरहवीं भी हो चुकी थी।।
एक दिन केशवलाल जी ने सदाशिव लाल जी और राजदेव को खाने पर बुलाया और बोले आज आप लोगों को खाने पर बुलाने का कारण था चूंकि राजदेव की छुट्टियां अब ज्यादा शेष नहीं रह गई हैं तो मैं चाहता हूं कि राजदेव और संयोगिता की सगाई कर दी जाए और फिर बसंती की भी यही इच्छा थी।
सदाशिव लाल जी बोले, आपने मेरे मुंह की बात छीन ली, मैं भी आपसे यही कहना चाहता था लेकिन संकोचवश कह नहीं पाया क्योंकि भाभी को गए हुए अभी महीने भर भी नहीं हुए, ऐसे में ऐसी बातें कहना मुझे उचित नहीं लगा।।
केशव लाल जी बोले, मैं कुछ दिन के लिए टाल तो देता लेकिन फिर राजदेव की छुट्टियां भी खत्म होने वाली है और फिर अगली छुट्टी मिलने तक काफी देर हो जाएगी और फिर बसंती की भी यही आखिरी इच्छा थी कि दोनों एक हो जाएं।।
सदाशिव लाल जी बोले तो फिर ठीक है परसों ही हम इन दोनों की सगाई कर देते हैं और शादी तब करेंगे जब अगली बार राजदेव छुट्टियों में घर आएगा।।
केशव लाल जी बोले, बहुत बढ़िया मित्र, तो ठीक है परसों सगाई का दिन पक्का हो गया, अब बस सिर्फ कल का ही दिन शेष बचा है, आप लोग ऐसा करें, आज और कल मेरे घर भी रूक जाए, कल आप अपने शहर जाएंगे फिर परसों वापस आएंगे तो बहुत समय बर्बाद होगा।
सदाशिव लाल जी बोले बहुत अच्छा मित्र, जैसी आपकी इच्छा, हमें क्या परेशानी हो सकती है भला!!
दूसरे दिन सारा समय खरीदारी और तैयारियों में ही निकल गया, शाम को सब बहुत थक चुके थे, संयोगिता ने जल्दी से शाम की चाय बनाई फिर रात के खाने की तैयारी करने लगी।।
केशव लाल जी बोले, संयोगिता बेटा!!तू भी तो बहुत थक गई होगी, मैं कुछ मदद करूं तेरी!!
नहीं, मामा जी मैं सब कर लूंगी, बस आप थोड़ी सब्जियां काटने में मदद कर दीजिए, संयोगिता बोली।।
केशव लाल जी बोले, संयोगिता बिटिया, आज ऐसा करते हैं यहीं आंगन में कच्चा चूल्हा जलाकर, थोड़े बैंगन, कुछ आलू-टमाटर भूनकर भरता बनाते हैं और सर्दियों का मौसम है तो चूल्हे की सिकी रोटी पर ढेर सारा घी डालकर खाने में बहुत मजा आएगा।।
सब बोले, बिल्कुल ठीक है और ऐसा ही हुआ, आंगन में चूल्हा जलाया गया और संयोगिता अपना काम करने में लग गई।
चूल्हे से उठ रही आग की सुनहरी लपटों की रोशनी में संयोगिता की खूबसूरती और भी निखर कर आ रही थी, वो कभी अपने गालों पर आ रही लटों को सम्भालती तो कभी आंखों में लग रहे धुएं की जलन से आंखें अपने दुपट्टे से पोछतीं।।
और राजदेव तो बस संयोगिता को निहारने में लगा था, वो आज बहुत खुश था कि कल संयोगिता के साथ मेरी सगाई हो जाएगी लेकिन अभी तक उसे संयोगिता के दिल की बात पता नहीं चली थी और वो संयोगिता के मन की बात जानना चाह रहा था।।
रात का खाना खाने के बाद केशव लाल और सदाशिव लाल जी दिन भर के थके थे तो जल्द ही सो गए, संयोगिता बर्तन धोने के लिए हैंडपंप से पानी भरने जा ही रही थी कि राजदेव ने कहा आप छोड़िए, मैं बाल्टी भर देता हूं..!
संयोगिता बोली, छी...छी..आप काम मत कीजिए, आप मेहमान है..!!
