जानवरों के प्रति जागरूक हैं, तो फिर इंसानों से इतनी बेरुखी क्यों है, साहेब?-
किसी के दुख में शामिल होने से उसका दर्द दूर नहीं होता है. किसी के
अर्थी को कंधा देने से उसके परिवार की कमी दूर नहीं होता है पर हां, विकट घड़ी में
किसी को भी सहारा देना चाहिए. इससे हमारे व्यक्तित्व का परिचय होता है. ओड़िशा के
कालाहांडी जिला के दानामांझी को अपने पत्नी का लाश 60 किमी तक कंधों पर ढोना पड़ा,
उसी राज्य के संबलपुर निवासी चंद्रमणी को भी किसी ने साहारा नहीं दिया तो लकड़ी के
अभाव में कंधे पर ले जाकर दफन कर दिया और इसी राज्य के नयागढ की एक मजदूर महिला को
अपने पति के लाश को नागपुर के किसी ट्रेन में छोड़कर मजबूरन आना पड़ा. ऐसी ओर भी
बहुत-सी घटनाएं है उदाहरण के लिए पर अब तो इंसान ही उदाहरण का पात्र बन गया है
घटना-दुर्घटना का. लेकिन जब यह मामले सबके सामने आते है तो भारत-पाक की तरहबातूनी युध्द शुरू हो जाता है, आज के मीडिया-जगत
में. सोशल नेटवर्क और मीडिया खबरों ने तो मानव संवेदना पर सवाल उठाना शुरू कर देते
हैं. तरह-तरह की बात-सवालात जैसे कि, इंसानियत मर गई है, लोगों के आंख में अब
दयाभाव नहीं हैं आदि-इत्यादि. मैंने भी यह सवाल किए पर आज जब कुछ बातों पर गौर
किया तो लगा कि ना दयाभाव मरा है और ना ही इंसानियत खत्म हुई है. यह बात मैं किसी
का पक्षधर होकर नहीं कर रहा पर जब मैंने देखा कि हम किसी गाय के लिए रोटी का
जुगाड़ कर देते है, गाय के लिए आंदोलन भी करते है तो फिर हमारा दयाभाव मरा कहां
है. हां, पर किसी गरीब लाचार को रोटी देने से साफ मना कर देते हैं. गुटखा, सिगरेट
के लिए तो खुल्ला करा लेते है, पर किसी अनाथ-बेसहारा को देना हो तो पॉकेट में बस
ऐसे ही टटोलकर बोलते है कि यार छुट्टा नहीं है. और अभी तो हम नोटबंदी का सहारा
लेने लगे है. पर वहीं पर गुमटी से एक बिस्कुट खरीदकर कुत्तों को शौक से खिलाते है,
तो क्या यह इंसानियत नहीं है. कुत्तों को गोद में लेने से हिचकिचाते नहीं और अनाथ
से दरकिनार होकर निकल लेते है. पर ऐसा भी नहीं है कि हम इंसानों से प्यार नहीं
करते लेकिन उसका जगह बदल जाता है. देखिए कहां पर, जब कुत्ते गली में टॉयलेट करते
हैं तो हम बस नजर हटाकर चल देते है या मार कर भगाते हैं, क्योकिं उनको देखने से
आंख में घाव निकलता है ऐसा लोगों का मानना है. लेकिन रवैया हम इंसानों के साथ करते
तो कितना अच्छा होता की कोई खुले में शौच नहीं करता, सरकार के करोड़ो बच जाते. पर
हम तो जब खुले में शौच करने निकलते है तो ‘मानवीय मल महक’ को सुंघते हुए उस प्रक्रीया में लग जाते है. सब
गंदगी, ऊंच-नीच भूलकर शांति से दम निकालते है. कुत्ता-बिल्ली के रोने पर हम उनको
मारते है यानि की एक प्रकार से चुप कराते है ताकि अशुभ घटना ना घटे पर पड़ोस में
कोई रो रहा हो तो कान में हेडफोन डालकर सो जाते है. बिल्ली-सियार रास्ता काट दे तो
थोड़ा रूकर निकलते है चाहे जितनी भी जल्दी क्यों ना हो, भले ही इसके पीछे
अंधविश्वास की कहानी है पर सच तो यह है कि हमारी सुरक्षा के लिए ही है क्योकिं
जानवर जब भी भागते है तो झुंड में या फिर उनके पीछे अन्य जानवर भी हो सकता है, तो
रूक जाने का प्रथा प्रचलित हो गया ताकि एक्सीडेंट ना हो. पर कोई बुजुर्ग रास्ता
पार करते वक्त बिच में आ गया तो बोलते है कि अबे मेरे ही गाड़ी से मरना है क्या कई
बार तो धक्का मारकर चल भी देते हैं. हम इन जानवरों के लिए रूक सकते है तो फिर
इंसान के लिए क्यूं नहीं रूक सकते. किसी को सड़क पार नहीं करा सकते पर किसी सड़क
के पार जाने वाले को धक्का तो नहीं मारना चाहिए. किसी गिरे हुए को मत उठाओ पर पर
उसकी नजर में तो मत गिरो. बेशक जानवरों से प्यार करो पर इंसान से तो दूरी मत बनाओ.
किसी के अर्थी पर पैसा मत लूटाओ पर कंधा तो लगा दो. एक तरफ तो जानवरों से प्यार कर
के हम अपनी इंसानियत को दिखा रहे हैं पर इंसान होकर इंसान से ही नजर छुपा रहे हैं.
जानवरो के प्रति जागरूक होना हमारी मानवता का परिचय दे रहा है पर दुसरी ओर
लाचार-बेसहारा लोगों को दरकिनार करना इंसानियत पर नहीं बल्कि हमारे मानसिकता पर
प्रश्न उठा रहा है. अगर ऐसी मानसिकता बनी रही तो फिर एकदिन इन जानवरों से प्यार करने
वाला इंसान ही मर जाएगा. ‘एक फूल गुलजार नहीं करता है चमन को/पर एक भौंरा बदनाम कर देता है चमन को’.