कविता कवि-हृदय में संचित
अनुभवों के प्रसार का नाम है| मनुष्य एक समाज विशेष में जन्म लेता है| परिवेश की
संगति-विसंगति से उसका परिचय बाल्यावस्था में होना प्रारंभ हो जाता है| जब तक वह
युवा होता है और कविता जैसी विधा में अभिव्यक्ति देने का रास्ता चुनता है, उसके
अनुभव-संसार में ऐसा बहुत कुछ संचित हो जाता है जिसमें परिवेशगत जीवन-यापन करने
वाले अन्य अनेक की संगति-विसंगति का अंश वर्तमान होता है| सच यह भी है कि कविता के
मार्ग पर कवि वैयक्तिकता के रास्ते पदार्पण करता है| अनुभव की सघनता और अभिव्यक्ति
की कुशलता में कवि के वही वैयक्तिक भाव कब समष्टि-भाव में परिवर्तित हो जाता है,
कहना मुश्किल है| जिस समय कोई पाठक कविता को पढ़ रहा होता है उस समय कविता में
वर्णित विषय को लेकर निःसंग भाव से अपनी जिज्ञासा को बढ़ा रहा होता है| यह जिज्ञासा
उसे देशकाल-परिस्थिति से जोड़ती है और एक कविता को अधिक अर्थवान और
सामर्थ्य-सम्पन्न बनाती है|
सारस्वत वागीश की कविताएँ हमें
जिज्ञासा के विभिन्न कोण तक ले जाने में सक्षम हैं| कितने ही वसंत देख चुके वागीश
के पास जन-जीवन-जगत को समझने की अंतर्दृष्टि है जो कविता के माध्यम से लोक-जीवन
में प्रवाहित होती है| जीवन, जगत की क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं के सम्मिश्रण से
उत्पन्न सृष्टि का विशेष्य है| जन, जीवन और जगत के बीच सामंजस्य बिठाने का माध्यम|
जीवन यदि जन को अनुभव देता है तो जगत उस अनुभव को प्राप्त करने का जरिया बनता है|
संत भले ही इस प्रकार की स्थिति को जन-जगती का मेला कह दें लेकिन कवि हृदय अपनत्व
की अनवरत प्रवाहित होने वाली सलिला ही कहेगा| जिस समय कवि यह कहता है कि “तुमने
सच कहा था नानक!/ कोई किसी का नहीं होता/ सिर्फ अपन सुख ही सारे रिश्ते बनाता है/
सुख सूखते ही रिश्ता सूख जाता है” उस समय कवि स्व-सुख प्राप्ति के मार्ग का
तलाश करते हुए जग-सुख की परिकल्पना खो जाना चाहता है|
समाज विभिन्न प्रकार के
संघर्षों का प्रतिफल है| यह कवि भी जानता है और उसका पाठक भी| संघर्ष व्यक्ति को
तपाते जरूर हैं लेकिन सक्षम भी बनाते हैं उसकी अपनी जिम्मेदारियों के प्रति| कवि
कहता है कि जिम्मेदारियों को वहन करने की प्रतिबद्धता में “मैं अकेला नहीं हूँ/
मुझ जैसे और भी बहुत-से साथी हैं मेरे साथ” जो संघर्ष की जमीन को उर्वर
रखेंगे| जीवन समस्याओं का जखीरा होता है लेकिन समस्याओं से लड़ना मनुष्य की फितरत
है| आततायी शक्तियों के साथ अकेले नहीं लड़ा जा सकता है, ये कवि को पता है अच्छी
तरह से| आदमी स्वयं से कभी नहीं हारता क्योंकि संघर्ष का पाठ उसे बचपन से ही पढ़ाया
गया होता है| हारता है दूसरों की दबंगई और उजड्डपना से| असामाजिक और लगभग
स्वार्थता के वशीभूत हो चुके परिवेश में को उत्साह की अंतिम स्थिति तक पहुँच कर
सामाजिकता का वातावरण तो निर्मित करता है “लेकिन बिखर जाता है आदमी/ जब उजाड़
दिया जाता है उसका आशियाना/ जो बनाया गया था पूरी उम्र खपाकर/ दंगाई कौवों के आचरण
से भयभीत चिड़िया/ चहकना नहीं छोड़ती/ पर आदमी टूट जाता है टूटते ही हौसला|”