मेहमान तो आप हैं, हमारे दिल की, पता नहीं हमारे दिल में कब रहने आएगीं?रा जदेव ने संयोगिता को छेड़ते हुए मुस्कुरा कर कहा__
संयोगिता बस शरमाकर रह गई, कुछ बोल नहीं पाई।।
राजदेव, संयोगिता की खामोशी देखकर बोला, कहिए ना !! आप मुझे पसंद तो करतीं हैं।।
संयोगिता ने शरमाते हुए, अपनी पलकें झुका लीं।।
राजदेव ने फिर पूछा, इसका मतलब मुझे समझ नहीं आया, हां समझूं या ना।।
राजदेव ने कहा, कोई बात नहीं, जो भी आपकी मर्जी है वो आप सुबह तक एक चिट्ठी में मुझे लिखकर दे सकतीं हैं और इतना कहकर राजदेव सोने चला गया।।
सुबह होते ही संयोगिता ने राजदेव को एक चिट्ठी दी जिसमें उसने हां में अपना जवाब दिया था।।
राजदेव के मन से अब सारी शंकाएं दूर हो गई थीं।।
राजदेव और संयोगिता की सगाई भी हो चुकी थी और राजदेव की छुट्टियां भी खत्म हो चुकीं थीं अब राजदेव को वापस जाना था।।
बहुत ही दुःखी मन से संयोगिता ने राजदेव को विदा किया, राजदेव के जाने के बाद संयोगिता और राजदेव एक दूसरे को चिट्ठी लिखकर अपने अपने मन का हाल बताने लगे।।
ऐसे ही समय बीतता गया और राजदेव के दोबारा घर आने का समय हो गया, राजदेव के वापस आने की खबर से संयोगिता बहुत खुश हुई, राजदेव जिस दिन घर आया उसी रोज संयोगिता से मिलने आ पहुंचा।।
और दो चार दिन के अंदर ही दोनों का ब्याह भी हो गया, दोनों अपनी घर-गृहस्थी में बहुत खुश थे, किस तरह राजदेव की छुट्टियां बीत गई दोनों को पता ही नहीं चला।।
राजदेव फिर वापस चला गया, इधर संयोगिता उसके आने का फिर से बेसब्री से इंतजार करने लगी।।
लेकिन होनी को कुछ और ही मंज़ूर था, बाढ़ पीड़ितों के बचाव कार्य में राजदेव की ड्यूटी लगी थी, उसने अपनी हिम्मत और सूझबूझ से बहुत से लोगों की जान बचाई लेकिन एक दिन पानी का बहाव इतना ज्यादा था कि एक बच्चे को बचाते हुए राजदेव खुद को ना सम्भाल सका और डूब गया, दो दिन के बाद बड़ी मुश्किल से उसका मृत शरीर मिला।
संयोगिता पर तो जैसे दुखों का पहाड़ ही टूट पड़ा, वो खुद को सम्भालती या अपने बूढ़े ससुर को दिलासा देती उसकी हिम्मत तो जैसे टूट ही चुकी थी, बस चंद लम्हों की ही खुशियां लिखी थी भगवान ने उसके नसीब में।।
जैसे तैसे राजदेव का अंतिम संस्कार किया गया, केशव लाल जी और सदाशिव लाल, हरिद्वार गए राजदेव की अस्थियों का विसर्जन करने ।।
लेकिन कहते हैं ना जब दुखों का पहाड़ टूटता है तो एक साथ टूटता है, लौटते समय उनकी रेलगाड़ी दुर्घटना ग्रस्त हो गई, संयोगिता को ये खबर पता चली।।
वो बदहवास से अपने मामा और ससुर जी को ढूंढने गई, पूरे दिन पागलों की तरह लगी रही तब जाकर उसे अपने मामा का मृत शरीर मिला और दूसरे दिन ससुर जी का।।
अब तो संयोगिता के आगे कोई भी रास्ता नहीं रह गया था, किसे अपना कहती, कोई तो नहीं बचा था उसे अपना कहने वाला, उसे अब समझ नहीं आ रहा था कि अब वो क्या करें, कोई भी रास्ता नहीं सूझ रहा था, एक ही पल में उसकी दुनिया उजड़ गई थी, वो अपने दिमाग का संतुलन खो बैठी थी और इसी असमंजस में उसने नदी में छलांग लगा दी....!!
