shabd-logo

शब्दनगरी से जबसे जुड़ा हूँ मैं

10 मई 2015

720 बार देखा गया 720
featured imageमुद्दत बाद तन्हा दिल को जैसे कोई दिल मिल गया। करना चाहते थे विचार जो मुकाम हासिल,मिल गया। लहरों पे बैठकर लिख रहा था गजल,कलम बहक जाती थी। शब्दनगरी से जबसे जुड़ा हूँ मैं शब्दों को जैसे साहिल मिल गया। जहाँ मिलकर एक ही भाव अभिव्यक्ति हृदय से करते हैं। कवि वही है जो लेखनी की आसक्ति हृदय से करते हैं। ढूँढता था माँ वाणी का जो दरबार स्वप्निल मिल गया। शब्दनगरी से जबसे जुड़ा हूँ मैं शब्दों को जैसे साहिल मिल गया। कानपुर की आई.आई.टी. का नाम शिखर पर है। अब शब्दनगरी से एक नया आयाम सफर पर है। सफलता स्वयं कहेगी-ये नगरी है जिसके काबिल,मिल गया। शब्दनगरी से जबसे जुड़ा हूँ मैं शब्दों को जैसे साहिल मिल गया। वैभव"विशेष"
राघवेन्द्र कुमार

राघवेन्द्र कुमार

शब्दनगरी के इस कारवाँ में हम भी सदैव आप के साथ हैं...

7 सितम्बर 2015

शब्दनगरी संगठन

शब्दनगरी संगठन

वैभव जी , बहुत बधाई , सुन्दर रचना .... आभार . प्रियंका - शब्दनगरी संगठन

11 मई 2015

विजय कुमार शर्मा

विजय कुमार शर्मा

ठीक ही तो है दूबेजी बहुत से लोग लाभांवित हो रहे हैं शब्दनगरी के आने से

10 मई 2015

वैभव दुबे

वैभव दुबे

अंततः सफलता प्राप्त हुई ।

10 मई 2015

शालिनी कौशिक एडवोकेट

शालिनी कौशिक एडवोकेट

koshish kijiye avshya safal hogi aakhir hamari post bhi to aa rahi hain .

6 मई 2015

शब्दनगरी संगठन

शब्दनगरी संगठन

वैभव जी , यदि आपको कभी भी शब्दनगरी मे कोई भी समस्या आए तो हमे तुरंत ईमेल info@shabdanagari.in पर सूचित करे । हम तुरंत आपकी समस्या का निवारण करेंगे या हमसे संपर्क भी कर सकते है 0512-2595382 पर । प्रियंका - शब्दनगरी संगठन

6 मई 2015

डॉ. शिखा कौशिक

डॉ. शिखा कौशिक

badhai shabdnagari se jiude hetu .

5 मई 2015

वैभव दुबे

वैभव दुबे

धन्यवाद शर्मा जी। प्रयास अभी सफल नही हो रहा।

4 मई 2015

ओम प्रकाश शर्मा

ओम प्रकाश शर्मा

वैभव जी, आपकी रचना किसी कारणवश प्रकाशित नहीं हो पाई है... कृपया पुनः प्रयास करें ! धन्यवाद !

4 मई 2015

1

किसान की कुर्बानी

27 अप्रैल 2015
0
4
2

राजनीति की बेदी पर एक और किसान कुर्बान हुआ। ठुकराया जिसे धरती ने ,बेदर्द बहुत आसमान हुआ। सोचा था अब वक़्त आ गया दुःख सारे मिट जायेंगे मगर गीली माटी में मिल ओझल निज अरमान हुआ। लाशों पर बिछा हुआ बिस्तर काले नोटों का। कब थमेगा सिलसिला इन मासूम मौतों का? जिस दिल में सपने पलते थे दिल का दौरा पड़ गया। जि

