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पुस्तक अंश : अजनबी जज़ीरा (भाग -1 )

7 जुलाई 2022

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एक गली के मुहाने तक उसकी फ़रियाद बन्द दरवाज़ों से टकरा-टकराकर वापस उसके जिस्म को थपेड़े की तरह चोट पहुंचा रही थी. उम्मीद का टूटना क्या होता है सिर्फ वह जानती है. घुटनों के बल वह रोती-सी बैठी और फिर जैसे सिजदे में गिर गई.

सर्द हवाएं उसकी काली चादर को किसी आवारा लड़की के दुपट्टे की तरह उड़ा रही थीं. आहिस्ता-आहिस्ता उसके उठते क़दम किसी बीमार औरत की तरह उसे मौत के दहाने की तरफ़ ले जा रहे थे. बदन कांप रहा था और आंसू थम नहीं रहे थे.

सर्द हवाओं ने उसके चेहरे को आंसुओं की फुहारों की शक्ल में इधर-उधर उड़ाया मगर तसल्ली की एक भी थपकी न दी. उसके हाथ अपने चारों तरफ़ लपेटी चादर को इस तरह पकड़े थे जैसे उम्मीद की आख़िरी शमा को वह दिल में जलाए हुए है. उसके सामने हांफता चेहरा उभरा और उसने अपनी आंखों से बढ़ते अंधेरे को ताका और क़दम तेज़ कर दिए.

आसमान से बूंदें टपकीं और उसने घबराकर सितारों भरे आसमान को ताका और दोनों हाथ ऊपर उठा दिए. तेज़ हवा के झोंके ने उसके सिर की चादर को उड़ाया और अंधेरे में गुम हो गई. उसके चेहरे पर उड़ती लटें थीं, जो गिरती बूंदों और बहते आंसुओं से धीरे-धीरे उसके चेहरे पर चिपक रही थीं. उसके दिल की इबारत को उठे हाथ बयान कर रहे थे. उसका पूरा वजूद हवा में हिलती घंटी की तरह दुआ भरी फ़रियाद में बदल गया...

खामोश फ़रियाद!

सर्द रात की थरथराहट में गर्म आहें!

घर के दरवाज़े उसके क़दमों की चाप सुनते ही खुल गए. सामने छोटी बेटी नेदा बेहाल-सी खड़ी थी. आंखों में वहशत थी, चेहरे पर हैरत मगर मां का हुलिया देख वह सहम उठी. मां दीवानावार घर में घुसी. गैलरी पार कर दौड़ती-सी कमरे में, जहां सब-कुछ ठहर गया था.

चारों लड़कियां बाप के ज़ानू को पकड़े सिसक रही थीं और उसका शौहर हांफते-हांफते थककर राहत की सांस ले चुका था. फूलती सांसों पर क़ाबू पाकर वह किसी सहमी बिल्ली की तरह आगे बढ़ी.

उसने नब्ज़ पर उंगली रखी, नाक के नीचे हथेली लगाई मगर वहां सब-कुछ साकित था, सब-कुछ.

उसने प्यार से लबरेज़ आंखों से शौहर को ताका और बड़ी बेबसी से मुस्कुरा पड़ी.

'इस हालत में भी तुम दुनिया के सबसे हसीन मर्द लग रहे हो.'

उसने शौहर का किताबी चेहरा छुआ. अधखुली इन्तज़ार में डूबी आंखों को ताका और दुलार में भर उसके माथे पर आई लट को हटाया और कांपते होंठों से उसकी पेशानी का चुम्बन लिया.

बदन में हरारत बाक़ी थी.

उसने बेटियों की मदद से अपने लम्बे-चौड़े शौहर के मुर्दा जिस्म को सीधा लिटाया और कांपता हाथ उसकी अधखुली आंखों पर रखा और वहीं पड़ा रहने दिया!

उसे मेरा इन्तज़ार होगा.

दवा का भी जो उसे बचा सकती थी मगर...

वह फफककर रोना चाहती थी मगर पांच लड़कियों की मौजूदगी में वह टूटकर बिखरना नहीं चाहती थी.

