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Part-2

6 दिसम्बर 2021

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7 मार्च 1854 को झाँसी पर अंग्रेजो का अधिकार हो गया।
रानी मनु ने ब्रिटिश सरकार की तरफ से मिलने वाली पेंशन लेने से साफ मना कर दिया और नगर के राजमहल मे निवास करने लगी।

यहीं से भारत की प्रथम स्वाधीनता क्रांति का बीज अंकुरित हुआ।अंग्रेजो के इस तरह के राज्य हड़पने की निति और नियम से उत्तरी भारत के नवाब और राजे महाराजे असंतुष्ट हो गए और सभी मे विद्रोह कि आग भड़क उठी।इसी का लाभ उठाकर रानी मनु ने भी विद्रोह की योजना बनायीं और विद्रोह कर दिया।
  नवाब वाजिद अली शाह की बेगम हजरत महल,अंतिम मुग़ल सम्राट की बेगम जीनत महल,स्वयं मुग़ल सम्राट बहादुर शाह, नाना साहब के वकील अजीमुल्ला शाहगढ़ के राजा, वानपुर के राजा मर्दन सिंह और तात्या टोपे आदि सभी रानी मनु के इस कार्य मे सहयोग देने के प्रयत्न करने लगे।

विद्रोह -___भारत की जनता मे विद्रोह की आग भड़क गई।पूरे भारत मे सुसंगठित और सुदृढ़। रूप से क्रांति को नया रूप देने की तिथि 31 मई 1857 तय की गई। लेकिन इससे पहले ही क्रांति की ज्वाला प्रज्ज्वलित हो गई और 7 मई 1857 को मेरठ मे तथा 4 जून 1857 को कानपुर मे भीषण विद्रोह हुआ।
कानपुर तो 28 जून 1857 को ही पूर्ण स्वतंत्र हो चुका था।लेकिन आंग्रे जों के कमांडर सर ह्यूरोज़ ने अपनी सेना को सुसंगठित कर विद्रोह दबाने का प्रयत्न किया।

उन्होंने सागर,गढ़कोटा,शाहगढ़,मदनपुर,मड़खेड़ा,वानपुर और तालबेहट पर अधिकार किया और नृशंसतापूर्ण अत्याचार किये।
इसके बाद झाँसी की ओर बढ़े और अपना मोर्चा कैमासन पहाड़ी के मैदान में पूर्व और दक्षिण मे मध्य लगा लिया।

रानी मनु पहले से ही सतर्क थी और वानपुर के राजा मर्दन सिंह से भी इस युद्ध की सूचना तथा उनके आगमन की सूचना प्राप्त हो चुकी थी।

23 मार्च 1857 को झाँसी का ऐतिहासिक युद्ध आरम्भ हुआ।जो आज भी हर भारतीय के जेहन मे ताज़ा है।
कुशल तोपची गौस खां ने रानी मनु और झाँसी की रानी के आदेशानुसार तोपों के लक्ष्य साधकर ऐसे गोले फेके की पहली बार मे ही अंग्रेजी सेना के छ्क्के छूट गए।

रानी लक्ष्मीबाई ने सात दिनों तक वीरतापूर्वक झाँसी की सुरक्षा की और अपनी छोटी से सशस्त्र सेना से अंग्रेजों का बड़ी बहादुरी से मुकाबला किया। रानी लक्ष्मीबाई ने खुलेरूप से शत्रु का सामना किया और युद्ध मे अपनी वीरता का परिचय दिया।

वे अकेले ही अपने पीठ के पीछे दामोदर राव को कसकर घोड़े पर सवार हो,अंग्रेजों से युद्ध करती रही।
बहुत दिनों तक युद्ध का क्रम इस प्रकार से चलना असंभव सा लगने लगा क्योंकि अंग्रेजों की बड़ी सेना के आगे रानी लक्ष्मीबाई अकेले कितने दिन तक युद्ध कर पातीं।वहाँ से सरदारों का आग्रह मानकर रानी लक्ष्मीबाई ने कालपी प्रस्थान किया ।
वहाँ जाकर भी वो शांत नहीं बैठी।
उन्होंने नाना साहब और उनके योग्य सेनापति तात्या टोपे से संपर्क स्थापित किया और विचार विमर्श किया।
रानी मनु की बहादुरी का लोहा अंग्रेज मान चुके थे।लेकिन उन्होंने रानी मनु का पीछा किया।रानी मनु का घोड़ा बुरी तरह घायल हो गया और अंत मे वीरगति को प्राप्त हुआ। लेकिन रानी मनु ने साहस नहीं छोड़ा और शौर्य का प्रदर्शन किया।

कालपी मे रानी मनु और तात्या टोपे ने योजना बनायीं और अंत मे नाना साहब,शाहगढ़ के राजा,वानपुर के राजा मर्दन सिंह आदि सभी ने रानी मनु का साथ दिया
रानी मनु ने ग्वालियर पर आक्रमण किया और वहाँ के किले पर अपना अधिकार कर लिया।
उनकी इस विजय कि ख़ुशी का हषोल्लास कई दिनों तक चलता रहा लेकिन रानी मनु इसके खिलाफ थी।यह समय विजय का नहीं था बल्कि अपनी शक्ति को सुसंगठित कर अगला कदम बढ़ाने का था।

