धनुष-भंग की भयंकर ध्वनि सुनते ही परशु अर्थात फरसा धारण कर, महाभयंकर और क्रोधी परशुराम वहां आ पहुंचे और जोर - जोर से चिल्लाने लगे," यह शिव धनुष किसने तोड़ा है? उसे मेरे सामने लाओ। मैं इस फरसे से उसकी गर्दन उडा दूंगा।"
वे बार- बार इक्कीस बार पृथ्वी से क्षत्रियों के विनाश की बात कह- कहकर उछल-कूद मचाने लगे। राम शांत खड़े थे। परन्तु लक्ष्मण से परशुराम की बड़ी - बड़ी बातें सहन नहीं हो पा रही थी।अंत में वे उठे और बोले," मुनिराज! अपना यह फरसा किसी और को दिखाना।हम वे क्षत्रिय नहीं हैं जो आपसे डर जाएं। और रही बात धनुष की तो, ऐसी- वैसी कितनी धनुईयां हमने बचपन में हीं तोड़ डाली है।" लक्ष्मण के इन शब्दों ने अग्नि में घी का काम किया।
तभी राम ने संकेत से लक्ष्मण को चुप कराया और नम्रता से हाथ जोड़कर परशुराम से निवेदन किया," मुनिवर! आपका अपराधी तो मैं हूं।आप जो दण्ड देना चाहे, मुझे दें।"
राम की विनम्रता देखकर परशुराम का क्रोध शांत हो गया।क्रोध समाप्त होते हीं परशुराम को मानो सहसा कुछ याद आया। उन्होंने भगवान विष्णु का धनुष राम की ओर बढ़ाया तथा उसे खींचने को कहा। राम के हाथों में आते हीं धनुष अपने आप चल गया। परशुराम ने राम लक्ष्मण से क्षमायाचना की और तप करने वन को चले गए।