संयोगिता, बेहोश होकर बेसुध सी नदी किनारे पड़ी हुई थी, तभी एक बच्चा अपने दोस्त शेरू के साथ वहां जा पहुंचा।।
शेरू, संयोगिता को देखकर भौंकने लगा, बच्चे को थोड़ा समय लगा ये समझने में कि शेरू भौंक क्यो रहा है, उसने शेरू की रस्सी छोड़ दी, बच्चे ने जैसे ही शेरू की रस्सी अपने हाथ से छोड़ी, शेरू भागकर संयोगिता के पास जा पहुंचा।
शेरू के पीछे-पीछे वो बच्चा भी संयोगिता के पास जा पहुंचा, तभी बच्चा संयोगिता को देखते ही बोला___
देख!!शेरू लगता है, मेरी मां वापस आ गई, बाबा कह भी रहे कि मां इतवार तक आ जाएगी और आज इतवार ही तो है, शेरू तू ऐसा कर वापस घर जाकर बाबा को ले आ, तब हम मां को घर ले जा सकते हैं, शेरू भागकर घर गया और बच्चे के पिता को ले आया।।
बच्चे के पिता संयोगिता को देखकर बोले, ना जाने कौन हैं बेचारी!! यहां कैसे पहुंची, जिंदा हैं भी या नहीं, उन्होंने फिर संयोगिता की नब्ज टटोली, संयोगिता की सांसें अब तक चल रहीं थीं, उन्होंने संयोगिता को गोद में उठाया और बच्चे से बोले पहले इन्हें वैद्ध जी के पास ले जाना होगा, इनकी तबियत खराब है, मुन्ना!!
तुम भी मेरे साथ साथ वैद्य जी के यहां चलो।।
लेकिन बाबा ये मेरी मां ही है ना, आपने कहा था ना कि मां इतवार को आएगी और आज इतवार ही है, मुन्ना बस अपनी बात बोले ही जा रहा था।।
है ना!बाबा, ये मेरी मां ही है ना!!
बेटे की ऐसी बातें सुनकर, शिवनन्दन सिंह कुछ नहीं सोच पा रहें थे कि बच्चे को क्या जवाब दें, , झूठा दिलासा देना भी ठीक नहीं है, नन्ही सी जान, पहले से ही अपनी मां के आने की झूठी आश में बैठा रहता है और अगर ये कह दिया कि ये तुम्हारी मां ही है और अगर ये लड़की अपने घर चली गई तो बच्चे का दिल टूट जाएगा।।
उन्होंने मुन्ना से कहा, बेटा ये बीमार है, पहले इनका इलाज करवाते हैं और जब ये होश में आ जाएगी तो खुद-ब-खुद अपने मुन्ना को पहचान लेगी, इसलिए पहले इन्हें ठीक होने दो।।
शिवनन्दन सिंह , वैद्य के पास पहुंचे और बोले__
वैद्य जी जल्दी से इस लड़की का इलाज कीजिए, अभी सांसें चल रहीं हैं इसकी, जिंदा है...!!
वैद्य जी बोले, प्रधान जी!!कौन है लड़की?
इतना बताने का समय नहीं है, पहले आप इसकी जान बचाइए, इसके होश में आने पर पता ही चल जाएगा कि ये कौन हैं?
शिवनन्दन सिंह बोले।।
वैद्य जी ने फ़ौरन अपनी पत्नी को आवाज लगाई__
अरी भाग्यवान!!सुनती हो, जल्दी इधर आओ, कुछ कपड़े लेकर, बिटिया के गीले कपड़े बदल दो, जल्द ही इलाज शुरू करना है।
वैद्य जी की पत्नी ने फ़ौरन ही संयोगिता के कपड़े बदले और हथेलियों और तलवे में गरम तेल मलना शुरू किया, फिर वैध जी ने भी इलाज करना शुरू किया।।
उधर मुन्ना बार बार अपने पिता से बस पूछे ही जा रहा था___
बाबा! मां कब ठीक होगी, मुझे पहचान तो लेगी ना मां...
