कब तक चलेगा काम खुद को जोड़ जाड के
हर रात रख देता हूँ मैं, खुद को तोड़ ताड़ के ||
तन्हाइयों में भी वो मुझे तन्हा नहीं होने देता
जाऊं भी तो कहाँ मैं खुद को छोड़ छाड़ के ||
हर बार जादू उस ख़त का बढ़ता जाता है
जिसको रखा है हिफ़ाजत से मोड़ माड़ के ||
वैसे ये भी कुछ नुक़सान का सौदा तो नहीं
सँवार ले खुद को वो अगर मुझको बिगाड़ के ||
खुशबू न हो मगर किसी को ज़ख्म तो न दे
तुलसी लगा लूँ आँगन में गुलाब उखाड़ के ||
संचय (Hindi Poems): खुद को तोड़ ताड़ के