उसकी आंखों की पुतली तो...

लेकिन उसका अक्स इन लड़कियों की आंखों में हमेशा रौशन रहेगा, हमेशा. वह चुपचाप शौहर के सिरहाने बैठ गई.

बमों का गिरना अब उसे साफ़ सुनाई पड़ रहा था.

दूर कहीं भारी बमबारी हो रही थी.

एकाएक दरवाज़े पर दस्तक हुई तो वह सिहर उठी. उसकी आंखों में खौफ़ उभरा. उसने पहले शौहर की बन्द आंखों, फिर उन दस खुली आंखों की तरफ़ देखा जो गुलाबी डोरों के बीच भयभीत हिरनियों की सवालिया नज़रें थीं. उसने हौसला भरी नज़रों से उन्हें देखा और पलंग से उतरी.

इस बार की दस्तक तवील थी.

जब तक वह दरवाज़े तक पहुंचती तब तक घंटी बजानेवाले ने उंगली बटन पर रख हटाना मुनासिब नहीं समझा. उसने पट से दरवाज़ा खोला.

'इतनी देर में?'

वह चुप रही.

'यह लो इन्हेलर, बहुत मुश्किल से मिला है.' आनेवाले के चेहरे पर खुशी की बारीक़ लकीर खिंची.

'अब इसकी ज़रूरत नहीं है.'

'क्यों?'

'क्योंकि वह जन्नत की राह पर जा चुका है, और तुम...तुम भी यहां से दफ़ा हो.'

इतना कह उसने तेज़ी से दरवाज़ा उसके मुस्कुराते चेहरे पर बन्द किया और कुछ लम्हे थरथराती-सी खड़ी रही फिर एकाएक कटी शाख़ की तरह बन्द दरवाज़े पर आन गिरी.

फ़ौजी जूतों की भारी आवाज़ सन्नाटे में दूर जाती सुनाई पड़ी. वह फफककर रो पड़ी.

कुछ मिनटों पहले अगर यह इन्हेलर आता तो शायद वह इनकार न करती. उसे अजीब-सा इतमीनान हुआ कि वह दूसरा क़दम उठाने पर हालात का शिकार नहीं हो पाई मगर किस क़ीमत पर?

मौत तब भी लाज़मी थी.

या वह मरता या मैं!

मुझे उसकी जि़न्दगी हर क़ीमत पर मंज़ूर थी.

उसने चेहरा हथेलियों से साफ़ किया और उलटे क़दमों कमरे की तरफ़ बढ़ी जहां उसका जवान मर्द हमेशा के लिए गहरी नींद सो चुका था.

मुल्क से जानेवाले बड़ी-बड़ी रिश्वतें दे विदेशों की तरफ़ उड़ान भर रहे थे. उसके पास ऐसी कोई क़ीमती चीज़ नहीं बची थी जिसको बेचकर वह सात वीज़े ख़रीद सकती. बाज़ार में कुछ भी बिक सकता है और इसी एक चीज़ ने उसके परिवार को भूख से बचाया मगर कब तक, कहां तक?

सोच में डूबी थकी आंखें मौत की कोख से कुछ तलाश कर रही थीं. उसके ज़हन में उस अफ़सर की परछाईं बार-बार उभर रही थी.

इन्हेलर का छोटा-सा पैकेट उसकी किस्मत का कितना बड़ा फैसला कर बैठा?

अपने जहां के लुट जाने पर वह दोनों हाथों से सिर पकड़े जाने कब से बैठी थी कि अब आगे की जि़म्मेदारी कैसे पूरी करे और किसको मदद के लिए बुलाए. उस वक्त सबा ने मां के पास जाकर रूंधी आवाज़ से कहा, 'या उम्मी अबु ने किसी को भी इत्तला करने को मना किया है, जो करना है घर के पीछे हमें ही करना होगा.'

यह सुनकर मां को सकता-सा हो गया.