और प्रधान शिवनन्दन सिंह कुछ सोच नहीं पा रहे थे कि क्या जवाब दें, मुन्ना को, कैसे झूठा दिलासा दे कि हां तेरी मां तुझे पहचान लेंगी और फिर ये भी तो कहते नहीं बनता कि ये तेरी मां ही नहीं है, बहुत बड़ी दुविधा में थे शिवनन्दन सिंह।।
थोड़ी देर के इलाज के बाद संयोगिता को होश आ गया, वैध जी ने फ़ौरन शिवनन्दन सिंह को पुकारा___
अरे ठाकुर साहब, सुनिए!! बिटिया को होश आ गया है__
इतना सुनते ही मुन्ना भीतर की ओर भागा और पीछे पीछे शिवनन्दन भी गए__
मुन्ना, फ़ौरन जा कर संयोगिता से 'मां' कहकर लिपट गया, संयोगिता को कुछ भी समझ नहीं आया लेकिन मुन्ना के इस तरह से गले लगने से उसके मन में मुन्ना के लिए ममता जाग गई, उसने भी कह दिया हां बेटा।।
देखा बाबा, आपने देखा ना !!मां ने मुझे पहचान लिया और आज इतवार भी तो है और आपने कहा भी था ना कि मां इतवार को आएगी, मुन्ना खुश होकर बोला।।
ठीक है मुन्ना!! लेकिन अपनी मां से भी तो एक बार पूछ लो कि वो तुम्हारी मां है कि नहीं, वैध जी बोले।।
हां... हां..क्यों नहीं , अभी पूछता हूं, मुन्ना बोला।।
क्यों मां तुम ही मेरी मां हो ना!! मुन्ना बेसब्री से जवाब का इंतजार कर रहा था।।
हां, बेटा !! मैं ही तेरी मां हूं, संयोगिता बोली।।
नन्हे से बच्चे का मन रखने के लिए संयोगिता को ऐसा बोलना ही पड़ा।।
देखा, वैध जी! ये ही मेरी मां है, अभी कहा ना उन्होंने, मुन्ना फिर से चहक पड़ा।।
चलिए ना बाबा, मां को जल्दी से घर ले चलते हैं, मैं मां से बहुत सारी बातें करना चाहता हूं, अपना घर दिखाना चाहता हूं, मुन्ना को देखकर ऐसा लग रहा था कि जैसे उसे कोई खोया हुआ खजाना मिल गया हो और वो जल्द से जल्द अपने घर की तिजोरी में कैद करना चाहता हो ताकि मां रूपी अनमोल खजाना उससे फिर से ना कोई छीन सकें।।
अब शिवनन्दन जी बोले, एक मिनट रूको मुन्ना! तुम बाहर शेरू के साथ मेरा इंतजार करो, मैं तुम्हारी मां को लेकर आता हूं।।
ठीक है बाबा, मैं बाहर हूं, आप मां को लेकर जल्दी आना, मुन्ना ऐसा कहकर बाहर चला गया।।
अब शिवनन्दन सिंह ने संयोगिता से पूछा__
आपका नाम क्या है?
जी, मेरा नाम संयोगिता हैं? संयोगिता बोली।।
आप यहां कैसे पहुंची? शिवनन्दन ने फिर पूछा।।
जी, मैं जीना नहीं चाहती थी, मेरा इस दुनिया में कोई नहीं है, मैं अनाथ और बेसहारा हूं, जीवन में इतना दुःख सहा है कि जीने की इच्छा ही मर गई है इसलिए खुद को खत्म करना चाहती थीं लेकिन आप लोगों ने बचा लिया, इस बच्चे को देखा तो मेरा मन पिघल गया, मुझसे ये नहीं कहा गया कि मैं तुम्हारी मां नहीं हूं।।
चलिए, कोई बात नहीं लेकिन अब आप कहां जाएंगी, शिवनन्दन ने पूछा।।
जहां ये किस्मत ले जाए, संयोगिता बोली।।
अगर, आपको एतराज़ ना हो तो आप मेरे घर चल सकतीं, वहां आपको कोई भी असुविधा नहीं होगी और मुन्ना भी आपके आने से खुश हो जाएगा, शिवनन्दन जी संयोगिता से बोले।।
तभी वैध जी की पत्नी बोलीं, क्या सोच रही हो बिटिया!! चली जाओ, वो बच्चा कैसे अपनी मां के लिए दिन-रात तड़पता है, हम सबने देखा है उसे तड़पते हुए, आज तुम्हें देखकर कितना खुश था, हमने पहली बार उसको इतना खुश देखा है और प्रधान जी भी देवता स्वरूप है, रोज ना जाने कितने लोगों का भला करते हैं, कोई परेशानी नहीं होगी, बिटिया तुम्हें।।
अब संयोगिता थोड़ी उलझन में थीं।।
लेकिन फिर से बाहर से मुन्ना ने आवाज लगाई__
क्या हुआ बाबा? जल्दी आइए ना !मां को लेकर__
अब संयोगिता खुद को ना रोक सकी और मुन्ना के साथ उसके घर चल पड़ी।।
मुन्ना, आज बहुत खुश था, जो भी रास्ते में मिलता उससे कहते हुए जाता कि देखो ये मेरी मां है, मैंने कहा था ना कि एक ना एक दिन मेरी मां जरूर आएगी।
और रास्ते भर संयोगिता के साथ बक बक करते हुए गया, मां आज का खाना तुम बनाना, पता है महाराजिन एक भी अच्छा खाना नहीं बनाती, दाल में घी ही नहीं डालती और दूध में पानी मिलाकर देती है, अब तुम आ गई हो ना तो रोज अच्छा अच्छा खाना बनाकर मुझे खिलाना और उन लोगों को भी डांटना जिन्होंने मुझे बहुत परेशान किया है।।
अब तो सबकी खैर नहीं, है ना शेरू__
और सब घर पहुंचे....
संयोगिता, मुन्ना के साथ घर पहुंची और घर देखकर उसका मन प्रसन्नता से भर गया, वह हमेशा से ऐसा ही घर चाहती थी।।
घर के सामने इतना बड़ा बाड़ा, बाड़े के एक तरफ एक गाय और उसका बछड़ा एक छप्पर के नीचे बंधे थे और कुछ मुर्गे-मुर्गियां और चूज़े बाड़े में टहल रहे थे, बगल में एक नीम का पेड़ और एक कुआं भी था, बस कमी थी तो कुछ फुलवारी की लेकिन फिर भी संयोगिता खुश थी।
आओ.. मां..आओ ना!! मुन्ना ने संयोगिता से कहा।।
संयोगिता जैसे ही घर के दरवाज़े के पास आई, तभी बर्तन धोने वाली कहारिन बाहर निकल पड़ी और संयोगिता को गौर से देखकर बोली__
छोटे प्रधान जी, ये किसे ले आए?
पता है रधिया काकी, ये मेरी मां है, आज ही तो मिली हैं, नदी के किनारे पड़ी थी बेचारी, मैंने जल्दी से बाबा को बुलवाया, मैं और बाबा वैध जी के पास लेकर गए, अब ठीक हो गई तो मैं इन्हें घर ले आया, अच्छी है ना मेरी मां!!
बोलो ना रधिया काकी, अच्छी है ना मेरी मां!!
रधिया का कोई उत्तर ना पाकर मुन्ना ने फिर पूछा__
हां... हां... छोटे प्रधान तुम्हारी मां बहुत सुंदर है, रधिया बोली।।
रधिया जाते हुए बोली, मैंने बर्तन मांज दिए हैं और सफाई भी कर दी है, कल सुबह आऊंगी।।
मुन्ना बोला, ठीक है।।
मुन्ना, संयोगिता को अंदर ले जाकर बोला, मां , इस कमरे में मैं और तुम रहेंगे और वो वाला कमरा बाबा का है, वो वहां पर अपना कागजी काम करते हैं, पता है मां बाबा हारमोनियम भी बजाते हैं और मैं भी उनके साथ गाना गाता हूं।।
और यहां रसोईघर हैं, आज के बाद तुम ही मेरे लिए खाना पकाओगी और अपने हाथों से खिलाओगी भी, ये रहा आंगन और साथ में स्नानघर भी है, घर के पीछे भी काफी जगह , जहां मैं खेलता हूं।।
संयोगिता, मुन्ना के मुंह से इतनी सारी बातें सुनकर भाव-विभोर हो गई और प्यार से गले लगाते हुए बोली, बस करो मेरे मुन्ने, मैंने सब सुन लिया, ज्यादा मत बोलो नहीं तो नज़र लग जाएगी मेरी!!
