कवि: शिवदत्त श्रोत्रिय
तुम्हारे वास्ते मैंने भी बनाया था एक मंदिर
जो तुम आती तो कोई गज़ब नहीं होता ||
मन्दिर मस्ज़िद गुरद्वारे हर जगह झलकते है
बेचारे आंशुओं का कोई मजहब नहीं होता ||
तुम्हारे शहर का मिज़ाज़ कितना अज़ीज़ था
हम दोनों बहकते कुछ अजब नहीं होता ||
जिनके ज़िक्र में कभी गुजर जाते थे मौसम
उनका चर्चा भी अब हर शब नहीं होता ||
जब से समझा क्या है, अमीरी की क़ीमत
ख़ुशनसीब है वो पागल जो अब नहीं रोता ||