2

माँ…

27 अप्रैल 2015
0
4
2

माँ….कहने को एक छोटा सा शब्द मगर स्वयं में समेटे हुए समस्त ब्रम्हांड। जिसके चरणों में स्वर्ग हृदय मन्दिर और उसमें वास करते तैतींस करोड़ देवता। तनिक अभिमान नहीं बस वात्सल्य,ममत्व स्वयं की पीड़ा का कभी अनुमान नहीं। बस बच्चों के चेहरे पर सदैव खिलती रहे मुस्कान चाहे प्राण गंवाना पड़े हर कष्ट गंवारा है उ

3

मैं मजदूर हूँ ।

28 अप्रैल 2015
0
4
3

मैं मजदूर हूँ या मजबूर घृणित दृष्टि घूर रही जैसे अपराध किया हो संसार में आकर। मगर जब मध्यरात्रि में नींद को तिलांजलि देकर यात्रियों को गंतव्य तक पहुँचाता हूँ तब जरूरत मंदों को एहसास होता है मेरी अहमियत का। मकानों को महल बनाने में मेरे हाथों की चमड़िया उधड़ गईं मगर मेरी झोपडी आज भी बारिश में बर्तनों

4

मैं हूँ निजी स्कूल है मेरी तानाशाही।

28 अप्रैल 2015
0
3
3

मैं हूँ निजी स्कूल है मेरी तानाशाही। बस्ते,ड्रेस,किताबें सब पे करूँ उगाही। एक बर्ष में कई आयोजन करवाता हूँ मैं। पिकनिक तो कभी मैंगो डे मनवाता हूँ मैं। अभिभावक का पेट काट,करूँ खूब कमाई। मैं हूँ निजी स्कूल है मेरी तानाशाही। शिक्षा विभाग के सभी नियम ताक पे रख डाले नेताजी भी कुर्सी के संग-संग मुझे सम

5

सुनकर तेरा नाम रहे।

29 अप्रैल 2015
0
3
5

मत पूछो कैसे बरस हैं बीते राधा बिन क्या श्याम रहे? अपनी ही प्रतिध्वनियों में हम सुनकर तेरा नाम रहे। सावन का था मस्त माह हम प्यासे व्याकुल तरसे थे। सच कहते हैं नैन हमारे याद में तेरी बरसे थे। थककर पलकों में बन्द किया संग करते हम विश्राम रहे। अपनी ही प्रतिध्वनियों में हम सुनकर तेरा नाम रहे। जब दिनक

6

किसान का अधूरा स्वप्न।

29 अप्रैल 2015
0
2
0

आज रामदीन बहुत खुश था और खुश हो भी क्यूँ न? उसके खेतों में लहलहाती गेहूं और चने की फसल उसके वर्ष भर के अथक परिश्रम की कहानी कह रही थी और बालियों पर पड़ती सूरज की किरण रामदीन को स्वर्ण के साहूकार होने का गर्व प्रदान कर रहीं थी। वो सोचने लगा अब सब दुःख-दर्द मिट जाएंगे।राजू को विद्यालय में फीस न पह

7

ये वृक्ष हमने ही बोया था|

30 अप्रैल 2015
0
2
3

ये वृक्ष हमने ही बोया था जिसके फल में भी कांटे हैं| जो छाया देते थे हमको निज स्वार्थ में वो ही काटे हैं | गौ हत्या,हवस ,वासना ढोंगी बाबा प्रवचन सुनाते हैं| यहीं हिसाब चुकाना है सबको ये पाप के बही खाते हैं| बेवक़्त हुई जो बारिश तो कितनों की अँधेरी रातें हैं| अब भयभीत हुए भूकम्पन से क्यों ईश्वर

8

तू मेरा दर्पण है माँ।

30 अप्रैल 2015
0
4
3

हृदय,श्वांस और रक्त कणों का चरणों मे समर्पण है माँ। मुझको मुझसे ही मिलाया तू मेरा दर्पण है माँ। वाणी,वाग्देवी,वागीश्वरी, शारदा,नाम तेरे अनेक हैं। शब्द तेरे ही दिए हैं तुमको ही अर्पण है माँ। मिट गया अँधियारा मन का जबसे तेरा नाम लिया। जब भी डूबा भवसागर में तूने आ के थाम लिया। मोह-माया,अधर्म,व्यस

9

हम देश के भविष्य हैं हमारा भविष्य क्या?