जब मां की ख़ून में तर आंखें सबा के चेहरे की तरफ़ उठीं तो उसकी चीख़ गले में घुटकर रह गई. यह कैसी आंखें थीं जिससे ग़म और ग़ुस्सा ख़ून की तरह टपक रहा था. उसने घबराकर दोनों हाथों से अपनी आंखें छुपा लीं.

मां का ध्यान कहीं और था.

उसने बेबसी से कमरे के चारों तरफ़ देखा और अजीब बेकसी से अपना चेहरा शौहर के बर्फ की तरह ठंडे पैरों पर रख दिया.

अब वह चीख़ भी नहीं सकती है, न दहाड़ें मारकर सियापा कर सकती है. जाते-जाते उसके वकील शौहर ने अपने आख़िरी पैगाम में वह सब कह दिया था जो उसे अंजाम देना था. फिर भी उसे कुछ लोगों को फोन पर इत्तला तो देनी होगी. उसने अपना सिर उठाया और अपने लम्बे-चौड़े हसीन शौहर को ऊपर से नीचे तक देखा, पता नहीं किस ख़्याल से वह सिहर उठी.

मोमबत्ती की लौ पिघलकर अब भड़कते-भड़कते बुझने-सी लगी थी. कमरे में कई साये मंडराए. कमरा अंधेरे में डूबने से पहले नई मोमबत्ती के रौशन होते ही पीली फीकी रौशनी में नहा गया.

बाहर सर्द हवाएं कुछ इस अन्दाज़ से घर के चारों तरफ़ गोल-गोल घूम रही थीं जैसे कोई किसी का पीछा कर रहा हो. मां ने घर का दरवाज़ा खोला और पत्थर की चिकनी सीढ़ियां उतर वह घर के पीछे जानेवाली गली में दाख़िल हुई जहां अंधेरे की सियाही कजलौटी बनकर बिखरी थी. दूर खड़े लैम्पपोस्ट की रौशनी को घने पेड़ की शाखाओं ने रोक रखा था तो भी एक-दो बारीक़ लकीरें किसी तरह छनकर ज़मीन पर चाकू की धार बना रही थीं. न पास में टॉर्च थी न ही मोबाइल फोन, न मोमबत्ती इस हवा का मुकाबला कर सकती थी. वह कांपती-सी खड़ी रही.

आंखें धीरे-धीरे अंधेरे की आदी हो रही थीं. ज़मीन ऊबड़-खाबड़ थी. खोदने के लिए न फावड़ा था न गैंती.

आसमान से टपकती शबनम की बूंदें शाखाओं से फिसलकर उसके खुले सिर पर गिर रही थीं. वह बेहिस सी खड़ी टकटकी लगाए ज़मीन को ताके जा रही थी!

क़ब्र खोदनी है तो यह काम रात के अंधेरे में ही मुमकिन है वरना...वह चौंकी किसी के पैरों की आहट से जो उसके पास आकर थम-सी गई थी.

'या उम्मी...अन्दर चलो अबु के पास, कल दोपहर तक हम सारा इन्तज़ाम कर लेंगे. लरज़ती सी आवाज़ उसके कानों से टकराई, उसने गहरी सांस ली और खुद से बोली- 'सही तो है अंधेरे में खड़ी मैं क्या ढूंढ़ रही हूं?'

मां-बेटी एक-दूसरे का सहारा बनी उस कच्ची गली से बाहर निकल सीढ़ियों की तरफ़ बढ़ीं.

'या मम्मी नाना को क़फ़न के लिए भी क्या फोन नहीं करोगी?' कमरे में पहुंच बेटी ने पूछा.

'करना चाहिए वरना खुद निकलूंगी.' उसने कांपती आवाज़ से कहा और शौहर के चेहरे को देखा जिस पर एक दिलकश मुस्कान थी. सारी तकलीफों के बाद चेहरे पर सुकून था. उसके होंठ लरज़कर रह गए.

सूजी जलती आंखें लिये लड़कियां बाप की पट्टी से लगी बैठी थीं और एकटक बाप को निहार रही थीं.

उसने अपना पर्स उठाया. पैसे गिने और फिक्र में डूब गई. वह नहीं चाहती थी कि शौहर की आख़िरी ख़्वाहिश के ख़िलाफ़ जाए वरना चचा को वह ज़रूर फोन करती. इस वक्त सब-कुछ आसानी से निपट जाता. उसको महसूस हुआ जैसे दो उक़ाब बड़े-बड़े डैने फैलाते जानें कहां से भारी बोझ बन उसके कन्धों पर आकर झूल गए हों.

कोहरे में लिपटी सर्द सुबह एक गर्म चाय की प्याली के साथ बर्दाश्त के क़ाबिल बनाई जा सकती है. बांह टूटे हारे बदन से वह उठी और किचन की तरफ़ बढ़ी जहां चाय का डिब्बा खाली था. उसने बेबसी से उसको ठोका मगर टिन के छोटे-से डिब्बे से चूरा नहीं झड़ा.

'बाज़ार में चीजें रहती हैं तो पैसे नहीं और पैसे रहते हैं तो दुकानों में सामान नहीं.' उसने बड़बड़ाते हुए गर्म पानी को प्याली में उंड़ेला और थोड़ी-सी शक्कर डाल चमचा चलाया.

'क्या होगा?' उसने कनपटी को उंगलियों से दबाया और गर्म घूंट भरा. चाय की तलब और गर्म घूंट आपस में गडड्मड्ड होकर उसे हौसला दे गए, लगा कन्धों पर बैठे उक़ाब जैसे उड़ना चाहते हों.

'मुझे बाहर जाना होगा.' वह आख़िरी घूंट पीकर बोली और किचन से उसने बड़ा चाकू और कबाब सेंकने की लोहे की सीख़ें उठाईं. इतनी सर्दी में भी उसकी पेशानी पर पसीने की बूंदें झिलमिला रही थीं.

बाहर धूप का गुलाबी ग़ुबार फैला था.

वह तेज़ी से सीढ़ियां उतरी और गली पार कर घर के पिछवाड़े पहुंची. चारों तरफ़ से पेड़ों से घिरा कभी वह एक छोटा-सा बग़ीचा होगा जो अब जंगली झाड़ियों से भरा था. उसे लगा कि एक तीली लगा देने से यह सारी सुनहरी कत्थई झाड़ियां घंटे भर में जलकर राख हो जाएंगी फिर...

अगर सुरक्षा पुलिस या फ़ौज का कोई सिपाही धुआं देखकर आ गया तो...उसका सारा बदन पसीने से सराबोर हो गया.

'तब क्या होगा? तब क्या होगा?'

कह देगी, वह कह देगी कि हां वह इस बंजर ज़मीन में सब्ज़ी बोएगी, हां-हां, यही कहेगी वह...

उसने लगभग दौड़ते हुए गली पार की और किचन का दराज़ खोल सिगरेट के पुराने लाइटरों के बीच नया लाइटर तलाश करने लगी. जब उसे नहीं मिला तो वह झुंझलाई हुई बेडरूम की तरफ़ बढ़ी और लाइटर उठा तेज़ी से बाहर की तरफ़ निकली.

किनारे खड़ी कुछ देर वह सूखी झाड़ियों के सुनहरे कत्थई रंग को गुलाबी रंगत में घुलता देखती रही फिर हाथ में पकड़ा लाइटर उसने जलाया एक बार, दो बार, तीन बार मगर हर बार अंगूठा फिसल जाता और शायद यह उसका डर ही था, जो निशाना हर बार ख़ता हो रहा था. वह घुटने के बल बैठ गई और अख़बार के उड़ते टुकड़ों को जमा कर आग के सुपुर्द करने की भरपूर कोशिश की.

इस बार पहले ही झटके में लाइटर से नीली लौ निकली और काग़ज़ के टुकड़े ने आग पकड़ ली. अपने काले वजूद को केंचुली की तरह छोड़ता अख़बार का वह टुकड़ा नन्हीं लपटों में तब्दील हो झाड़ियों से बग़लगीर हो उठा. चर-चर की आवाज़ करती नारंगी, पीली लपटों ने रफ्तार पकड़ ली. उसकी शल्ल पड़ती जांघों में गर्मी पहुंची और देखते-देखते वह पूरा बग़ीचा जलकर राख और अंगारों में बदल गया. उसे महसूस हुआ जैसे कोई देर तक रोने के बाद आख़िरी सुबकियां ले रहा हो.

उसने लम्बी सांस ली जिसमें सुकून का हलका अहसास था. वह जैसे ही पीछे मुड़ी तो धक से रह गई.

उसकी फटी आंखें सामने जमी थीं. बदन का ख़ून जम गया और दिमाग़ में एक साथ झुंझलाहट, ग़ुस्सा और खौफ़ के दायरे बनने-बिगड़ने लगे थे.

'यह सब क्या है?' सामने वही फ़ौजी दूसरे घर की मुंडेर पर चढ़ा उसे घूर रहा था. उसकी आंखों में जिज्ञासा और ताज्जुब था. चेहरे पर कुटिल मुस्कान.

'कुछ भी नहीं.' उसने ढिठाई से कहा और क़दम आगे बढ़ाया जैसे कहा हो, 'चल भाग यहां से लाल मूंहवाले बन्दर, हर पल हमारी जि़न्दगी में टांग अड़ाने चला आता है.'

'ठहरो!'

वह तंग गली में कूदा और जले हिस्से को गहरी नज़रों से देखता हुआ बोला, 'मैं कुछ पूछ रहा हूं.'

'सफ़ाई, गन्दगी थी.'

'कल रात तुम्हारा शौहर चल बसा और तुम यहां सफ़ाई में लगी हो, आर यू क्रेज़ी?' लहज़े में डपट थी. चेहरे पर ग़ुस्से का भाव.

'तो फिर मुझे क्या करना चाहिए?' उसने ज़हरीले लहज़े से शोला उगलती आंखें ऊपर उठा पूछा.

'यह तो तुम्हें पता होना चाहिए कि इस वक्त तुम्हें क्या करना चाहिए?' उसने सख़्त लहज़े से कहा.

कुछ पल खामोशी रही.

अफ़सर उसके क़रीब जाकर खड़ा हुआ और कन्धे पर पिस्टल की नोक चुभोकर बोला, 'मुंह में ज़बान है?

'उसे यहां दफ़नाना है.' कहते-कहते उसकी इल्तजा से भरी आंखें उठीं मगर दूसरे पल उसकी गैरत को गहरी चोट लगी, किसी अजनबी शख़्स के सामने अपनी बेचारगी का दुखड़ा यूं बयान करते हुए. लाख ज़ब्त के बावजूद वह अपने आंसू रोक नहीं पाई. उसे अपने बेवक्त के रोने पर भी ग़ुस्सा आ रहा था. उसका बदन किसी तने की तरह सीधा होकर भी किसी नाज़ुक शाख़ की तरह लरज़ रहा था.

'स्टाप क्राइंग,' उसने झुंझलाए लहज़े से कहा और स्थिति को समझने की कोशिश की. बात समझने के बाद वह आगे बढ़ा. उसका शाना हमदर्दी से थपथपाना चाहा मगर बीच में ही ठिठककर रह गया जैसे नंगे तार को छूने की हिमाकत करने जा रहा हो. कुछ पल यूं ही गुज़र गए.

मां ने अपने बिखरेपन को समेटा और नज़रें चाकू और सीख़ पर गाड़ दीं. अफ़सर की नज़रें भी उधर घूम गईं. उसने आंख सिकोड़ दोनों चीज़ों को गौर से देखा, फिर औरत के चेहरे को. वह हल्के से मुस्कुराया जिसमें कुछ ऐसा भाव था जैसे किसी बच्चे के बड़े हौसले पर प्यार आए.

'तुम सचमुच में पागल औरत हो. घर जाओ! इन्तज़ार करो.' पिस्टल कमर में खोंसते हुए उसकी आवाज़ गूंजी मगर वह उसी तरह जड़ बनी खड़ी रही.

'यह मेरा हुक्म है,' लहज़ा मुलायम होने के बावजूद फैसलाकुन था.

उसने नज़रें उठाईं. उस अंग्रेज़ फ़ौजी को देखा और हज़ार शिकवे एक साथ ऊपरवाले से कर बैठी.

'याद रहे!' चलते हुए वह रुका और इतना कहकर उसने मां की आंखों में झांका जहां उसे सिर्फ नीले साफ़ आसमान का अक्स दिखा, जहां कोई जज़्बा परिन्दा बन उड़ान नहीं भर रहा था.

लड़कियां सारी रात रोने के बाद अब जागी-सोई-सी पड़ी थीं. उसे यह सोगवार सुबह जाने क्यों नई जि़न्दगी की दस्तक की तरह लगी. उसने लड़कियों को जगाया नहीं, ऊंघने दिया. शौहर के चेहरे को देखा. जि़न्दगी भर एक-दूसरे की ख़्वाहिशों के लेहाज़ को ही अपनी दौलत समझी और अब जब एक-दूसरे से जुदा होने का वक्त आया तो घर में था क्या जो आख़िरी सफ़र की तैयारी करती और अब वह सरफिरा गोरा हर तरह की रोक लगाकर चला गया है. जाने उसके दिमाग़ में क्या चल रहा है. वह सिर घुटनों पर टिकाकर बैठ गई.

वक्त को वह लम्हे लम्हे गुज़रता महसूस कर रही थी.

शौहर जितना भी प्यारा क्यों न हो, लाश तो दफ़नानी ही पड़ेगी...या खुदा, चलते हुए आसमानी किताब भी उठाना भूल गई थी. कम-से-कम मैं इस वक्त तलावत तो कर सकती...कैसी मजबूरी है.

'या उम्मी, इस तरह आप चुप क्यों हैं...बारह घंटों से ज़्यादा वक्त...' लैला ने मां की वीरान पड़ी आंखों में झांकते हुए कहा.

मां ने जवाब नहीं दिया मगर एक आंसू ज़रूर आंख से लुढ़क लैला के हाथों पर गिरा मगर दूसरी आंख उसी तरह खुश्क रही.

घर के दरवाज़े पर दस्तक के साथ कई क़दमों के एक साथ सीढ़ी चढ़ने की आवाज़ सुनाई पड़ी. वह चौंकी, तड़पी और थरथराते हुए खड़ी हो गई. उसका दिमाग़ जैसे सुन्न हो रहा था. आंखों के आगे अंधेरा.

लड़कियां सहमी खड़ी थीं. दूसरी दस्तक पर वह जैसे नीम-बेहोशी से जागी हों. लड़कियों को धक्का देकर उसने कमरे से निकाला और उन्हें ठेलती हुई हाल की तरफ़ ले गई, फिर उन्हें अन्दर ठूंसकर दरवाज़े पर कुंडी लगाई. उसके पैर कांप रहे थे. गला खुश्क था. कमज़ोरी के मारे चक्कर-से आ रहे थे.

'या मुश्किलकुशा!' कहती हुई वह आगे बढ़ी और जि़न्दगी का आख़िरी दांव जीतने की तैयारी में उसने दरवाज़ा खोला.

जो सोचा था वह सामने नहीं था.

उसने फटी आंखों से सबके चेहरे देखे और सिर से गिरा स्कार्फ जल्दी से गर्दन से उठा माथे पर ठीक किया और धीरे से बोली, 'कहिए?'

'हम आख़िरी रसूमात के लिए आए हैं.' सामने खड़े सियाह लिबासवाले ने कहा और दूसरे साथियों ने हामी भरी.

'वह मेरे शौहर...' वह हकलाकर बोली और बदहवासी में सोच बैठी यह सब जैसे चचा के भेजे लोग हों.

'अगर आप इजाज़त दें तो हम घर में दाख़िल हो अपना फ़ज़र् पूरा करें.' उसे दरवाज़े के सामने खड़ा देख कोई बोला.

'जी, जी,' उसने गहरी सांस भरी और कमरे की तरफ़ इशारा किया.

अंधेरा खामोश घर एकाएक आवाज़ों से भर गया. क़ारी की आवाज़ के साथ अगरबत्ती का धुआं कमरे में बादल बन लहराने लगा. पानी के गिरने की छल-छल आवाज़ और दुआ पढ़ने की मद्धिम गुनगुनाहट घर में तैर रही थी और वह हाल के बन्द दरवाज़े के सामने काली चादर ओढ़े सोगवार बनी बैठी थी. कितना अजीब था कि वह इस वक्त अलबनाही के गाने की आवाज़ अपने कानों में ज़्यादा ऊंची आवाज़ से गूंजती महसूस कर रही थी, जब वह नहाने में मगन हो गाता था.

लाश को कफ़नाने के बाद वे सब बाहर निकले तो उसने झपटकर दरवाज़ा बन्द किया और लड़कियों को बाप के आख़िरी दीदार के लिए बाहर बुलाया. हसरत से उसने शौहर के चेहरे पर अलविदा की आख़िरी नज़र डाली. उसे छूने और प्यार करने की तमन्ना दिल में घुटकर रह गई.

जब उसने दरवाज़ा खोला तो घर के सामनेवाली चौड़ी सड़क पर उसे बुलेटप्रूफ काले शीशोंवाली जीप दिखी मगर उसके दिमाग़ में कुछ

कौंधा नहीं. जनाज़ा घर की दहलीज़ पार कर काली लम्बी गाड़ी की तरफ़ बढ़ रहा था. सड़क पर आते-जाते इक्का-दुक्का लोग ठहरे फिर सबने रफ्तार पकड़ ली.

वह जाने क्या सोच एकाएक सीढ़ियां उतर जनाज़े के पीछे बिना सिर ढके नंगे पांव भागी. उसकी दीवानगी देख किसी एक ने पलटकर कहा, 'आपकी जि़म्मेदारी ख़त्म होती है.'

उसके भागते पैर किसी पेड़ की तरह जम-से गए.

दूसरे लम्हे वह मक़नातीसी खिंचाव के चलते घर की तरफ़ मुड़ी. सूखे पत्तों की चरमराहट का शोर उसके क़दमों से उठ रहा था. सीढ़ी पर बैठ जब आंसुओं से भीगी आंखों को उसने पोंछा और नज़रें उठा सामने देखा तो वहां कोई न था. सड़क खाली थी.

वह सीढ़ी से उठकर अन्दर आई.

घर में भी अब कौन था, मालिक तो विदा हो गया था. जहां से अभी गहवारा उठकर बाहर गया था, उसी जगह वह औंधी लेट गई.

उसके कांपते हाथ पक्के फ़र्श पर कुछ टटोल रहे थे. और आंखों के सोते उबल रहे थे. सोगवारी के चन्द माह वह किसी बेवा की तरह 'इद्दत' में न गुज़ार सकी. उसे पुरसा देने भी कोई न आया. फोन के तार शायद कट चुके थे. उसे सिर्फ एक ही बात सुकून दे जाती थी कि अलबनाही का आख़िरी सफ़र उसी तरह अंजाम पाया जैसे वह उस दुनिया में आया था. क़ब्र में वह अपने आमाल जाने फ़रिश्तों के सामने क्या कहना है मगर वह दर्द से आज़ाद हो गई कि उसने अपने शौहर को नए कफ़न की जगह पुराने कपड़ों में बिना रस्म व रिवाज के दफ़न कर दिया है.

छह माह कैसे पलक झपकते गुज़र गए, पता ही न चला. मगर वह अपने शौहर को एक दिन भी नहीं भूल पाई. अकेले बिस्तर पर तन्हा करवटें बदल न वह भूख से कुलबुलाती अंतड़ियों को आराम दे पाती थी, न उन यादों से छुटकारा ले पाती जो उसके शौहर की परछाइयां बन उसके चारों तरफ़ रक्स करती उसे महसूस होती थीं. उसे अजीब तरह की तलाझनी हरदम अपनी गिरफ्त में लिये रहती कि अब आगे क्या होनेवाला है. उसके पास जि़न्दगी की पहेली का कोई हल न था सिवाय तारीकी में तैरने के.

'यह पांच क़ीमती मोती हमेशा आबदार बने रहें.' हर रोज़ रात को हज़ारों बार दोहराई जानेवाली दुआ उसने दिल की गहराइयों से अदा की और आंखें बन्द कर लीं.

पास के कमरे से बेटियों की आवाज़ अब आना बन्द हो गई थी. उसने वक्त का अन्दाज़ा लगाया मगर समझ नहीं पाई कि रात आधी गुज़र चुकी है या.... घड़ी की टिकटिक से एक वहशत-सी दिल में घिरती थी. वक्त अपने गुज़रने का एलान कुछ इस तरह करता कि वे सब उसके आगे जवाबदेह हो उठतीं. इसलिए उसको वह बेच आई.

'अच्छा किया मैंने,' उसने सन्तोष की सांस ली और तकिए पर सिर रखा तो लगा अलबनाही की गर्म सांसें उसके चेहरे को दुलार रही हैं.

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रचनाएँ
अजनबी जज़ीरा
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हिन्दी की वरिष्ठ कथाकार नासिरा शर्मा के लेखन की सर्वोपरि विशेषता है सभ्यता, संस्कृति और मानवीय नियति के आत्मबल व अन्तःसंघर्ष का संवेदना-सम्पन्न चित्रण। उनके कथा साहित्य के सरोकार ग्लोबल हैं। उनका कथाकार सन्तप्त और उत्पीड़ित मनुष्यता के पक्ष में पूरी शक्ति के साथ निरन्तर सक्रिय रहा है। ‘अजनबी जज़ीरा’ नासिरा शर्मा का नया उपन्यास है। ‘अजनबी जज़ीरा’ में समीरा और उसकी पाँच बेटियों के माध्यम से इराक़ की बदहाली बयान की गई है। ग़ौरतलब है कि दुनिया में जहाँ कहीं ऐसी दारुण स्थितियाँ हैं, यह उपन्यास वहाँ का एक अक्स बन जाता है। छोटी-से-छोटी चीज़ को तरसते और उसके लिए विरासतों-धरोहरों-यादगारों को बाज़ार में बेचने को मजबूर होते लोग; ज़िन्दगी बचाने के लिए सबकुछ दाँव पर लगाती औरतें और विदेशी आक्रमणकारियों की प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष निगरानी में साँस लेते नागरिक—ऐसी अनेक स्थितियों-मनःस्थितियों को नासिरा शर्मा ने इस उपन्यास के पृष्ठों पर साकार कर दिया है। पतिविहीना समीरा अपनी युवा होती बेटियों के वर्तमान और भविष्य को लेकर फ़‍िक्रमन्द है। बारूद, विध्वंस और विनाश के बीच समीरा ज़िन्दगी की रोशनी व ख़ुशबू बचाने के लिए जूझ रही है। उपन्यास समीरा को चाहनेवाले अंग्रेज़ फ़ौजी मार्क के पक्ष से क्षत-विक्षत इराक़ की एक मार्मिक व्याख्या प्रस्तुत करता है। समीरा और मार्क की प्रेमकहानी अद्भुत है, जिसमें ज़‍िम्मेदारियों के हस्सास रंग शिद्दत से शामिल हैं। घृणा और प्रेम का सघन अन्तर्द्वन्द्व इसे अपूर्व बनाता है। लेखिका यह भी रेखांकित करती है कि ऐसे परिदृश्य में स्त्री-विमर्श के सारे निहितार्थ सिरे से बदल जाते हैं। सभ्य कहे जानेवाले आधुनिक विश्व में विध्वंस का यह यथार्थ स्तब्ध कर देता है। विध्वंस की इस राजनीति में क्या-क्या नष्ट होता है, इसे नासिरा शर्मा की बेजोड़ रचनात्मक सामर्थ्य ने ‘अजनबी जज़ीरा’ में अभिव्यक्त किया है।

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