कहते है...... प्रेम ही ईश्वर है।
"पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ पंडित भया न कोय ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय "
मनुष्य का जीवन प्रेम की फुहारों से सिंचित होता है तो घृणा के उद्वेगों से दूषित। घृणा जीवन का व्यक्तित्व का कलुष है। घृणा का अर्थ दूसरे के विनाश की आकांक्षा उसके अस्तित्व को नष्ट कर देने की चाहत। जबकि प्रेम की परिभाषा उत्सर्ग से तय होती है उत्सर्ग का अर्थ है-आवश्यकता पड़ने पर दूसरे की रक्षा हेतु स्वयं को होम कर देने का समर्पित कर देने का भाव।
सामान्य मनुष्य के जीवन में प्रेम का विस्तार कम घृणा का अधिकार ज्यादा दिखाई पड़ता है। लोग कहने को प्रेम तो करते हैं पर यह प्रेम भी या तो घृणा का ही रूप होता है या किसी अन्य दिन घृणा का रूप बन जाता है।
प्रेम मनुष्य के जीवन में तब ही अवतरित होता है जब मनुष्य सर्वत्र प्राणियों में उसी परमात्मा को देखने लगता है और उसी परमात्मा को स्वयं देखने लगता है। जब अहंकार उसके व दूसरों के बीच की बाधा नहीं रह जाता है तभी सच्चा प्रेम जन्म लेता है और घृणा का अंत होता है।