शादियाँ आजकल
हिन्दू शादी |
अजी सुनते हो, "कल बगल वाली भाभी जी कह रही थीं कि, अब तो बेटा जवान हो गया है शादी कब कर रही हो"। मैं तो कह रही हूँ कि, "देख -भाल शुरू कर दो अभी से , तब जाकर कुछ महीनों में कोई बात फाइनल हो पायेगी"।
अजी मैं कब से कह रही हूँ कि, "बेटी अब जवान हो गई है, उसके हाथ पीले करने हैं कि नहीं", लेकिन तुम हो की कान पर जूँ तक नहीं रेंगती। उम्र निकल जायेगी तब कुछ सोचोगे। लोग-बाग़ आये-दिन मेरा सिर खाते हैं कि, "बिटिया की शादी कब कर रहें हैं"।
यार....., मुझे एक बात समझ में नहीं आती कि बच्चे हमारे हैं.... और उनकी शादी की चिंता दुनियाभर को क्यों हो रही है। क्या उनके पास कोई और काम नहीं है? तुम तो ऐसे कह रहे हो...... जैसे तुमने कभी नहीं पूछा, औरों से। परसों ही एक पार्टी में आप मनीष जी से पूछ रहे थे कि, "बच्ची का सम्बन्ध कहीं किया की नहीं"।
हाँ.....हाँ ..... बात तो तुम्हारी सही है, आखिर हम भी तो उसी समाज का एक अंग हैं।
हर परिवार का यही हाल है , बच्चे बड़े हुए नहीं कि उनकी शादी की चिंता माँ -बाप सहित ज़माने को होने लगती है। देख -भाल शुरू हो जाती है| चूँकि Parents के साथ -साथ Adult बच्चे भी आधुनिक हो गए हैं अतः बच्चों की इच्छाओं को भी महत्व दिया जाता है और अंततः बच्चे ब्याह दिए जाते हैं। कुछ महीने तो ठीक -ठाक चलता है , फिर दिकक्तें शुरू हो जाती हैं। कभी बेटे -बहु में नहीं बनती, तो कभी सास -बहु में, तो कभी किसी अन्य मुद्दे पर दोनों परिवारों में अनबन हो जाती है। EGO आड़े आने लग जाते हैं।
ऐसा क्यों है ? शायद शादी से सम्बंधित जो विधान हैं उनकी पर्वा न करने के कारण।
प्रत्येक धर्म में शादी के विभिन्न विधान व् अलग -अलग रस्म हैं। हम यहाँ हिन्दू -विवाह रस्म की बात करेंगे और यह जानने का प्रयास रहेगा की उन रस्मों में से, जो विशेष-रस्में समझी जाती हैं, उनको हम कितना जानते हैं!, कितना याद रखते हैं! और कितना निभाते हैं! क्या उन रस्मों की आज के समय में कोई प्रासंगिकता है? या ये केवल औपचारिकता ही बन कर रह गए हैं? विवाहरोपरांत हो रही अप्रिय घटनायें इसी ओर इशारा कर रही हैं।
ब्रह्म-विवाह
दोनों पक्षों की सहमति से युवक-युवती का विवाह हिन्दू धर्म में ब्रह्म-विवाह कहलाता है। जहाँ, अन्य धर्मों में विवाह पति -पत्नि के बीच एक agreement होता है जिसे बाद में निरस्त भी किया जा सकता है। लेकिन हिन्दू-विवाह जन्मों का सम्बन्ध माना जाता है जिसे तोडा नहीं जा सकता। ये एक आत्मिक सम्बन्ध माना गया है।
कन्यादान
कन्यादान |
कन्यादान का अर्थ है कि पिता जब अपनी पुत्री का हाथ वर के हाथ में देता है तो लड़की की देखभाल की जिम्मेदारी वर व् उसके माता -पिता के ऊपर स्थानांतरण करता है । कन्या चूँकि नए घर में , नए वातावरण में प्रवेश कर रही है अतः प्रेम , सहयोग , सुरक्षा आदि की कमी महसूस न हो। भावना यह है कि कन्या कोई संपत्ति नहीं है जिसका जैसे चाहे उपयोग करो।
पाणिग्रहण -संस्कार
वर व् वधु द्धारा एक -दुसरे को अपने हाथ सौंपना पाणिग्रहण है। भावना है की एक-दूसरे का सहारा बनेगें।
सात -फेरे [सप्तपदी ]
