नवगीत (22) - मन विक्षिप्त है मेरा जाने क्या कर जाऊँ ?
12 फरवरी 2015
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मन विक्षिप्त है मेरा जाने क्या कर जाऊँ ?
बिच्छू को लेकर जिह्वा पर चलने वाला ।
नागिन को मुँह से झट वश में करने वाला ।
आज केंचुए से भी मैं क्यों डर-डर जाऊँ ?
कुछ भी हो नयनों से मेरे नीर न बहते ।
यों ही तो पत्थर मुझको सब लोग न कहते ।
किस कारण फिर आज आँख मैं भर-भर जाऊँ ?
सच जैसे टपका हो मधु खट्टी कैरी से ।
अचरज ! पाया स्नेह निमंत्रण जो बैरी से ।
हाँ ! जाना तो नहीं चाहता हूँ पर जाऊँ ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
http://http://www.drhiralalprajapati.com/2015/02/22.html