पुलिस की लाठी की ताकत गरीब के शरीर पर ही दिखती है. उतनी अगर चोर-बदमाशों को ताकत दिखाते तो फिर लोग यह नहीं कहते है कि दरोगा साहेब, गांव में दरोगा और शहर में मोर बने फिरते है. आप सोंच रहे हो कि मैं भागलपुर वाले बर्बरता को देखकर बोल रहा हूं, तो फिर आप ही बताओ क्या इससे पहले गरीब लोगों की पुलिस वाले धुनाई नहीं किए हैं. क्या हुआ, सोंच में पड़ गए ना. खैर मैं कोई पुलिस-प्रशासन का विरोध नहीं कर रहा हूं. क्या पता कल को मेरे ऊपर भी धबा-धब गिरने लगे क्योंकि मैं भी कोई ऊपर वाले घराने का नहीं हूं. मेरा घर भी किसी गली-गांव में है. पर इसका मतलब यह भी नहीं की लाठी के डर से हक की बात करना छोड़ दूंगा. लाठी आज से नहीं हम गरीब तो आजादी के पहले से खाते आ रहे हैं क्योकि हमें जमीर और जमीन बेंचना नहीं आता है. इसलिए यह तपता शरीर ठूठ बन गया है, पर ऐसा नहीं है कि हमें दर्द नहीं होता है. दर्द होता है ना इस कठोर मन को जब हम अपने आंखों के सामने अपने पड़ोसी को शोषित होते देखते है. जब हद हो जाती है तो आवाज उठाते हैं और लाठी खाते है क्योंकि सरकार के घर में तो हमारे लिए अकाल पड़ा हुआ है. जब सुनते है कि सरकार के घर में अकाल पड़ा है तो दर्द होता है पर जब सुनते है कि बड़े-बड़े नेताजी के घर में तो अनाज सड़ रहा है तो फिर आवाज उठाते है और खा कर लाठी चुप हो जाते है. जब सुनते है की सरकार घाटे में जा रही है तो अपने दर्द को दबा लेते है, पर जब देखते है कि नेता जी और माल्या जैसे करोड़ो लेकर भाग गए तो आवाज उठाते है और पुलिस की लाठी खा कर चुप हो जाते है. चोर-बदमाश खुलेआम क्राइम कर रहे है. खुलेआम आम जनता किसी क्रिमीनल के गोली की शिकार हो जाती है. अरे, पुलिस वालो को भी भाई लोग ठोक कर चले जाते है. उस वक्त तो पुलिस वाले गोली मारने और एक्शन लेने का आर्डर लेते हैं. क्या उस वक्त पुलिस की मर्दानगी को जपानी तेल का एक्सट्रा पावर नहीं मिलता है. लेकिन जैसे ही गरीब-भूखे अपने हक-अधिकार की बात करते है. देश पर आंतरिक खतरा बढ़ जाता है और पुलिस वाले दे दनादन लाठी ठोकते है. औरत को तो मुर्गी की तरह खुलेआम नोचते है. पर उस वक्त तो न महिला सशक्तिकरण दिखता है और न ही गरीबी बचाओ का नारा कोई नेता लगाता है. लेकिन एक बात बताइए लोकतंत्र के कुर्सी पर बैठे साहेब, इ पुलिस वालों को इतनी ताकत कौन दे देता है ?