कवि:- शिवदत्त श्रोत्रिय
जैसी हो वैसी चली आओ
अब शृंगार रहने दो|
अगर माँग हे सीधी
या फिर जुल्फे है उल्झी
ना करो जतन इतना
समय जाए लगे सुलझी
दौड़ी चली आओ तुम,
ज़ुल्फो को बिखरा रहने दो
जैसी हो वैसी चली आओ
अब शृंगार रहने दो|
कुछ सोई नही तुम
आधी जागी चली आओ
सुनकर मेरी आवाज़
ऐसे भागी चली आओ
जल्दी मे अगर छूटे कोई गहना,
या मुक्तहार रहने दो |
जैसी हो वैसी चली आओ
अब शृंगार रहने दो|
बिना भंवरे क्या रोनक
गुल की गुलशन मे
ना टूटे साथ जन्मो का
ज़रा सी अनबन मे
गुल सूखे ना डाली पर,
इसे गुलजार रहने दो||
जैसी हो वैसी चली आओ
अब शृंगार रहने दो|