मन में उठा एक प्रश्न-
प्रेम क्या है?
लगा यूँ कि-
अनुभूति के मध्य
भावों के संग एक यात्रा है।
यात्रा पूर्ण करके, हुई प्रतीति-
इसमें पाने की नहीं वांछा
रहती बस यही आकांक्षा-
रीझना उस पर सदा
रीतना स्वयं का सदा
तिल-तिल कर होना अदा
रेशा-रेशा देना बदा।
प्रेम एक तल्लीनता है!
प्रेम एक तन्मयता है!
ढाई आखर का है शब्द
लौकिक धरातल पर है निःशब्द
छिपा है इसमें एक मर्म
निभाता है सदा एक धर्म
कहे प्रियतम से-
तुझे चाहूं, तेरे चाहने वालों को चाहूं।
दे दूं सम्पूर्ण समर्पण,
बिन इसके होये न अर्पण।
प्रेम का है जो सदन
मन उसमें रहे मगन
तभी सम्भव है इसमें प्रवेश
जब पहने पूर्ण त्याग का वेश ।
इसकी प्रतीति है परमात्मा
पर्याय इतना, हो एक आत्मा
ढाई आखर का बीज मन्त्र
अखिल परिक्रमा का यन्त्र
जब इसमें सिद्धि पा जाते
जन्म-मरण की सार्थकता पाते।
जाके पांव न फटी बिवाई,
सो क्या जाने प्रीत पराई।
यह गूंगे के गुड़ जैसा है,
स्वाद उसी को, जो चखता है।
प्रेम के हैं तेवर अनेक-
शालीन, सौम्य, शोख,
चुलबुला, उदास, प्रफुल्ल।
प्रिय-मिलन संयोग है।
ताप प्रिय-वियोग है।
प्रेम एक अर्चना है।
प्रसाद में देती सम्पूर्णता
शायद प्रेम है -
एक मधुर भाव
खोकर निज को पाने का।