शाम हो आई थीं, थोड़ा अंधेरा भी होने लगा था, प्रधान जी शिवनन्दन सिंह जी ने देखा कि बाड़े में सारे मुर्गे-मुर्गियां टहल रहे हैं, उन्होंने सारे मुर्गे-मुर्गियो को पकड़ कर उनके कोटर में पहुंचा दिया फिर शेरू से भी कहा चलो अपने घर में जाओ और कुएं से दो बाल्टी पानी खींचकर गाय के पास रखा फिर जैसे ही गाय की सानी बनाने जा रहे थे तभी दीनू आ पहुंचा और उसने प्रधान जी को आवाज दी__
अरे, मालिक ये क्या कर रहे हैं, माफ कीजिए आने में थोड़ी देर हो गई, खेतों में आज काम कुछ ज्यादा था और मैं दोपहर में रधिया से बोलकर गया था कि शाम को अगर मुझे देर हो जाए तो जानवरों को सम्भाल लेना और दाना-पानी भी डाल देना लेकिन रधिया भी पता नहीं किस धुन में रहतीं हैं, हमेशा कामचोरी करती है।।
कोई बात नहीं, दीनू काका, अपना ही तो घर है और अपने घर का काम करने में कैसा हर्ज ? शिवनन्दन सिंह ने दीनू काका से कहा।।
मालिक!वो तो आपका बड़प्पन है, आप जैसे देवता पुरुष ही ऐसी बातें कर सकते हैं, दीनू बोला।।
और दीनू अपने काम में लग गया।।
अंदर से ये सब बातें संयोगिता ने सुनी और शिवनन्दन जी का दयालु रूप देखकर अंदर ही अंदर उनकी कृतज्ञ हो गई।।
अंधेरा हो चला, शिवनन्दन जी ने सब जगह दिए जला दिए तभी दीनू बोला, मालिक लगता है आज भी महाराजिन खाना बनाने नहीं आएंगी, इसका तो रोज रोज का है, इसे आप निकाल क्यो नही देते, जब देखो तब ज्यादा खाना बना लेती है और बांधकर भी ले जाती है और खाना भी इतना बेढंगा बनाती है, बिन मां के बच्चे पर भी रहम नहीं है।।
अब मैं भी क्या करूं, उसे निकाल भी नहीं सकता, हमारे घर की बहुत पुरानी महाराजिन हैं, अब बूढ़ी भी तो हो चली है इसलिए ज्यादा काम भी नहीं कर पातीं, शिवनन्दन जी बोले।।
बूढ़ी तो है, लेकिन मालिक मुंह कितना चलाती है, एक रोटी भी ज्यादा मांग लो तो खिसिया उठती है, दीनू गुस्से से बोला।।
शिवनन्दन जी बोले, लगता है दीनू काका, अब महाराजिन नहीं आएंगी, मैं ही रसोई सम्भालता हूं, ऐसा ना हो मुन्ना भूखा ही सो जाएं और वो मेहमान भी तो भूखी होगी।।
कौन मेहमान, घर में कोई आया है, आपने मुझे बताया नहीं, आपकी कोई रिश्तेदार आईं हैं, दीनू ने हैरत से पूछा।।
नहीं!दीनू काका ऐसी कोई बात नहीं है, आज नदी के किनारे बेहोशी की हालत में मुन्ना को एक लड़की मिली और वो उसे अपनी मां समझ बैठा और उसे वो घर ले आया, अब नन्हे से बच्चे का दिल मैं नहीं दुखा सका, मना भी नहीं कर सका।।
दीनू बोला, कुछ पता किया उसके बारें में कि ऐसे ही किसी अनजान को घर में घुसा लिया।।
पूछा था उससे मैंने, अनाथ है बेचारी, शिवनन्दन सिंह बोले।।
उसने कहा और आपने मान भी लिया, मालिक! आजकल की दुनिया में किसी पर भी भरोसा नहीं किया जा सकता, दीनू बोला।।
अब क्या करूं , बच्चे की ज़िद के आगे मेरी नहीं चली और मुझे लड़की भी भली लगी, शायद वो सच बोल रही थी, शिवनन्दन सिंह बोले।।
ठीक है, मालिक आप जैसा ठीक समझें, दीनू बोला।।
अच्छा, दीनू काका, ये बातें हम बाद में करते हैं, बोलिए क्या खाएंगे आज, मैं ही लगता हूं रसोई में, शिवनन्दन सिंह बोले।।
मालिक आप जो भी प्यार से पकाएंगे, मैं खा लूंगा, आपने काम दिया, अपने घर में आसरा दिया, बेटे बहु ने तो घर से निकाल दिया था, आप ना होते तो ना जाने मेरा क्या होता? दीनू बोला।।
अच्छा चलो, अब रसोई में जाकर देखता हूं कि क्या क्या सब्जी हैं और ऐसा कहकर शिवनन्दन सिंह रसोई की ओर चल पड़े।।
तभी मुन्ना बोला, बाबा आपको रसोई में जाने की जरूरत नहीं है, मैंने और मां ने सुना कि आप बाहर दीनू काका से कह रहे थे कि आज महाराजिन नहीं आएंगी इसलिए, मां ने पहले ही चूल्हा बालकर बटलोई में दाल चढ़ा दी हैं और घर में सिर्फ़ बैंगन पड़े थे तो मां बोली कि बैंगन का भरता बना देंगी, इतना ठीक है ना कि और कुछ।।
शिवनन्दन जी बोले, तेरी मां को कष्ट होगा, मैं ही खाना बना देता हूं!!