सात फेरे |
दोनों परिवारों के सदस्यों के सम्मुख , देवताओं के शरणागत , अग्नि के फेरे लेते हुए , मंत्रोचारण के साथ कुछ नियमों के पालन के लिए शपथ लेना। पहला कदम अन्न , दूसरा शक्ति [शारीरिक व् मानसिक ] , तीसरा संपत्ति , चौथा सुख , पांचवाँ परिवार , छटा ऋतुचर्या [ऋतु के अनुसार खान -पान व् मर्यादाओं का कठोरता व् सतर्कता से पालन करना ] और सातवाँ कदम मित्रता के लिए उठाये जाते हैं। विवाह के पश्चात् पति -पत्नि दोनों को सात कार्यक्रम अपनाने होते हैं तथा उसमे दोनों का उचित , मित्रतापूर्ण , न्यायसंगत योगदान रहे, यही सात -फेरे [सप्तपदी ] का उद्देश्य है। [Source wikipedia]
सात -वचन
[१] कन्या वर से यह वचन लेती है कि आप कभी यात्रा पर जाएँ या कोई व्रत -उपवास , धार्मिक कार्यक्रम करें तो मुझे साथ रखें, तो मैं आपके वामांग [Left -Hand ] आना स्वीकार करती हूँ।
[२] कन्या वर से यह वचन लेती है कि जिस तरह आप अपने माता -पिता का सम्मान करते हैं , उसी प्रकार मेरे माता -पिता का भी सम्मान करेंगे तथा मर्यादित धार्मिक -कार्य व् ईश्वर भक्ति करते रहेंगे, तो मैं आपके वामांग [Left -Hand ] आना स्वीकार करती हूँ।
[३] तीसरे वचन में कन्या कहती है कि आप मुझे ये वचन दें कि आप जीवन की तीनों अवस्थाओं (युवा, प्रौढ़ा, वृद्धा) में मेरा पालन करते रहेंगे. यदि आप इसे स्वीकार करते हैं तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ.
[४] चौथे वचन में वधू ये कहती है कि अब जबकि आप और मैं विवाह बंधन में बँधने जा रहे हैं तो भविष्य में परिवार की समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति का दायित्व आपके कंधों पर है. यदि आप इस भार को वहन करने की प्रतिज्ञा करें, तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ.
[५] पांचवें वचन में कन्या कहती है कि अपने घर के कार्यों में, विवाह आदि, लेन-देन अथवा अन्य किसी हेतु खर्च करते समय यदि आप मेरी भी राय लिया करें, तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ.
[६] छठवें वचन में कन्या कहती है कि यदि मैं कभी अपनी सहेलियों या अन्य महिलाओं के साथ बैठी रहूँ तो आप उनके सामने किसी भी कारण से मेरा अपमान नहीं करेंगे. इसी प्रकार यदि आप जुआ अथवा अन्य किसी भी प्रकार की बुराइयों से अपने आप को दूर रखें, तो ही मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ.
[७] आखिरी या सातवें वचन के रूप में कन्या ये वर मांगती है कि आप पराई स्त्रियों को मां समान समझेंगें और पति-पत्नि के आपसी प्रेम के मध्य अन्य किसी को भागीदार न बनाएंगें. यदि आप यह वचन मुझे दें, तो ही मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ.
[Note:-वर के दायें हाथ पर बैठे होने तक वधु बाहरी व्यक्ति जैसी स्थिति में होती है , परन्तु बाएँ हाथ पर बैठने पर वो आत्मीय हो जाती है, ऐसी धारणा है। इसलिए वर के वामांग [Left -Hand] पर बैठने से पहले वधु उपरोक्त वचन लेती है]
अब विचार करते हैं कि कितने वर -वधु , उनके माता -पिता उपरोक्त वचनों को याद रखते हैं. संभवतया, नगण्य !!!
