कवि:- शिवदत्त श्रोत्रिय
वक़्त को क्यो फक़्त इतना गवारा ना था
जिसको भी अपना समझा, हमारा ना था||
सोचा की तुम्हे देखकर आज ठहर जाए
ना चाह कर भी भटका पर, आवारा ना था||
धार ने बहा कर हमे परदेश लाके छोड़ा
जिसे मंज़िल कह सके ऐसा, किनारा ना था||
दुआए देती थी झोली भरने की जो बुढ़िया
खुद उसकी झोली मे कोई, सितारा ना था ||
सारी जिंदगी सहारा देकर लोगो को उठाया
उसका भी बुढ़ापे मे कोई, सहारा ना था ||