6 अगस्त 2016
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हिन्दी साहित्य के प्रति रुझान, अपने विचारो की अभिव्यक्ति अपने ब्लॉग के माध्यम से आप सब को समर्पित करता हूँ|
आफिस का अंतिम दिन था, छोड़ना था शहर बस यही सोचता हूँ, कि कैसा होगा सफ़र... उम्मीदे थी बहुत सारी, निकलना था दूरसुबह से ही जाने क्यो, छाया था सुरूरबैठे-२ हो गयी देखो सुबह से सहर कैसा होगा सफ़र......शाम कल की थी, तब से थे तैयारसाथ सब ले लिया, जिस पर था अधिकारचल दिए अकेले ही पर नयी थी डगर
कितनी शांत सफेद पड़ीचहु ओर बर्फ की है चादरजैसे कि स्वभाव तुम्हाराकरता है अपनो का आदर||जिस हिम-शृंखला पर बैठाकितनी सुंदर ये जननी है|बहुत दिन हाँ बीत गयेबहुत सी बाते तुमसे करनी है||कभी मुझे लूटने आता हैक्यो वीरानो का आगाज़ करेयहाँ दूर-२ तक सूनापनजैसे की तू नाराज़ लगे||एक चिड़िया रहती है यहाँपास पेड़ क
अगर भगवान तुम हमको, कही लड़की बना देतेजहाँ वालों को हम अपने, इशारो पर नचा देते||पहनते पाव मे सेंडल, लगते आँख मे काजलबनाते राहगीरो को, नज़र के तीर से घायल ||मोहल्ले गली वाले, सभी नज़रे गरम करतेहमे कुछ देख कर जीते, हमे कुछ देख कर मरते||हमे जल्दी जगह बस मे, सिनेमा मे टिकट मिलतीकिसी की जान कसम से, हमारी
प्यार नाम है प्यार नाम है बरसात मे एक साथ भीग जाने काप्यार नाम है धूप मे एक साथ सुखाने का ||प्यार नाम है समुन्दर को साथ पार करने काप्यार नाम है कश्मकस मे साथ डूबने का||प्यार नाम है दोनो के विचारो के खो जाने काप्यार नाम है दो रूहो के एक हो जाने का||प्यार नाम नही बस एक दूसरे को चाहने काप्यार नाम ह
चाहने वालो के लिए एक ख्वाब हो गयी सब कहते है क़ि तू माहताब हो गयी जबाब तो तेरा पहले भी नही था पर सुना है क़ि अब और लाजबाब हो गयी|| कवि:- शिवदत्त श्रोत्रिय
हर मोड़ पर मिलते है यहाँ चाँद से चेहरेपहले की तरह क्यो दिल को नही भाते ||बड़ी मुद्दतो बाद लौटे हो वतन तुम आजपर अपनो के लिए कुछ आस नही लाते ||काटो मे खेल कर जिनका जीवन गुज़राफूलो के बिस्तर उन्हे अब रास नही आते||किसान, चातक, प्यासो आसमा देखना छोड़ोबादल भी आजकल कुछ खास नही आते ||
बेटो के बीच मे गिरे है रिश्तो के मायनेकैसे कहूँ कि इस झगड़े की वजह मे नही हूँ |कुछ और दिन रुक कर बाट लेना ये ज़मींमाना मै मर रहा हूँ, लेकिन मरा नही हूँ ||
किस्मत क्या है, आख़िर क्या है किस्मत? बचपन से एक सवाल मन मे है, जिसका जबाब ढूंड रहा हूँ| बचपन मे पास होना या फेल हो जाना या फिर एक दो नंबर से अनुतीर्ण हो जाना, क्या ये किस्मत थी? आपके कम पढ़ने के बाबजूद आपके मित्र के आपसे ज़्यादा नंबर आ जाना, क्या ये किस्मत थी? स्कूल स
रातभर तुम्हारे बारे मे लिखा मैने उस रात नीद नही आ रही थी, कोशिश थी भुला के तेरी यादे बिस्तर को गले लगा सो जाऊ पर कम्बख़्त तू थी जो कहीं नही जा रही थी|| नीद की खातिर २ जाम लगाए, सोचा कि सोने के बाद हमारी बातो को मै कागज पर उतारूँगा एक कागज उठा सिरहाने रख कर मे सो गया
गुमनाम राहो पर एक नयी पहचान हो जाए चलो कुछ दूर साथ तो, सफ़र आसान हो जाए|| होड़ मची है मिटाने को इंसानियत के निशान रुक जाओ इससे पहले, ज़हां शमशान हो जाए|| वक़्त है, थाम लो, रिश्तो की बागडोर आज ऐसा ना हो कि कल, भाई मेहमान हो जाए|| इंसान हो इंसानियत के हक अदा कर दो
कवि:- शिवदत्त श्रोत्रियहर पहर, हर घड़ी रहता है जागताबिना रुके बिना थके रहता है भागताकुछ नही रखना है इसे अपने पाससागर से, नदी से, तालाबो से माँगतादिन रात सब कुछ लूटाकर, बादलदाग काला दामन पर सहता यहाँ है||देने वाला देकर कुछ कहता कहाँ है...हर दिन की रोशनी रात का अंधेराजिसकी वजह से है सुबह का सवेराअगर र
कवि:- शिवदत्त श्रोत्रियसब कुछ है धोखा कुछ कहीं नही हैहै हर कोई खोया ये मुझको यकीं हैना है आसमां ना ही कोई ज़मीं हैदिखता है झूठ है हक़ीकत नही है||उपर है गगन पर क्यो उसकी छावं नही है?है सबको यहाँ दर्द मगर क्यो घाव नही है?मै भी सो रहा हूँ, तू भी सो रहा हैये दिवा स्वपन ही और कुछ भी नही है||मैने बनाया
कवि: शिवदत्त श्रोत्रियसरहद, जो खुदा ने बनाई||मछली की सरहद पानी का किनाराशेर की सरहद उस जंगल का छोरपतंग जी सरहद, उसकी डोर ||हर किसी ने अपनी सरहद जानीपर इंसान ने किसी की कहाँ मानी||मछली मर गयी जब उसे पानी से निकालाशेर का न पूछो, तो पूरा जंगल जला डाला ||ना जाने कितनी पतंगो की डोर काट दीना जाने कितनी स
कवि: शिवदत्त श्रोत्रियअगर दोनो रूठे रहे, तो फिर मनाएगा कौन?लब दोनो ने सिले, तो सच बताएगा कौन?तुम अपने ख़यालो मे, मै अपने ख़यालो मेयदि दोनो खोए रहे, तो फिर जगाएगा कौन?ना तुमने मुड़कर देखा, ना मैने कुछ कहाँऐसे सूरते हाल मे, तो फिर बुलाएगा कौन?मेरी चाहत धरती, तुम्हारी चाहत आसमानक्षितिज तक ना चले, तो म
एक रात समाचार है आयापाँच सौ हज़ार की बदली माया५६ इंच का सीना बतलाकरजाने कितनो की मिटा दी छायावो भी अंदर से सहमा सहमापर बाहर से है अखरोटजब से बदल गया है नोट.... व्यापारी का मन डरा डरा हैउसने सोचा था भंडार भरा हैहर विधि से दौलत थी कमाईलगा हर सावन हरा भरा हैएक ही दिन मे देखो भैयाउसको कैसी दे गया चोटजब
चेहरा छिपाने, चेहरे पर लगाए रखी है दाढ़ीमाशूका की याद मे कुछ बढ़ाए रखी है दाढ़ी||दाढ़ी सफेद करके, कुछ खुद सफेद हो लिएकितने आसाराम को छिपाए रखी है दाढ़ी ||दाढ़ी बढ़ा कर कुछ, दुर्जन डकैत कहाने लगेकुछ को समाज मे साधु बनाए रखी है दाढ़ी ||चोर की दाढ़ी मे तिनका, अब कहाँ मिलता हैचोरों ने तो यहाँ कब की कटाए
कवि: शिवदत्त श्रोत्रियहम उस गुलशन के गुल बन गयेजहाँ अब बाग़बान नही आताकुछ पत्ते हर रोज टूट कर, बिखर जाते हैपर कोई अब समेटने नही आता ॥क्योकिअब बाग़बान नही आता॥कुछ डाली सूख रही है यहाँकुछ पर पत्ते मुरझाने लगे हैहवा ने कुछ को मिटटी में मिला दिया हैकुछ किसी के इन्तेजार में है ॥क्योकिअब बाग़बान नही आता
