रावत-राजपूतों का इतिहासMarch 20·क्षत्रिय रावत राजपुत :~ईतिहासकारों ने " रावत " का संधि विच्छेद ईस प्रकार किया हैं :-रा = राजपुताना,व = वीर औरत = तलवार,अर्थात राजपुताना के बहुधा बलशाली , पराक्रमी क्षत्रिय शूरवीर जो तलवार के धनी हैं, वे रावत राजपुत कहलाते हैं| यह राज्य की ओर से मिली हुई एक पदवी है जो १० हाथियो की सेना से मुकाबला करने वाले राजपूत शूरवीर योध्दा को प्रदान की जाती थी | इस पदवी का अर्थ राजपुत्र (युवराज ) , प्रधान , प्रतापी शूरवीर , पराक्रमी योध्दा होता है ।रावत की पदवी की गरिमा को किसी ने ईन शब्दों में बखान किया हैं :-सौ नरों ऐक शुरमा, सौ शुरो ऐक सामन्त | सौ सामन्त के बराबर होत हैं, ऐक रावत राजपुत ॥किसी रावत वीर ने अपने परिचय में कहा हैं की :- मैं हों, अजमेरा का राव, रावत राजपुत मोंरी जात | आ, रवताई रावत बीहल ने मिल, हुई बात विख्यात ॥छत्तीसगढ़ के बहुप्रचलित राऊत शब्द का संधि विच्छेद करने से दो शब्द बनते है-रा ऊत यानि राजपुत्र अर्थात राऊत वे है जो क्षत्रिय वर्ग में अपने गुणो और कर्त्तव्यो में राजपुत्र कहलाते है । रावत शब्द राजपुत्र का ही अपभ्रंश है ।राजपूत काल मे रावत जाति न होकर चौहान,गहलौत, परमार,सिसोदिया, पवाँर, गहड़वालआदि राजघरानो में पराक्रमी शासक वर्ग की विरूद थी जो दरबार में सम्मान तथा बड़प्पन का सूचक होती थी ।इन राजघरानोमें रावत पदवी से सम्मानित शूरवीर रावत-राजपूत कहलाते है जो क्षत्रियोंमें अपनी विशेष पहचान रखते है ।मेवाड़ के क्षत्रिय राजघराने में 'रावत' पदवी से सुशोभित शूरवीर राजपूतोके ऐतिहासिक महत्वपूर्ण तथ्यो की जानकारी इस प्रकार है :~ (i). राजस्थान के ३६ राजवंशो में मेवाड़ के राजवंश का श्रेष्ठ स्थान है । बाप्पा के वंशजो में ही महाराणा लक्षसिंह के पुत्र युवराज चूण्डा को माँण्डू के सुल्तान होशंगशाह द्वारा 'रावत' (राजपुत्र) की पदवी से नवाजा गया !(ii). सन् १५२७ मार्च में बाबर व राणा साँगा के मध्य फतेहपुरी सीकरी से १६ कि.मी. दूर दोनो सेनाओ के बीच भीषण युद्ध हुआ, इस युद्ध में जग्गा रावत, उदयसिंह रावत ,रावत रतनसिंह, माणिकचन्द चौहान, कर्मचन्द पँवार व अनेक रावत- सरदार तथा अनेक बलशाली शूरवीर योद्धा उपस्थित थे ।(iii). सन् १५३४ में गुजरात के सुल्तान बहादुरशाह व अल्पवय महाराणा विक्रमादित्य के मध्य युद्ध हुआ जिसमें देवलिया प्रतापगढ़ के वीर रावत बाघसिंह चित्तौड़ दुर्ग के पोड़नपोल दरवाजे के बाहर लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए । यहाँ इनकी स्मृति में चबूतरा बना हुआ है ।(iv). सन् १५६७ अक्टूबर को अकबर द्वारा चित्तौड़ पर आक्रमण किया गया जिसमें महाराणा उदयसिंह द्वारा किले की सुरक्षा का भार वीर पत्ता रावत (फतेह सिंह) व जयमल मेड़तिया को देकर स्वयं ने उदयपुर में मोर्चा लगाया । इस ४ माहके युद्ध के अन्तिम दौर में सांवतो की स्त्रियों ने फत्ताजी रावत की पत्नी ठकुराणी फूलकंवरजी के नेतृत्व में विक्रम संवत १६२४ चैत्र कृष्णा एकादशी सोमवार १३ फरवरी सन् १५६८ को ७ हजार क्षत्राणियो ने जौहर किया । वीरवर पत्ता रावत ने केसरिया बाना धारण कर चित्तौड़ के युद्ध में अकबर के विरूद्ध बड़ी बहादुरी से लड़कर वीरगति प्राप्त की । रावत फत्ता व अन्य राजपूतो के पराक्रम को देखकर स्वयं अकबर भी दगं रह गया । चित्तौड़ दुर्ग के रामपोल दरवाजे के भीतर रावत फतेहसिंह का चबूतरा बना हुआ है । पत्ता सिंह रावत ( सिसोदिया) व जयमल की वीरता पर प्रभावित होकर अकबर ने आगरा जाने पर हाथियों पर चढ़ी हुई उनकी पाषाण की मूर्तियाँ बनवाकर किले के द्वार पर खड़ी करवायी ।(v). मेवाड़ के गहलोतवंशी रावत-राजपूतो के मुख्य ठिकानो में सलुम्बर (पाटवी), आमेट, कोशिथल ,बेगूँ,भैंसरोड़गढ ,कुराबड़ ,भदेसर, थाणा,बम्बोरा, साटोला ,लूणदा ,चित्तौड़, भीलवाडा ,उदयपुर ,राजसमन्द आदि है ।(vi) ऐतिहासिक दृष्टि में प्रतापगढ -- प्रतापगढ़ के शासक सूर्यवंशी क्षत्रिय थे जो मेवाड़ के गुहिल वंश की सिसोदिया शाखा से है । इन्हे महारावत (रावत) कहा जाता था । महारावत प्रतापसिहं ने सन् १६९९ में डोडेरियाखेड़ा में प्रतापगढ़ कस्बा बसाया । २५ मार्च १९४८ को प्रतापगढ रियासत का राजस्थान संघ में विलय कर दिया गया । उसके बाद स्वतंत्र राजस्थान में इसे चित्तौड़गढ़ जिले में शामिल किया गया । प्रतापगढ़ कस्बेको पहले देवलिया /देवगढ़ के नाम से जाना जाता था ।प्रतापगढ़ में दीपनाथ महादेव का मंदिर सामंतसिहं रावत के कुँवर दीपसिहं ने बनवाया । कार्तिक पूर्णिमा को प्रतिवर्ष यहाँ मेला भरता है । ....