shabd-logo

नवगीत : (22) - चिट्ठी भर लिखते रहते थे ॥

13 फरवरी 2015

171 बार देखा गया 171
सुख-दुख सारे डूब-उतरकर सब मन ही मन सहते थे ॥ प्रेम-बाढ़ में हंस-बतख से दोनों सँग-सँग बहते थे ॥ मोबाइल का दौर नहीं था । मिलने का भी ठौर नहीं था । दिल की बातों को कहने का - चारा कोई और नहीं था । इक-दूजे को चिट्ठी पर चिट्ठी भर लिखते रहते थे ॥ ध्वनि का कोई काम नहीं था । जिह्वा का तो नाम नहीं था । भावों का सम्पूर्ण प्रकाशन – गुपचुप था कोहराम नहीं था । आँखों के संकेतों से सब अपने मन की कहते थे ॥ मिलते थे पर निकट न आते । वृक्ष-लता से लिपट न जाते । यदि पकड़े जाते तो सोचो – जग से दण्ड विकट न पाते ? इक-दूजे को दृष्टिकरों से बिन छूकर ही गहते थे ॥ -डॉ. हीरालाल प्रजापति http://www.drhiralalprajapati.com/2015/02/22_13.html

डॉ. हीरालाल प्रजापति की अन्य किताबें

1

*मुक्त-मुक्तक : 667 - पैर तुड़वाकर भी बस चलते रहे

6 फरवरी 2015
0
1
0

पैर तुड़वाकर भी बस चलते रहे ॥ तेल-बाती ख़त्म कर जलते रहे ॥ तेरी मर्ज़ी ,आग तेरी ,तेरे साँचे , लोह से हम मोम बन ढलते रहे ॥ -डॉ. हीरालाल प्रजापति http://www.drhiralalprajapati.com/2015/02/667.html

2

*मुक्त-मुक्तक : 670 - झूठे राजा हरिश्चन्द्र

7 फरवरी 2015
0
0
2

लुंज केंचुए मेनकाओं को नृत्य सिखाते हैं ॥ झूठे राजा हरिश्चन्द्र को सत्य सिखाते हैं ॥ सूरदास इस नगर के वितरित करते-फिरते दृग , सदगृहस्थ को अविवाहित दांपत्य सिखाते हैं ॥ -डॉ. हीरालाल प्रजापति http://www.drhiralalprajapati.com/2015/02/670.html

3

*मुक्त-मुक्तक : बाज नतमस्तक

10 फरवरी 2015
0
0
0

एक चींटी से हुआ हाथी धराशायी ॥ शेर को चूहे ने मिट्टी-धूल चटवायी ॥ हारकर ख़रगोश लज्जित मंद कछुए से , बाज नतमस्तक चिड़ी की देख ऊँचाई ॥ -डॉ.हीरालाल प्रजापति http://www.drhiralalprajapati.com/2015/02/blog-post.html

4

नवगीत (22) - मन विक्षिप्त है मेरा जाने क्या कर जाऊँ ?

12 फरवरी 2015
0
1
0

मन विक्षिप्त है मेरा जाने क्या कर जाऊँ ? बिच्छू को लेकर जिह्वा पर चलने वाला । नागिन को मुँह से झट वश में करने वाला । आज केंचुए से भी मैं क्यों डर-डर जाऊँ ? कुछ भी हो नयनों से मेरे नीर न बहते । यों ही तो पत्थर मुझको सब लोग न कहते । किस कारण फिर आज आँख मैं भर-भर जाऊँ ? सच जैसे टपका हो मधु खट्टी

5

नवगीत : (22) - चिट्ठी भर लिखते रहते थे ॥

13 फरवरी 2015
0
2
0

सुख-दुख सारे डूब-उतरकर सब मन ही मन सहते थे ॥ प्रेम-बाढ़ में हंस-बतख से दोनों सँग-सँग बहते थे ॥ मोबाइल का दौर नहीं था । मिलने का भी ठौर नहीं था । दिल की बातों को कहने का - चारा कोई और नहीं था । इक-दूजे को चिट्ठी पर चिट्ठी भर लिखते रहते थे ॥ ध्वनि का कोई काम नहीं था । जिह्वा का तो न

6

नवगीत (24) - माना है आज प्रेम - दिवस तो मैं क्या करूँ ?

14 फरवरी 2015
0
0
2

माना है आज प्रेम - दिवस तो मैं क्या करूँ ? करता नहीं है कोई मुझसे प्यार अभी तक । मैं भी नहीं किसी का तलबगार अभी तक । ना मैं किसी का रास्ता देखूँ नज़र बिछा – ना है किसी को मेरा इंतज़ार अभी तक । फिर किसलिए मनाऊँ जश्न नाचता फिरूँ ? ना आए उसका इंतज़ार मेरी नज़र में । नादानी है इक तरफ़ा - प्यार

7

*मुक्त-मुक्तक : खेल खेल है इसको खेल ही रहने दो ॥

15 फरवरी 2015
0
3
1

भावों के आवेश में भरकर बहने दो ॥ जिसको जो कहना है जीभर कहने दो ॥ क्रीड़ांगन को मत रणक्षेत्र बनाओ तुम , खेल खेल है इसको खेल ही रहने दो ॥ -डॉ. हीरालाल प्रजापति http://www.drhiralalprajapati.com/2015/02/blog-post_15.html

---

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए