कभी सोचता हूँ कि
कभी सोचता हूँ कि
जिंदगी की हर साँस जिसके नाम लिख दूँ
वो नाम इतना गुमनाम सा क्यों है ?
कभी सोचता हूँ कि
हर दर्द हर शिकन में, हर ख़ुशी हर जलन में
हर वादे-ए-जिंदगी में, हर हिज्र-ए -वहन में
जोड़ दूँ जिसका नाम, इतना गुमनाम सा क्यों है ?
कभी सोचता हूँ कि
सुबह है, खुली है अभी शायद आँखें मेरी
लगता है पर अभी से शाम क्यों है
फिर सोचता हूँ वजह, तेरा चेहरा नजर आता है
चेहरा है, पर नाम गुमनाम सा क्यों है?
कभी सोचता हूँ कि
लोग करते है फ़रिश्तो से मिलने की फ़रियाद
तेरे तसवुर में हमें रहता नहीं कुछ भी याद
वो हाल जिसे छिपाने की कश्मकश में हूँ
मेरी निगाहों में सरेआम सा क्यों है ?
कभी सोचता हूँ कि....