टूटे हौसले में प्राण फूंकने का साहस कवि के पास है क्योंकि ‘पाश’ और ‘भगतसिंह’
जैसे क्रन्तिकारी कवि, प्रेरक व्यक्तित्व की प्रेरणा उसके पास है|
अति किसी भी चीज की बुरी होती
है| सत्ता पक्ष कुर्सी की मदान्धता में व्यक्ति-व्यक्ति के बीच विभेदता की दीवार
खड़ा करता है| उसकी दृष्टि में “भारतीय जनता ही तो है जो एक समय के बाद सब कुछ भूल
जाती है|” उन्हें यह नहीं पता होता कि जनता सब जानती है| एक समय के बाद विद्रोह
होता है| मोहभंग होता है| फिर न तो उनकी जातिवादी-रणनीति काम देती है और न ही तो
साम्प्रदायिकता के नाम पर जन-समुदाय को बांटने वाली हिन्दू-मुसलमान की कुनीतियाँ|
यहाँ परिवर्तन की एक लहर उठती है और लोगों को चेतना का पाठ पढ़ाते हुए नवीन समय का
संचार करती है| यह समय सबके हिस्से से होकर पदार्पण करता है और अनीति के खिलाफ दूर
तक का रास्ता तय करता है| कवि स्पष्टतः कहता है कि “अत्याचार के खिलाफ उठती है
लहर/ जहर के खिलाफ मचलती है लहर/ कभी सागर तो कभी आदमी के पेट से/ निकलती है
लहर.......लहर नहीं देखती हिन्दू मुसलमान/ लहर का मजहब नहीं होता/ लहर जब मचलती है
तो तोड़ देती है सारे तटबंध|”
सामाजिक व्यक्ति, जिसमें
मनुष्यता को जीवित रखने की अभिलाषा है, वह असमानता की चक्की में पिसने वाली भूखी
पीढ़ी के दुःख-दर्द को मौन होकर नहीं सह सकता| कवि-दृष्टि में समाज में रहने वाले
प्रत्येक व्यक्ति का पहला कर्तव्य है कि उसके साथ उसके अपने परिवेश में रहने वाला
कोई भी व्यक्ति किसी प्रकार के अभाव से न ग्रसित हो| तमाम प्रकार की दुनियादारी और
संग्रह करने की प्रवृत्ति का कोई महत्त्व नहीं है यदि एक भी व्यक्ति अभावों में दम
तोड़ता है या भूखा मरता है| वह यह भी जानता है कि ऐसे कार्य होने कठिन हैं| इसलिए
इस जीवन के बचे समय में तो सामाजिक समानता के लिए कार्य कर ही रहा है, इस जीवन के
बाद भी स्वयं के शरीर को किसी के काम आने की कामना करता है-
“हाँ,
अब मैं
किसी
का पेट भरना चाहता हूँ
जीते
जी तो किसी के
काम
नहीं आया ये शरीर
पर
मर कर
किसी
के काम आना चाहता हूँ
किसी
की भूख मिटाना चाहता हूँ|
ये
कल्पना करना भी कवि का जायज लगता है कि जीते-जी उसके द्वारा किए गए सामाजिक
प्रयासों को लोग संकीर्णता की अलग-अलग दायरों में सीमित करने की कोशिश करते हैं
लेकिन मृत हो जाने के बाद सामाजिक जड़ताओं से मुक्त होकर स्वतंत्रता पूर्वक वह
जन-जीवन की समृद्धि के लिए कार्य कर सकेगा| “कफ़न में दम है/ क्योंकि बेदम आदमी
के काम आता है कफ़न/ क्योंकि कफ़न पहना आदमी/ आलोचना का शिकार होने से बच जाता है|”
हालांकि इस प्रकार की परिकल्पनाएं कर्म के सिद्धांत से दूर रखते हुए व्यक्ति को
निराशावादी माहौल में ले जाती हैं लेकिन सामाजिक जीवन के प्रति कवि की निष्पक्षता
आकर्षित जरूर करती है|
किसी भी समाज को समृद्ध बनाने
में वहां की शिक्षा-व्यवस्था का विशेष योगदान होता है| भारतीय शिक्षा प्रणाली में
गुरु-शिष्य परंपरा का प्राधान्य रहा है| एक आदर्श स्थिति के तहत तो यह बहुत अच्छी
परंपरा है लेकिन यथार्थ में इसका नाजायज फायदा उठाया गया है| ‘एकलव्य’ के रूप में
कितने ही शिष्य समर्पण में अपने ‘शक्ति-साधन’ दान दे देते हैं लेकिन ‘द्रोणाचार्य’
जैसे गुरु उस दान-विशेष का फायदा अपने प्रिय शिष्य को ऊँचा उठाने में लगा देते
हैं| यह बात और है कि ऊँचा उठने वाला शिष्य अयोग्यता का एक उदहारण बनकर रह जाता
है| ये स्थिति भारतीय विश्वविद्यालयों में अधिक है| शोध और साहित्य की क्या स्थिति
है ये अकादमिक जगत में आसानी से देखा जा सकता है| शिक्षा-जगत की यथास्थिति सारस्वत
वागीश के अनुसार कहें तो ये सच प्रतीत होता है कि-“आज भी द्रोणाचार्य के साथी
हैं छल और प्रपंच/ तो श्रद्धा और निष्ठां एकलव्यों की ढाल हैं/ अँगूठे कटे एकलव्य
द्रोनाचार्यो के लिए चुनौती हैं/ और द्रोणाचार्य विकसित समाज के लिए पनौती हैं|”
अब यह परिदृश्य कितनी सच्चाई लिए है कि एकलव्यों की पूरी फ़ौज शोषित और उपेक्षित हो
रही है जबकि अयोग्यों की एक पूरी-की-पूरी महफ़िल सज रही है|
यहाँ एक तत्त्व है जो सभी
प्रकार की संभावनाओं को पंख देता है और वह है प्रेम| श्रृष्टि की संरचना में प्रेम
की भूमिका अभिन्न है| जीवन को जन्म देने से लेकर पालने-पोषने तक की स्थिति में
प्रेम ही वह आधार है जिसके माध्यम से व्यक्ति एक-दूसरे के साथ संबंधों के दायरे
में बंधता है| यही सम्बन्ध भविष्य की नींव रखता है जिस पर समाज रूपी विशाल महल का
अस्तित्व निर्भर करता है| कवि लोक-प्रेम के माध्यम से प्रेम-लोक का सृजन करता है|
यहाँ उसे घृणा, ईर्ष्या, प्रतिशोध जैसी अमानवीय प्रवृत्तियाँ न नजर आकर सर्वत्र
प्रेम दिखाई देता है| ऐसा प्रेम जो उसके चेतन-जगत की साक्षी है| यथार्थ है, स्वप्न
है| स्वप्न अधिकतर बिसार दिए जाते हैं| यथार्थ सुधार और परिष्कार के रूप में हमारे
समक्ष सर्वत्र उपस्थित रहते हैं-
“लम्हा-लम्हा
पहर, दो पहर, सांझ सवेरे तू ही
तू
तू साँसों की डोर
डगर, गलियाँ, चौराहे, तू ही तू
मोड़, मुहाने, सड़क, दहाने
मन्दिर हों या हों मयखाने
हर लम्हें तू ही तू|”
अस्तित्व की प्राप्य-श्रम में
अहं-टकराव का होना स्वाभाविक है| आखिर समर्पण भी तो कोई चीज होती है| सम्बन्ध
समर्पण मांगता है और व्यक्ति मुक्ति| समर्पण और मुक्ति के बीच के अंतर्द्वंद्व को
समाप्त करने में प्रेम बड़ी भूमिका निभाता है| सारस्वत के यहाँ ये प्रेम समकालीन
विमर्शों के दायरे में सीमित रहने वाला प्रेम नहीं है| भारतीय लोक-परंपरा में
वर्तमान सांस्कृतिक प्रेम है| यहाँ वासना और नंगापन नहीं है| समर्पण और स्थायित्व
है| ऐसा इसलिए है क्योंकि कवि स्त्री को देह मात्र स्वीकार नहीं करता| शक्ति और
सामर्थ्य की प्रतिमूर्ति समझता है| यही वजह है कि स्त्री को विभिन्न पौराणिक
स्वरूपों देखने की कोशिश करता है—मैं जानता हूँ शक्ति हो तुम/ तुम ही दुर्गा
हो/ कात्यायनी भी तुम/ शक्ति के जितने स्वरूप हैं सब मौजूद हैं तुम्हारे भीतर|” कवि
उन्मुक्त भाव से मनुष्य प्रेम-प्राप्ति के उन हर साधनों की तलाश करता है जिससे उसे
अधिक मानवीय और सामाजिक होने में प्रेरणा मिल सकती है|