ब्रम्ह-विवाह से शुरुआत करते हैं: कितने शादीशुदा जोड़े एक -दुसरे को जन्म-जन्मान्तर के सम्बन्ध के रूप में देखते है? और कितनों को पता है कि आज वो कौन से जन्म -बंधन पर हैं और पिछले जन्म में कौन से बंधन में थे ?
कन्यादान / विदाई के बाद वर व् उसके माता -पिता वधु को कितना प्यार करते हैं , कितना उसे बराबरी का स्तर देते हैं? सच्चाई तो यही है की वो बहु को अपनी मर्जी से चलाने, उसकी आज़ादी छीन लेने की कोशिश करते हैं। इसीलिए कुछ बहुएँ दुखी हैं, बेबस हैं। जो बहु साहस दिखाती है वो आँख की किरकिरी बन जाती है
इसी तरह सप्तपदी व् सात वचन ज्यादातर वर-वधु को याद नहीं हैं !!
ऐसा लगता है कि आज के समय में शादी की रस्में केवल औपचारिकता रह गई हैं। लड़के का Package ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया है। लड़की दिखने में सुन्दर हो, Education भी अच्छी हो इस पर अधिक जोर है। गुण -दोषों का पता लगाने की कोशिश तो की जाती है परन्तु पता नहीं चलता , कारण सम्बन्ध दूर-दराज के इलाके में होने लग गए हैं. दिखावा बहुत बढ़ गया है। खाने की सैंकड़ों वेरायटी होनी चाहिये , बर्बादी की कोई चिंता नहीं । पंडितजी विवाह-संपन्न करने की रकम पहले से तय करते हैं. मंत्र क्या बोले जा रहे हैं, उनका क्या महत्व है, कोई ध्यान नहीं देता। कोशिश रहती है विवाह शीघ्र निपटे। पंडित जी से फेरे जल्दी कराने का निवेदन होने लगता है। चिंता रहती है कि विवाह संपन्न हो तो विदाई कराई जाए क्योंकि अन्य कार्य निपटाने हैं।
एक अन्य पहलु यह भी है कि शादी के बाद समाज में बच्चों को एक साथ रहने का कानूनी अधिकार मिल जाता है और समाज की सहमति की मोहर भी लग जाती है। शादी के बाद वर-वधु शादी के वचनों को याद रखें या न रखें, माता -पिता उन्हें याद दिलाएं या न दिलाएं कोई अंतर नहीं पड़ता। नतीजा, मन-भेद व् घुटन की शुरुआत।
उधर Western culture व् Bollywood में विवाह के उपरांत सम्बन्ध -विच्छेद से भी आज का युवा प्रभावित है। अतः उसकी नज़र में उपरोक्त विवाह-वचन महज औपचारिकता ही है। दूसरे, उन वचनों को न निभाने पर कोई दंड का प्रावधान हिंदू -धर्म में है या नहीं है, कोई जानने का प्रयास नहीं करता । विवाह के पश्चात पर-पुरुष या पर-नारी से सम्बन्ध भी बन जाते हैं।
कन्या यदि पढ़ी -लिखी है तो किसी भी कीमत पर पति से दब कर नहीं रहना चाहती। वो घर में बैठ कर दासी की ज़िन्दगी नहीं जीना चाहती। वो नौकरी/व्यवसाय करके अपने पैरों पर खड़ा होना चाहती है। उसकी अपेक्षा रहती है कि घर के काम में पति भी उसका सहयोग करे। यदि सामंजस्य स्थापित हो गया तो ठीक, नहीं तो "विवाद , शिकायत , अनबन " शुरू।
प्रश्न यही है कि हिन्दू -विवाह पद्धत्ति से जो विवाह हो रहें हैं उस पद्धत्ति की मूल नियमावली को कितने लोग जानते ,समझते व् अमल करते हैं। उत्तर है "न" के बराबर ".
तो क्या "हिन्दू -विवाह पद्धत्ति" में वर्णित प्राचीन व्यवस्थाओं की वर्तमान समय में उदासीनता पर विचार करना चाहिए!! शायद..........हाँ
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