1 मई 2015
0
6
8

हिकारत भरी नज़रें मिली बस और मिला है क्या। हम देश के भविष्य हैं हमारा भविष्य क्या? माँ के आँचल,पिता के कांधे से भी दूर हो गये। हम दर-दर भटकने को भी मजबूर हो गये। ऊँगली पकड़ कर चलने का मौका भी न मिल सका। फिर गिर कर सम्हल न पाए इसमें हमारा दोष क्या? अभी ज्ञान ही नहीं हमें,तो दें इम्तिहान क्या? हम देश क

10

हँसना भी महफ़िल में एक मजबूरी लगती है।

2 मई 2015
0
2
1

जबसे तुमसे दूर हुए हर बात अधूरी लगती है। हँसना भी महफ़िल में एक मजबूरी लगती है। वैसे तो लोगों के करीब अक्सर ही रहता हूँ मैं। पर सच कहूँ खुद से भी खुद की दूरी लगती है। बीते लम्हातों में जब ये दिल मेरा खो जाता है। आँखों के गुलशन में तू लता-कस्तूरी लगती है। वो बातों में हाथों से हाथों को सहलाती तपिश।

11

जान की कीमत क्या होगी।

3 मई 2015
0
3
2

जीवन जाने के बाद ये जाना जान की कीमत क्या होगी। फूलों की चादर ओढ़े हुए सम्मान की कीमत क्या होगी। माँ गंगा का किनारा है अभिमान की कीमत क्या होगी। जिसमें मिल सब एक हुए शमशान की कीमत क्या होगी? भूख से दम निकल गया घृत दान की कीमत क्या होगी। घृणित दृष्टि से देखा सबने स्नान की कीमत क्या होगी। रहने को नहीं

12

शब्दनगरी से जबसे जुड़ा हूँ मैं

10 मई 2015
0
6
9

मुद्दत बाद तन्हा दिल को जैसे कोई दिल मिल गया। करना चाहते थे विचार जो मुकाम हासिल,मिल गया। लहरों पे बैठकर लिख रहा था गजल,कलम बहक जाती थी। शब्दनगरी से जबसे जुड़ा हूँ मैं शब्दों को जैसे साहिल मिल गया। जहाँ मिलकर एक ही भाव अभिव्यक्ति हृदय से करते हैं। कवि वही है जो लेखनी की आसक्ति हृदय से करते हैं

13

कह दो तुम।

6 मई 2015
0
2
2

प्रेम ही तप है।

14

माँ बस एक भरोसा तेरा है।

9 मई 2015
0
1
0
15

विजय का आशीर्वाद

10 मई 2015
0
3
2

मातृ दिवस पर कानपुर दैनिक जागरण में प्रकाशित मेरी कहानी। मेरी परीक्षा का वक़्त नजदीक आ रहा था मैं पूरी तन्मयता से अपने अध्ययन के प्रति समर्पित था पर वक़्त को शायद कुछ और ही मंजूर था।अचानक मेरी माँ की तबियत बहुत ज्यादा ही बिगड़ गई।मुझे माँ को लेकर दूसरे शहर के एक बड़े अस्पताल में जाना पड़ा।डॉक्टर साहब ने

