अहिल्या उद्धार के उपरांत विश्वामित्र राम और लक्ष्मण को लेकर मिथिला नगरी पहुंचे। मिथिला नगरी का सौन्दर्य और वैभव देखकर दोनों भाई बहुत हर्षित हुए।नगरवासी भी दोनों सुन्दर राजकुमारों को देखकर बहुत प्रसन्न हुए।सभी कामना करने लगे कि स्वयंवर में शिव - धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाकर राम हीं सीता का वरण करें।
राजा जनक ने विश्वामित्र और दोनों राजकुमारों का राज्योचित आदर-सत्कार किया और उन्हें एक अति सुन्दर अतिथिशाला में ठहराया। वहां की पुष्प वाटिका में एक दिन प्रातः काल गुरुदेव की पूजा के लिए पुष्प एकत्रित करते राम ने सीता को और सीता ने राम को देखा। सीता ने मन हीं मन राम को ही वररुप में पाने की प्रार्थना की।
स्वयंवर में राम और लक्ष्मण शांत भाव से स्वयंवर स्थल पर अन्य राजाओं के साथ विराजमान थे।सभी बारी- बारी से शिव - धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाने का प्रयत्न कर रहे थे। परन्तु प्रत्यंचा चढ़ाना तो दूर,वे धनुष को उठा भी नहीं पा रहे थे।तब दुःखी होकर राजा जनक ने खड़े होकर कहा," क्या इस धरती पर कोई ऐसा बीर नहीं,जो इस धनुष की प्रत्यंचा चढ़ा सके?"
राजा की बात सुनकर सभी चुप बैठे रहे। तब विश्वामित्र ने राम से कहा," जाओ राम! राजा जनक की चिंता दूर करो।"
राम विश्वामित्र जी को नमन करके उठे। धनुष के पास जाकर उृ शिवको नमन किया और जैसे हीं धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाने लगे,जोड़दार शब्द ध्वनि के साथ धनूष टूट गया।"