तभी संयोगिता आकर बोली, तकलीफ़ किस बात की, वैसे भी मुझे खाना बनाना बहुत पसंद हैं, मैं सब कर लूंगी, आप जब तक मुन्ना के साथ खेलिए।।
तभी मुन्ना बाहर दीनू काका के पास जाकर बोला__
पता है काका! आज का खाना मेरी मां बना रही है, अब मैं मां के पास जाता हूं, क्या पता उन्हें किसी चीज़ की ज़रूरत पड़ जाए, इतना कहकर मुन्ना अंदर चला गया।।
मुन्ना को पहली बार इतना खुश देखकर, दीनू काका को बहुत अच्छा लगा।।
थोड़ी देर के बाद संयोगिता ने खाना तैयार कर लिया, लहसुन के तड़के वाली अरहर की दाल, बैंगन का भरता, प्याज का सलाद और गरमागरम चूल्हे की रोटियां ढ़ेर सारे घी के साथ।।
संयोगिता ने मुन्ना को आवाज दी__
बेटा , अपने बाबा और दीनू काका से बोलो कि खाना तैयार है।।
शिवनन्दन जी ने सुना तो मुन्ना से बोले, देख तेरी मां खाने के लिए बुला रही है, पहले मैं दीनू काका की थाली लगवा कर दे आता हूं, दिनभर से काम कर रहे हैं, बेचारे भूखे हों गए होंगे।।
शिवनन्दन सिंह सकुचाते से रसोई में पहुंचे, देखा तो तीन थालियां लगी हुई थी___
उन्होंनेे संयोगिता से कहा माफ कीजिए, तकलीफ़ हुई आपको!!
संयोगिता बोली, तकलीफ़ किस बात की, मुझे रसोई के काम करना अच्छा लगता है और फिर बच्चा भूखा ही सो जाता तो ना आपको अच्छा लगता और ना मुझे।।
शिवनन्दन जी बोले, ठीक कहा आपने।।
मैं एक थाली दीनू काका को देकर आता हूं और दीनू काका को थाली देकर शिवनन्दन खुद खाने बैठे साथ में मुन्ना भी।।
बाहर से दीनू काका की आवाज आई__
खाना बहुत अच्छा बना है, बिटिया!!
शिवनन्दन सिंह ने दीनू काका की आवाज सुनी तो बोले__
खाना वाकई में बहुत अच्छा बना है।।
मुन्ना बोला, खाना क्यो अच्छा नहीं होगा, मेरी मां ने जो बनाया है।।
सब खुश होकर खाना खा रहे थे तभी दीनू काका बोले__
बिटिया दाल और मिलेगी__
और संयोगिता बाहर दीनू काका को और दाल परोसने गई साथ में पूछा भी कि रोटी भी चाहिए।।
दीनू काका बोले, बिटिया अब पूछ ही रही हो तो दो रोटी लेते आना, जीती रहो बिटिया!! तुम्हारे हाथों में अन्नपूर्णा का वास है, आत्मा तृप्त हो गई आज का खाना खाकर।
और उस दिन इसी तरह सारा दिन ब्यतीत हो गया...
क्रमशः...
सरोज वर्मा....