16

एक फूल एक बचपन।

11 मई 2015
0
1
2
17

एक फूल और एक बचपन

12 मई 2015
0
5
3

एक फूल और एक बचपन होते एक समान हैं। बचपन अपनी मस्ती में है फूल को भी न गुमान है। गुलशन में जब बचपन करने लगे अठखेलियां। इठलाता है फूल मगन हो आतुर होतीं बन्द कलियाँ। आज सुबह फिर बचपन जब जा पहुंचा गुलशन में। फूल को न पाकर उदास हो घबराने लगा मन ही मन में। माली बोला प्रातः ही कोई तोड़ ले गया डाली के सं

18

तुम तोड़ चले।

23 मई 2015
0
3
6

एक रिश्ते ने दिल तोड़ा तो जग को ही तुम छोड़ चले। बूढ़ी आँखों के सपने क्यों एक पल में तुम तोड़ चले। हाथों में जो बंधा प्रेम से बस रेशम का धागा समझा। पहले से ही सोए थे तुम क्यों खुद को जागा समझा। कायर थे तुम क्यों साहस का झूठा चोला ओढ़ चले। खुद के लिए ही जिन्दा थे जो अपनों से मुँह मोड़ चले। क्यों मान

19

मेरा दोष क्या है?

24 मई 2015
0
2
3

यौवन की दहलीज़ पर कदम रखते हुए दर्पण में खुद को निहारती आँखे। आँखों में कई स्वप्न अंगड़ाई ले रहे। छूना है आसमान स्वयं को ऊँचा उठा कर। गर्व से छलक आएं आंसू बूढ़े गालों पर। जुड़ जाये मेरा नाम उनके नाम से पहले। कोई शहजादा आकर थाम लेगा हाथ। जिसकी धुंधली आकृति बन्द पलकों में कैद है। मगर ये क्या?अँधेरा! य

20

जीवन है संघर्ष

15 जून 2015
0
5
5

जीवन है संघर्ष अगर और आँखों में अश्रु की धारा है। धैर्य न खोना बस ये सोचना तू भी किसी का सहारा है। दृढ़ हो निश्चय अडिग इरादे मन में अटल विश्वास है जो फिर कितनी हो मझधार में नैया निश्चय मिले किनारा है। सीखो सुगन्धित पुष्प,लता हर मन उपवन महकाती हैं। सीखो बर्षा की बूंदों से जो प्यासे की प्यास बुझाती ह

21

जिंदगी मोम सी पिघलती रही

20 जुलाई 2015
0
3
1
22

छटपटाती रहीं और सिमटती रहीं कोशिशें बाहुबल में सिसकती रहीं। जुल्म जिस पर हुआ,कठघरे में खड़ा। करने वाले की किस्मत चमकती रही। दिल धड़कता रहा दलीलों के दर्मिया। जुल्मी चेहरे पे बेशर्मी झलकती रही। तन के घाव तो कुछ दिन में भर गये। आत्मा हो के छलनी भटकती रही। कली से फूल बनने के सपने लिए। बागवां में खिलती महकती रही। कुचल दी गई किसी के क़दमों तले। अपाहिज जिंदगी ताउम्र खलती रही। न्याय की आस भी बोझिल,बेदम हुई। सहानुभूति दिखावे की मिलती रही। सूरत बदली नहीं बेबसी,बदहाली की। ताजपोशी तो अक्सर बदलती रही। उपाधियों से तो कितने नवाजे गये। सत्य की अर्थी फिर भी उठती रही। ऐसी दुनिया न मिले की मलाल रहे। जहाँ जिंदगी मोम सी पिघलती रही। वैभव"विशेष"

20 जुलाई 2015
0
2
0
23

पश्चाताप असम्भव है

20 सितम्बर 2015
0
4
8

मित्रों कुछ माह के लम्बे अंतराल के बाद मैं आजशब्दनगरी में वापस आया एक कहानी के साथजो ११ सितम्बर २०१५ को दैनिक जागरण समाचार पत्र झाँसी में प्रकाशित हुई है..अवश्य पढ़ें..धन्यवादआज माँ की कोख में आकर बहुत खुश हूँ।नई दुनिया में आने को आतुर।कब नौ माह पूरे होंगेमाँ की आँखों से देखा मैंने सब कितने खुश हैं प

