डॉक्टर के इंतजार में मरीज का अंतकाल ( व्यंग्य )
प्राथमिक विद्यालय का वो टेंश का वाक्य मुझे आज भी याद है कि 'डाॅक्टर के आने से पहले मरीज मर चुका था ' और मैं भला भूल भी कैसे सकता हूँ ? क्योंकि आज तक डॉक्टरी के चक्कर मे मैने अपना आधा जीवन जो गुजार दिया है और दवाई के लिए तो कमाई का सारा धन । फिर भी बीमारी नक्सलवादीयो की तरह अपने ही घर मे बैठी हुई है । जाँच पर जाँच तो इतना हुआ है कि शरीर में खून से ज्यादा रसायनो की अधिकता हो गई है । जितनी मोटी - मोटी किताबे पढ़ कर डाॅक्टर की डिग्री हासिल की है ,उससे ज्यादा वजनदार तो मेरी फाइल हो गई है ।इस बात का एहसास मेरे दस साल के बच्चे ने कराई यह कह कर कि 'पापा आप डाॅक्टर की पढ़ाई करते है ' ।
मन ही मन सोचा कि जितना दवा पर खर्च किया है उससे डाॅक्टर की पढ़ाई भी हो जाती और क्लिनिक भी खुल गई होती पर छोङो , सोच कर क्या होगा? कुछ हो ना हो शरीर तो जांचघर बन गया ना। प्राइवेट के सुख इलाज का ए .सी . भी तन - मन को अब बेचैन करने लगा और आखिरकार सरकारी - अस्पताल का दरवाजा खटखटाना ही पङा लेकिन यहाँ की व्यवस्था को देखकर मरने की इच्छा जेनरिक दवाईयों की तरह 70% हो गई लेकिन जैसे ही मैने ए . सी. वाले डॉक्टर को खट - खट पंखे के नीचे देखा तो मेरा दिल एरिस्टो कम्पनी की दवा की भांति कोने मे खङा पर उम्मीद की साँस लेने लगा ।तब तक साहब का फोन बजा और वो एम्बुलेंस की तरह बाहर निकले और बोलते गए कि जिनको जीना है वो लोग मेरे प्राइवेट क्लीनिक पर आ जाए ।
अब हिम्मत नही थी और ना ही पाॅकेट था तो मैं भी उनकी कतार मे अपने फाइल को लेकर बैठ गया , कि शायद एक - दो साल बाद मेरा भी नम्बर आ जाए ।अब आप सरकारी डाॅक्टरो की तरह मुझे भी मरीज मत समझिएगा क्योंकि हम सब तो लाइन में लगकर के अपने जिन्दगी से बेलाइन हो चुके है । मरीजो को तो अखबार के बिस्तर पर लाइन के इंतजार मे माथे पर नम्बर लिखकर लिटाया गया है किसी कूङेदान और पानी टंकी कि आङ - छाँव तले ।
मरीजो की छोङो परिजनों का हाल तो बेहाल है और बचपन वाले टेंश का वाक्य अब गलत लगने लगा ।तब तक किसी कम्पाउंडर की तरह इक बात और जेहन में आ गई कि " डाॅक्टर के इंतजार मे मरीज मर चुका था " और साथ ही साथ सही भी लगने लगा बिल्कुल पौराणिक चिकित्सा की तरह ।योगा के युग मे तो बेड पर सोए थे इसलिए दवा से बेआसार हो कर दुआ पर भरोसा कर सब के सब "सर्वे सन्तु निरामया " का जाप करने में लग गए ।
मन ही मन सोचा कि जितना दवा पर खर्च किया है उससे डाॅक्टर की पढ़ाई भी हो जाती और क्लिनिक भी खुल गई होती पर छोङो , सोच कर क्या होगा? कुछ हो ना हो शरीर तो जांचघर बन गया ना। प्राइवेट के सुख इलाज का ए .सी . भी तन - मन को अब बेचैन करने लगा और आखिरकार सरकारी - अस्पताल का दरवाजा खटखटाना ही पङा लेकिन यहाँ की व्यवस्था को देखकर मरने की इच्छा जेनरिक दवाईयों की तरह 70% हो गई लेकिन जैसे ही मैने ए . सी. वाले डॉक्टर को खट - खट पंखे के नीचे देखा तो मेरा दिल एरिस्टो कम्पनी की दवा की भांति कोने मे खङा पर उम्मीद की साँस लेने लगा ।तब तक साहब का फोन बजा और वो एम्बुलेंस की तरह बाहर निकले और बोलते गए कि जिनको जीना है वो लोग मेरे प्राइवेट क्लीनिक पर आ जाए ।
अब हिम्मत नही थी और ना ही पाॅकेट था तो मैं भी उनकी कतार मे अपने फाइल को लेकर बैठ गया , कि शायद एक - दो साल बाद मेरा भी नम्बर आ जाए ।अब आप सरकारी डाॅक्टरो की तरह मुझे भी मरीज मत समझिएगा क्योंकि हम सब तो लाइन में लगकर के अपने जिन्दगी से बेलाइन हो चुके है । मरीजो को तो अखबार के बिस्तर पर लाइन के इंतजार मे माथे पर नम्बर लिखकर लिटाया गया है किसी कूङेदान और पानी टंकी कि आङ - छाँव तले ।
मरीजो की छोङो परिजनों का हाल तो बेहाल है और बचपन वाले टेंश का वाक्य अब गलत लगने लगा ।तब तक किसी कम्पाउंडर की तरह इक बात और जेहन में आ गई कि " डाॅक्टर के इंतजार मे मरीज मर चुका था " और साथ ही साथ सही भी लगने लगा बिल्कुल पौराणिक चिकित्सा की तरह ।योगा के युग मे तो बेड पर सोए थे इसलिए दवा से बेआसार हो कर दुआ पर भरोसा कर सब के सब "सर्वे सन्तु निरामया " का जाप करने में लग गए ।