कुछ बनने की चाह में,
निकल पड़ा शहर की तरफ एक पहाड़ी फूल।
इस शहर की गर्मी में झुलस गया वह,
जो था पहाड़ के अनुकूल।।
वह तो घाटियों में खेलता था,
शहर में कहाँ टिक पाता।
वह तो गंगा सा स्वच्छ और निर्मल था,
शहर में उसका इमान कैसे विक पाता।।
जिस बाग से निकला वह,
वह उसके विना लगता है खाली।
शहर से बाग में लौटने की चाह में,
सर्घष उसका अभी भी है जारी।।
संर्घष करने के लिए भी शहर में,
पानी उसे पहाड़ से ही मिलता है।
तभी तो वह फूल इस धरती में भी,
होले-होले खिलता है।।
यहाँ के राजनीति के बुके में,
वह नही सजना चाहता है।
वह तो बस उसी पहाड़ में फिर बसना चाहता है।।
प्रदीप सिंह रावत -खुदेड़ की अन्य किताबें
मेरा जन्म पौड़ी गढ़वाल में पट्टी गगवाड़ स्यूं घाटी के अंतर्गत पड़ने वाले तमलाग गाव में एक साधारण परिवार में हुआ, पांच बहिनो में मै अकेला भाई था, जब मै मात्र १२ या १३ साल का था तभी मेरे पिता का स्वर्गवाश हो गया हमारे पास जमीन तो बहुत थी पर हाल चलने वाला कोई नहीं था मेरे मामा जी दूसरे गाव से हमारा हल लगाने आया करते थे, अकसर गाव में यह धारणा है चाए आप के पास खेती कितनी ही क्यों नहीं हो पर अगर आपके घर में नौकरी करने वाला कोई नहीं है तो आपको गरीब मान लिया जाता है हमारे साथ भी यही स्थिति थी खेती होने के बाबजूद हम गरीब माने जाते थे, मै पढ़ाई में काफी आच्छा था पर अंग्रेजी मेरे लिए किसी पहाड़ से कम नहीं थी मेरे और बिषयों में अच्छे नंबर आते थे वही अंग्रेजी में मै गिरते पड़ते पास नम्बर ही ला पाता था, यही हाल मेरा अभी भी है, मैंने हमेशा अंग्रेजी को कठिन समझा,मुझे याद है जब मै सातवीं में पढता तो मेरी पतलून घुटनों में फटी हुयी थी और मै शर्म के मारे अपनी कक्षा से बहार नहीं आता था, मैंने अपनी स्कूल कि ज़िन्दगी में बहुत कम दोस्त बनाये पर गाव में मेरे काफी दोस्त थे, और अभी भी है मुझे अपनी स्कूल से हमारे एक गुरूजी D. S. RAWAT उजेफा दिया करते थे जिससे मै अपनी स्कूल की फ़ीस भरा करता था, कोफ़ी किताब खरदने के लिए मेरे गाव के एक चाचा श्री जगमोहन सिंह सजवाण मेरी मदद किया करते थे,मुझे क्रिकेट खेलना बहुत अच्छा आता था और फुटवॉल में मै गोलकीपर भी बहुत अच्छा था, पांच बहिन होने के कारण मुझे घर का काम कम करना पड़ा, इस लिए लोगो मुझे आळशी भी कहा करते थे, पर मै अलसी था नहीं बिजली का सारा काम मुझे आता था और गाव वाले मुझे अपनी बिजली ठीक करने के लिए बुलाते थे,अगर मै अपने लेखन की बात करूँ तो मैंने सबसे पहले सातवीं कक्षा में मोरी मेला के ऊपर गाने लिखे थे पर अब मुझे याद नहीं है की मैंने क्या शब्द उन गानो के लिए पिरोये थे, इसके बाद मैंने अमिताभ बच्चन जी की दिवार फ़िल्म देखकर एक कहानी भी लिखी थी और मैंने तय किया था की मै इस कहानी को किसी फ़िल्म निर्माता को पोस्ट करूंगा पर ये हो नहीं सका. ज़िन्दगी के कठिन सफर में वह पने भी फट गए, इसके बाद बहुत लंबा सफ़र तय करने के बाद