24

विश्व शांति दिवस

21 सितम्बर 2015
0
3
3

विश्व में शांति कायम हो सोचो क्या-क्या जतन कियेशांति दिवस आया गगन में कुछ कबूतर उड़ा दिएउड़ाना है तो भेदभाव,द्वेष-दंभ,भ्रष्टाचार उड़ा डालोशांत सब कोलाहल होगा,हृदय प्रेममय बना डालोआज दिनांक 21 सितम्बर को पूरे विश्व में शांति व अहिंसा स्थापित करने के लिए विश्व शांति दिवस या अंतर्राष्ट्रीय शांति दिवस के र

25

रहे हनुमान धरा पर

22 सितम्बर 2015
0
3
2

आज 22 सितम्बर को कानपुर में बुढ़वा मंगल बड़ी श्रद्धा और धूमधाम से मनाया जा रहा है।अन्जनीनंदन,सुख समृद्धि के दाता ,प्रभु श्री राम के अनन्य भक्त श्री हनुमान जी के चरणों में समर्पित कुछ पंक्तियाँ..बैकुंठ गए सब देव, रहे हनुमान धरा पर।कलियुग में भी सत्कर्मों का मान धरा पर।भूत-प्रेत,बाधाएं मिटें, हो भक्ति

26

जानूँ मैं

25 सितम्बर 2015
0
1
2

हृदय छुपी इस प्रेम अग्नि में जलन है कितनी जानूँ मैं।मैं भटक रहा प्यासा इक सावन विरह वेदना जानूँ मैं।पर्वत,घाटी,अम्बर,नदिया जल सब नाम तुम्हारा लेते हैं।अम्बार लगा है खुशियों का फिर भी अश्रु क्यूँ बहते हैं?मिथ्या दोषी मुझे कहने से क्या प्रीत मिटेगी बरसों कीनयन कह रहे थे जो तुम्हारे वो बात अनकही जानूँ

27

गरीबी को डर बस भूख का है

17 दिसम्बर 2015
0
5
3

बारिश भिगाती रही मगर गरीबी को डर बस भूख का हैगर्मी भी सताती रही मगर गरीबी को डर बस भूख का हैसर्दी कंपकंपाती रही मगर गरीबी को डर बस भूख का हैमौसम से अमीरी ही डरी, गरीबी को डर बस भूख का हैकोई सत्ता में आया,छाया गरीबी को डर बस भूख का हैकिसी ने सिंहासन गवांया गरीबी को डर बस भूख का हैव्यस्त सब सियासी खेल

28

पहचान

18 दिसम्बर 2015
0
6
4

चमकूँगा मैं सूरज बन करकभी चाँद सा दिख जाऊँगायाद करोगे जब भी मुझकोदिल की धड़कन बन जाऊंगापत्थर समझ न ठुकरानामैं पारस भी हो सकता हूँतुम दिल का व्यापार करोमैं जब चाहो मन जाऊंगाशब्द नही हैं वाक्य नहीं हैतेरी उपमा के काबिलरूप तुम्हारा कोरा कागजबन स्याही घन छाऊंगाबसे मेरे मन की आँखों मेंऔर ठिकाना क्या होगाप

29

नववर्ष मंगलमय हो

25 दिसम्बर 2015
0
2
0

शब्दनगरी के सभी सदस्यों और पाठकों को नववर्ष की हार्दिक शुभकामनायेमित्रों मेरी ये कविता और भी अन्य कविताएँदिनांक 31-12-2015 को शाम 9.30pmपर आकाशवाणी छतरपुर के 675 kHz से मेरी ही आवाज में प्रसारित होगी ...अवश्य सुनेंधन्यवाद..नूतन आस हो,दृढ विश्वास हो,खुशियों से हो सामना।नववर्ष  मंगलमय हो  आपका बस  यही

---

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए