जिंदगी बिछड़ी हो तुम तन्हा मुझको छोड़ कर
आज मैं बेबस खड़ा हूँ, खुदखुशी के मोड़ पर ||
जुगनुओं तुम चले आओ, चाहें जहाँ कही भी हो
शायद कोई रास्ता बने तुम्हारी रौशनी को जोड़ कर ||
जनता हूँ कुछ नहीं मेरे अंदर जो मुझे सुकून दे
फिर भी जोड़ रहा हूँ मैं खुद ही खुद को तोड़ कर ||
जिस्म को ढकने को हर रोज बदलता हूँ लिबास
रूह पर नंगी है कब से मेरे बदन को ओढ़ कर ||
# शिवदत्त श्रोत्रिय