प्रकाशक : सूरज पॉकेट बुक्स l
अस्सी और नब्बे के दशक में पल्प फिक्शन का काफी बोलबाला हुवा करता था ,
तब मनोरंजन के साधन कमतर होने कारण पल्प फिक्शन का बाजार ख़ासा मुनाफे का था l
हर बार नए नए लेखक उभरते ,नए नए पात्र बनते, कुछ पात्र अच्छे होते ,
कुछ बुरे तो कुछ ग्रे शेड लिए हुए l
इन्हें पल्प फिक्शन कहकर हमेशा से साहित्य की मुख्यधारा से अलग रखा गया ,
वजह थी इनकी कैची लैंग्वेज ,भाषा ,कहानी कहने का तरीका ,
और छपाई की क्वालिटी l
किन्तु साहित्य की दुनिया में अछूत मानी जानेवाली यही पल्प फिक्शन बिक्री
में सबसे आगे रहती थी l
उस समय पल्प फिक्शन यानी लुगदी साहित्य बड़े ही निम्नस्तर
के पेजेस पर छपा करता था ,जो लुगदी से बना होता था ,
जिस कारण उपन्यास की मोटाई भी काफी दिखती l
लेकिन बदलते समय के साथ ही साथ लुगदी साहित्य भी कही पीछे छूट गए ,
रह गए तो केवल कुछ धुरंधर लेखक जो अभी भी इस विधा को आगे बढ़ा रहे है
किन्तु बदले हुए स्वरूप में l
जिनमे से वेद प्रकाश शर्मा एवं सुरेन्द्र मोहन पाठक जी का नाम प्रमुखतया है l
अब लुगदी साहित्य लुगदी नहीं रहा ,
उसका स्वरूप अब चमकदार व्हाईट पेपर और ग्लोसी कवर ने ले ली ,
अब लुगदी साहित्य हार्पर कॉलिन्स जैसे प्रकाशनों से भी छपने लगी थी l
यदि इन गिनती के लेखको के नाम छोड़ दिये जाए तो बमुशिकल ही कोई
और मिलेगा जो इस साहित्य को आगे बढ़ाने को तत्पर होगा l
अस्सी और नब्बे के इसी जूनून को अपने में समेटे कुछ लोग आज भी इस विधा
को आगे बढ़ाने का प्रयास कर रहे है जो वाकई सराहनीय है l
मेरी ही जानकारी में कुछ मित्र है जो इस जूनून से ग्रस्त है ,
इनमे से एक है ‘’कंवल शर्मा ‘’ जी एवं ‘’शुभानन्द जी ‘’l
शुभानन्द जी बाल पॉकेट बुक्स के बेताज बादशाह कहे जाने वाले
‘’एस सी बेदी ‘’ के बड़े फैन है ,उनकी बाल पॉकेट बुक्स एवं उनके
लिखे चरित्रों ‘’राजन-इकबाल ‘’ की दीवानगी में उन्होंने राजन-इकबाल को
आधार बना कर कई उपन्यास लिख डाले l
और अपने इसी जूनून में वे एक कदम आगे की ओर बढ़ कर प्रकाशन
क्षेत्र में भी उतर चुके है , वे जिनके दीवाने थे वे ‘’एस सी बेदी ‘’ भी
अब इनके प्रकाशन ‘’सूरज पॉकेट बुक्स ‘’ में राजन इकबाल सीरिज का एक
नया उपन्यास लिख रहे है ,वो भी काफी अंतराल के बाद l
पल्प फिक्शन की इसी कड़ी में बात करूँगा शुभानन्द जी द्वारा लिखित ‘’कमीना ‘’
के बारे में ,जो उनके द्वारा रचित पात्र ‘’जावेद-अमर-जॉन ‘’
सीरिज का तीसरा उपन्यास है l
इसकी कहानी है अभिषेक मिश्रा की , वो कहानी का सूत्रधार भी है l
अभिषेक छोटे शहर का एक अति महत्वकांक्षी युवक है ,
वो जीवन में आगे बढ़ने के लिए कुछ भी कर सकता है l
लेकिन वह जानता है के उसकी यह लालसा छोटे शहर में पूरी होने से रही ,
इसलिए वह राह पकड़ता है मुंबई की l
अभिषेक केवल नौवी तक पढ़ा बंदा है ,लेकिन दिमाग लोमड़ी की तरह शातिर है l
कुछ छोटे मोटे काम करने के बाद उसने हाथ थामा दिलावर का ,जो ड्रग माफिया था ,
और उसका ड्रग नेटवर्क गोवा तक फैला हुवा था l
दिलावर जो अनुभवी ड्रग डीलर था ,किन्तु इसके बावजूद उसके काम में जोखिम अधिक था ,
ड्रग डील में हुयी पुलिस की झड़पो से कई बार उसका नुकसान भी हुवा था l
अभिषेक ने दिलावर के गैंग में कदम रखते ही अपनी दूरदर्शिता एवं लोमड़ी सी बुद्धि
का प्रयोग करना शुरू कर दिया, अभिषेक ने अपने तरीके से काम को सम्भाला ,
दिलावर अभिषेक से प्रभावित हो गया था वह उसकी क्षमता को आँक चूका था ,
जहा दिलावर का दिमाग खत्म होता था वहा से अभिषेक का शुरू होता था l
इस बात का अहसास दिलावर को जब हुवा तब तक बहुत देर हो चुकी थी l
अभिषेक किसी के रोके न रुकने वाला था l
किन्तु फिर इसका रास्ता काटा ‘’जावेद-अमर-जॉन ‘’ रूपी बिल्लियों ने ,
लेकिन अभिषेक भी कोई चूहा न था जिसे बिल्ली हजम कर जाये वह ऐसा
छछुन्दर था जिसे सांप भी न निगल पाए न उगल पाए l
फिर शुरू हुवा ‘’तू डाल डाल मै पात पात ‘’ का खेल जिसमे जीत किसकी होनी है
यह उपन्यास के अंतिम पृष्ठ ही बताएँगे l
लेखन शैली की बात करे तो कमीना पढ़ते समय आपको लगता है के आप वाकी पल्प
फिक्शन पढ़ रहे है न की पल्प के नाम पर काले पन्ने l
कहानी शुरू से अंत तक कसावट लिए हुए है , कही भी ऐसा न लगा के कहानी
अपनी पकड खो रही है l 164 पृष्ठों की इस कहानी में नकारात्क किरदार अभिषेक
ही हर जगह छाया रहा है l इसकी प्रेजेंस इतनी पावरफुल है के उसके सामने
जावेद-अमर-जॉन मेहमान कलाकार मात्र रह गए l
कैरेक्टर डिजायनिंग बढ़िया है ,चाहे अभिषेक हो या भदेस ‘’दिलावर ‘’ ,
सबकी रूपरेखा इस तरह रखी गयी है के पढ़ते समय इनका एक अक्स
दिमाग में उभर आता है l
नैरेशन भी समां बाँधने में कामयाब है ,अभिषेक खुद अपनी कहानी का सूत्रधार है ,
अपने लिए गए एक-एक कदम का उसे संज्ञान है किन्तु फिर भी उसे किसी चीज की
ग्लानी नहीं है ,न कोई रंज है l
इसके चरित्र पर शीर्षक एकदम उपयुक्त और सटीक है l
सारी बातो का सार यह के थ्रिलर ,सस्पेंस एवं रोमांच पसंद पाठको को यह उपन्यास
अवश्य पसंद आएगा यदि कही और तुलना न की जाए तो l
यदि हम नए नवेले उपन्यासकारो की तुलना ‘’वेद प्रकाश ‘’ एवं ‘पाठक ‘’
जी से करने लग जाए और उसी चश्मे से पढना शुरू करे तो यकीन मानिए यदि
लेखक ने बेहतर भी लिखा हो तो भी आप उसे कमतर ही समझेंगे l
इसलिए इसे पढना हो तो पहले से बनाए दायरों से थोडा निकल कर पढ़े तब
ज्यादा मजा आयेगा और पसंद भी आयेगी l