सुख-दुख सारे डूब-उतरकर
सब मन ही मन सहते थे ॥
प्रेम-बाढ़ में हंस-बतख से
दोनों सँग-सँग बहते थे ॥
मोबाइल का दौर नहीं था ।
मिलने का भी ठौर नहीं था ।
दिल की बातों को कहने का -
चारा कोई और नहीं था ।
इक-दूजे को चिट्ठी पर
चिट्ठी भर लिखते रहते थे ॥
ध्वनि का कोई काम नहीं था ।
जिह्वा का तो नाम नहीं था ।
भावों का सम्पूर्ण प्रकाशन –
गुपचुप था कोहराम नहीं था ।
आँखों के संकेतों से सब
अपने मन की कहते थे ॥
मिलते थे पर निकट न आते ।
वृक्ष-लता से लिपट न जाते ।
यदि पकड़े जाते तो सोचो –
जग से दण्ड विकट न पाते ?
इक-दूजे को दृष्टिकरों से
बिन छूकर ही गहते थे ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
http://www.drhiralalprajapati.com/2015/02/22_13.html