भी मैंने कुछ नहीं लिखा, इस प्रकार मैंने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा जनता इंटर कालेज से की और फिर मेरे साथ भी वही हुआ जो सरे पहाड़ के नोजवानो के साथ होता मतलब की मेरी जवानी भी पहाड़ किए काम नहीं आयी और मै भी पहाड़ को छोड़कर दिल्ली आ गया दिल्ली में छोटी सी नौकरी करके अपने परिवार की मदद करने लगा और धीरे धीरे मेरी सारी बहनो की शादी हो गयी, जो बहने अब अपने ससुराल में खुशहाल ज़िन्दगी ब्यतीत कर रही है, आगे कि पढ़ाई मैंने इग्नू से की,मेरा पूर्ण रूप से साहत्यिक होना - मुझे अच्छी तरह याद है जब मै दिल्ली की गलियों में मार्केटिंग किया करता था तो मेरे दिमाग और जबान पर चंद लाइन बार-बार आया करती थी, मुझे ऐसा लगता था कि अगर मै इन लाइनों को कागज पर नहीं उतरूंगा तो मै पागल हो जाउंगा या फिर मेरा दिमाग फट जायेगा, इस प्रकार मैंने उन लाइनों को कागज़ पर उतारना शुरू कर दिया और ये लाइने कविता बनती चली गयी, वह चंद लाइने है जिन्होंने मुझे साहित्याकार बना दियातड़तड़ी उकाल छै जेठ कु छो मास,न कखी डाली बोट्यू कू छैल छो न कखी छो घास | इस प्रकार मै कविता लिखता गया, इसी समय सीडी फिल्मों और चित्रहार का दौर चल रहा था और मेरी मुलाकात एक हिंदी तथा गढ़वाली फ़िल्म निर्माता श्री वेद प्रकाश शर्मा जी, से हुयी ज़िन्ह एक पहाड़ी फ़िल्म बनाने के लिए कहानी कि जरूरत थी मैंने उन्हें एक कहानी सुनायी और उन्हें पसंद आ गयी और उन्होंने उस कहानी पर ''खैरी का आँसू'' नाम की फ़िल्म बनायी, किसी कारण वश वह फ़िल्म बाज़ार में नहीं आ पायी, इस दौरान मेरी मुलाकात उत्तरखंड के एक लोकगयाक श्री सुनील बच्चन जी से हुयी, उन्हें मेरी कविताएं पसंद आयी और उन्होंने मुझे अपने लिए गीत लिखने को कहा और मैंने उनके लिए कुछ गीत लिखे जिसके संगीतकार उत्तराखंड के मसूर संगीतकार कुमोला जी थे उनको भी मेरी लेखनी पसंद आयी और उन्होंने मुझे मसूर लोकगायिका मीना राणा जी के लिए गाना लिखने के लिए कहा मैंने मीना जी के लिए कन्या भ्रूण हत्या पर एक मार्मिक गीत लिखा जिसे उन्होंने ''मोहना'' चित्रमाला में गा गाया, और इस प्रकार मै गीत और कविता लिखता गया, इसी क्रम में मुझे श्री सुमंत शर्मा जी द्वारा निर्मित हिंदी टेली फ़िल्म ''दी रिप्लाई'' में गीत लिखने का मौका दिया मैंने इस फ़िल्म का थीम गीत लिखा, इसके बाद मुझे निर्माता राहुल भाटी जी ने अपनी हिंदी फ़िल्म कि पटकथा लिखने को कहा और मैंने उनके लिए ''जाना है उस पार'' कि पटकथा और गीत लिखे, मै जब भी लिखने बैठता तो मेरे मन में नरेंद्र जी कि छबी अंकित होती है और मै सोचता हूँ कि अगर यही कविता और गीत नेगी जी लिखते तो उनका शब्दों का दायरा क्या होता, और मै कोशिश करता हूँ कि मै भी नेगी जी जैसे गीत लिख सकू, अब इस कोशिश में मै कितना कामयाब होत हूँ ये तो मेरी कविता और गीत पढ़ने तथा सुनने वाले आंकलन करेंगे, मै नेगी जी को अपने गुरु के रूप में मानता हूँ,D