कवि: शिवदत्त श्रोत्रियबेटी तुम्हारे आँचल में जहां की खुशियां भर देती हैतुम्हारी चार दीवारों को मुकम्मल घर कर देती है ॥बेटी धरा पर खुदा की कुदरत का नायाब नमूना हैबेटी न हो जिस घर में, उस घर का आँगन सूना है ॥बेटी माँ से ही, धीरे-धीरे माँ होना सीखती जाती हैबेटी माँ को उसके बचपन का आभास कराती है ॥बेटी
कवि: शिवदत्त श्रोत्रियछोड़ा घर सोच कर, किस्मत आजमाना पर क्यों ना लौट मैं, कोई करके बहाना जन्नत ढूंढता था, जन्नत से दूर होकर माँ-बाप के पैर छुए हुआ एक जमाना ॥
मेरे गुनाहों को अब नजर अंदाज करके बनाओ तुम मुझे, खुद को खराब करके ||किस कदर टूट चुका है अब वो देखरात गुजारता है, जिस्म को शराब करके ||अपने हिस्से की चाहत चाहता हर कोईचैन कहाँ है ,मोहब्बत बे- हिसाब करके ||उजड़ा हुआ है यहाँ हर साख का मंजरसोचा चमन से गुजरेगा सब पराग करके ||ये शहर बड़ी जल्दी इतना बड़ा हो ग
अंतिम यात्रा, भाग -१किसी की चूड़ियाँ टूटेंगी,कुछ की उम्मीदे मुझसेविदा लेगी रूह जबमुस्करा कर मुझसेकितनी बार बुलाने भी जोरिश्ते नहीं आयेदौड़ते चले आएंगे वो तब आँशु बहायेकितने आँशु गिरेंगे तबजिस्म पर मेरेरुख्सती में सब खड़े होंगे मेरी मिटटी को घेरे ||अंतिम बार फिर नहलाया जायेगाबाद सजाया जायेगाअंतिम दर्श
करो वंदना स्वीकार प्रभोवासना से मुक्त हो मन, हो भक्ति का संचार प्रभोजग दलदल के बंधन टूटे हो भक्तिमय संसार प्रभो ॥वाणासुर को त्रिभुवन सौपा चरणों में किया नमस्कार प्रभोभक्तो पर निज दृष्टि रखना करुणा बरसे करतार प्रभो ॥कण-२ में विद्धमान हो नाथ तुम निराकार साकार प्रभोदानी हो सब कुछ दे देते
मैंने एक ख्वाब देखा था, तुम्हारी आँखों मेंहक़ीक़त बन जाये मगर ये हो न सका ||एक कश्ती ले उतरेंगे समुन्दर की बाहों मेंकोई मोड़ न होगा फिर अपनी राहों मेंनीला आसमां होगा जिसकी छत बनाएंगेसराय एक ही होगी ठहर जायेंगे निगाहों मेंएक लहर उठाएँगी एक लहर गिराएगीगिरेंगे उठेंगे मगर
भारत दिखलाने आया हूँरंग रूप कई वेष यहाँ पररहते है कई देश यहाँ परकोई तिलक लगाकर चलताकोई टोपी सजा के चलताकोई हाथ मिलाने वालाकोई गले लगाकर मिलताकितने तौर-तरीके, सबसे मिलवाने आया हूँक्या तुम हो तैयार? भारत दिखलाने आया हूँएक कहे मंदिर में रब हैदूजा कहे खुदा में सब हैतीजा कहे चलो गुरुद्वाराचौथा कहे कहाँ औ
अच्छा लगता हैकवि: शिवदत्त श्रोत्रियकभी-कभी खुद से बातें करना अच्छा लगता हैचलते चलते फिर योहीं ठहरना अच्छा लगता है ||जानता हूँ अब खिड़की पर तुम दिखोगी नहींफिर भी तेरी गली से गुजरना अच्छा लगता है ||शाख पर रहेगा तो कुछ दिन खिलेगा तू गुलतेरा टूटकर खुशबू में बिखरना अच्छा लगता है ||आईने तेरी जद से गुजरे हु
काम और उम्र के बोझ से झुकने लगा हूँ मैंअनायास ही चलते-चलते अब रुकने लगा हूँ मैंकितनी भी करू कोशिश खुद को छिपाने कीसच ही तो है, पिता के जैसा दिखने लगा हूँ मैं ||
मिले नज़र फिर झुके नज़र, कोई इशारा तो होयो ही सही जीने का मगर, कोई सहारा तो हो ||स्कूल दफ़्तर परिवार सबको हिस्सा दे दियाजिसको अपना कह सके, कोई हमारा तो हो ||उलझ गये है भँवर मे और उलझे ही जा रहेकोई राह नयी निकले, कोई किनारा तो हो ||टूटे हुए सितारो से माँगते है सब फरियादेंकुछ हम भी मांग ले, कोई सितारा
जब भी भटकता हूँ किसी की तलाश मेंथक कर पहुच जाता हूँ तुम्हारे पास मेंतुम भी भटकती हो किसी की तलाश मेंठहर जाती हो आकर के मेरे पास मेंहर दिन भटकते रहे चाहे इस दुनियाँ मेंमिलते रहे आपस में दूसरो की तलाश में ||
अगर तुमने प्रेम नही कियातो कैसे जान पाओगे मुझकोकिसी को जी भरकर नही चाहाकिसी के लिए नही बहायाआँखों से नीर रात भरकिसी के लिए अपना तकिया नहीभिगोया कभीनही रही सीलन तुम्हारे कमरेमे अगर कभीतो कैसे जान पाओगे मुझको ||हृदय के अंतः पटल सेअगर नही उठी कभी तरंगेनही बिताई रात अगरचाँद और तारो के साथनही सुनी कभी न
शाम को आने मे थोड़ी देरीहो गयी उसकोघर का माहौल बदल चुकाथा एकदमवो सहमी हुई सी डरी डरीआती है आँगन मेहर चेहरे पर देखती हैकई सवालसुबह का खुशनुमा माहौलधधक रहा था अबउसके लिए बर्फ से कोमल हृदय मेदावानल सा लग रहा थावो खामोश रह कर सुनती है बहुत कुछऔर रोक लेती है नीर कोआँखो की दहलीज परपहुचती है अपने कमरे मेजह
रेल से अजब निराली हैइस काया की रेल - रेल से अजब निराली है|ज्ञान, धरम के पहिए लागे,कर्म का इंजन लगा है आंगे,पाप-पुण्य की दिशा मे भागे,२४ घड़ी ये खुद है जागे,शुरु हुआ है सफ़र अभी ये गाड़ी खाली है||इस काया की रेल ............एक राह है रेल ने जानाजिसको सबने जीवन मानाहर स्टेशन खड़ी ट्रेन हैअंदर आओ जिसको
कभी सोचता हूँ किकभी सोचता हूँ किजिंदगी की हर साँस जिसके नाम लिख दूँवो नाम इतना गुमनाम सा क्यों है ?कभी सोचता हूँ किहर दर्द हर शिकन में, हर ख़ुशी हर जलन मेंहर वादे-ए-जिंदगी में, हर हिज्र-ए -वहन मेंजोड़ दूँ जिसका नाम, इतना गुमनाम सा क्यों है ?कभी सोचता हूँ किसुबह है, खुली है अभी शायद आँखें मेरीलगता ह
सागर कब सीमित होगाफिर से वो जीवित होगाआग जलेगी जब उसके अंदरप्रकाश फिर अपरिमित होगा ||सूरज से आँख मिलाएगाकब तक झूमेगा रातों में ?कब नीर बहेगा आँखों में ?छिपा कहाँ आक्रोश रहेगादेखो कब तक खामोश रहेगाज्वार किसी दिन उमड़ेगा सीमाएं सारी तोड़ेगावो सच तुमको बतलायेगाबातों से आग लगायेगाएक धनुष बनेगा बातों काबात
कुछ फायदा नहींमैं सोचता हूँ, खुद को समझाऊँ बैठ कर एकदिनमगर, कुछ फायदा नहीं ||तुम क्या हो, हकीकत हो या ख़्वाब होकिसी दिन फुर्सत से सोचेंगे, अभी कुछ फायदा नहीं ||कभी छिपते है कभी निकल आते है, कितने मासूम है ये मेरे आँशुमैंने कभी पूछा नहीं किसके लिए गिर रहे हो तुमक्योकि कुछ फायदा नहींतुम पूछती मुझसे तो
जबसे तुम गये हो लगता है की जैसे हर कोई मुझसे रूठ गया है हर रात जो बिस्तर मेरा इंतेजार करता था, जो दिन भर की थकान को ऐसे पी जाता था जैसे की मंथन के बाद विष को पी लिया भोले नाथ नेवो तकिया जो मेरी गर्दन को सहला लेता था जैसे की ममता की गोदवो चादर जो छिपा लेती थी मुझको बाहर की दुनिया सेआजकल ये सब नाराज़