सेनापति सर ह्यूरोज अपनी सेना के साथ अपनी सम्पूर्ण शक्ति से रानी मनु का पीछा करता रहा और आख़िरकार वह दिन भी आ गया जब उसने ग्वालियर का किला घमासान युद्ध करके अपने कब्जे मे कर लिया।रानी मनु इस युद्ध मे भी अपनी कुशलता का परिचय देती रहीं।
 18 जून 1858 को ग्वालियर का अंतिम युद्ध हुआ और रानी मनु ने अपनी सेना का कुशलता का नेतृत्व किया। वे घायल हो गयीं और अंततः उन्होंने वीरगति प्राप्त की।
रानी मनु/रानी लक्ष्मीबाई ने अपनी इस आखिरी युद्ध मे अपने जीवन की अंतिम आहुति देकर जनता जनार्दन को चेतना प्रदान की और स्वतन्त्रता के लिए बलिदान का संदेश दिया।

भारत में जब भी महिला सशक्तीकरण की बात होती है तो महान वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई की चर्चा जरूर होती है।
रानी लक्ष्मीबाई ना एक महान नाम है बल्कि वह एक आदर्श हैं उन महिलाओ के लिए जो खुद को बहादुर मानती हैं और उनके लिए भी एक आदर्श हैं जो सोचती हैं की वह महिलाएं है इसलिए कुछ नहीं कर सकती।

देश के पहले स्वतन्त्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली रानी लक्ष्मीबाई की शौर्य का लोहा अंग्रेजों ने भी माना और उनकी प्रशंसा की थी।

ऐसी महिलाएं दसको में एक बार ही जन्म लेती हैं और युगों युगों के लिए एक प्रेरणा बनकर अमर हो जाती हैं।सलूट है हमें ऐसी महिला पर जिसने अपने कर्तव्य और शौर्य से अनेकों महिलाओं और हमें भी गर्व है इनपर की ये हमारे भारत मे जन्मी है।

दोस्तों मैं एक साइंस का स्टूडेंट रहा हूँ और पिछले कुछ सालों से इंडियन हिस्ट्री ने जो असर मुझपर डाला है उसी की वजह से आज मैं हिस्टॉरिकल चीजों पर इतना लिख पाता हूँ।जब से मैंने कॉम्पिटिशन की क्लास लेना स्टार्ट किया है।बहुत कुछ सीखने को मिला है मुझे और वही मैं आप सबके सामने लिख पा रहा हूँ।
      ------धन्यवाद-----
त्रिभुवन गौतम s\o शिव लाल
 शेखपुर रसूलपुर चायल कौशाम्बी उत्तर प्रदेश,भारत
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RANI LUXMI BAI - #त्रिɓհմϖαη
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रानी लक्ष्मीबाई का जन्म काशी मे 19 नवम्बर 1835 को हुआ।इनके पिता मोरोपंत ताम्बे चिकनाजी के आश्रित थे।इनके माता का नाम भागीरथी बाई था। रानी लक्ष्मीबाई के बचपन का नाम मनु बाई था,मनु की उम्र मात्र 4 साल ही थी जब उनकी माताजी का निधन हो गया था और इसके बाद मोरोपंत जी मनु को लेकर झाँसी चले आए।रानी लक्ष्मीबाई का बचपन उनके नाना के यहाँ बीता जहाँ वो "छबीली" कहकर पुकारी जातीं थी । मनु के पितामह बलवंत राव के बाजीराव पेशवा कि सेना मे सेनानायक होने के कारण मोरोपंत पर भी पेशवा की कृपा रहने लगी।जब उनकी उम्र 12 साल की थी तभी तभी उनकी शादी कर दी गई थी। मनु बाई का विवाह 1850 मे झाँसी के राजा गंगाधर राव के साथ हुआ और 1851 मे ही उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई,इनके साथ साथ इनकी प्रजा भी खुश थी अपनी उतराधिकारी को देखकर। लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंजूर था उनका ये पुत्र 4 महीने बाद ही किसी कारण से निधन हो जाता है। सारी झाँसी उनके इस दुःख मे शामिल हुआ।राजा गंगाधर राव को इस दुःख का इतना धक्का लगा की वो एक बार बीमार हुए तो दोबारा स्वस्थ ही नहीं हो पाये और 21 नवम्बर 1853 को वो भी चल बसे। उनकी मृत्यु से रानी मनु को असहनीय पीड़ा हुई लेकिन किसी तरह से उन्होंने अपने आपको सम्हाल ही लिया और अपनी प्रजा के बारे मे सोचा और बिना घबराहट और विवेक से नहीं खोया। इधर राजा गंगाधर राव अपनी मृत्यु से पहले ही अपने ही परिवार के बालक दामोदर राव को दत्तक पुत्र मानकर गोद ले चुके थे और उन्होंने इसकी सूचना ब्रिटिश सरकार को भी दे दी थी। लेकिन ईस्ट इण्डिया कंपनी की सरकार ने दत्तक पुत्र को अस्वीकार कर दिया । 27 फरवरी 1854 को लार्ड डलहौजी ने गोद की निति के अंतर्गत दत्तक पुत्र दामोदर राव की गोद अस्वीकार कर दी और झाँसी को ब्रिटिश राज्य मे मिलाने की घोषणा कर दी। उनकी इस घोषणा की सूचना पाते ही रानी मनु के मुख से एक ही आवाज़ निकली.... " मैं अपनी झाँसी नहीं दूंगी" । 7 मार्च 1854 को झाँसी पर अंग्रेजो का अधिकार हो गया। रानी मनु ने ब्रिटिश सरकार की तरफ से मिलने वाली पेंशन लेने से साफ मना कर दिया और नगर के राजमहल मे निवास करने लगी।

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