कवि:- शिवदत्त श्रोत्रिय
हर किसी को आज है, इंतेजार महफ़िल मे मेरा
फिर भी लगता है कि , बस हम ही बिन बुलाए है||
मोहब्बत अगर गुनाह, फिर हम दोनो थे ज़िम्मेदार
महफिले चाँदनी तुम, हम सरे बज्म सर झुकाए है||
खामोशी उनकी कहती है, कुछ टूटा है अन्दर तक
लगता है जैसे मेरी तरह, वो जमाने के सताए है ||
वैसे क्या कम सितम, जमाने ने मुझ पर ढहाए है
जो वो फिर से आज, मेरी जिंदगी मे चले आए है||