कवि: शिवदत्त श्रोत्रिय
सरहद , जो खुदा ने बनाई||
मछली की सरहद पानी का किनारा
शेर की सरहद उस जंगल का छोर
पतंग जी सरहद, उसकी डोर ||
हर किसी ने अपनी सरहद जानी
पर इंसान ने किसी की कहाँ मानी||
मछली मर गयी जब उसे पानी से निकाला
शेर का न पूछो, तो पूरा जंगल जला डाला ||
ना जाने कितनी पतंगो की डोर काट दी
ना जाने कितनी सरहदे पार कर दी ||
धीरे-२ खुदा की सारी खुदाई नकार दी
सरहदे बना के बोला दुनिया सवार दी
कुछ सरहदे रंग-रूप की, कुछ जाति-धर्म की
कुछ लिंग-भेद की, कुछ अमीरी ग़रीबी की......
धर्मो के आधार पर, मुल्क बना डाले
अपनो के ही ना जाने कितने घर जला डाले||
भाई ने आगन मे दीवार खीच सरहद बना डाली
चारपाई कैसे बाँटता इसलिए होली मे जला डाली||
हर तरफ इंसान की बनाई सरहदों का दौर है
ये ग़लती है हमारी, आरोपी नही कोई और है||